और चांद उफ़क में डूब गया...
पीयूष कुमारवे सत्तर की हो रही थीं पर वे ताउम्र 15 साल की ही रहीं। बच्चों सी अल्हड़ता, मासूमियत और मिठास से लबरेज उनकी आवाज में उमंग हमेशा उछाह मारता था। उत्साह और खुशमिजाजी उनका प्रमुख गुण था। तीन साल पहले बिलासपुर में मेरी नौ वर्षीय बिटिया गुनगुन के साथ उनका किया मस्ती भरा डांस हमेशा याद रहेगा।

Bhaskar Choudhury भाई की अम्मा और हम सबकी प्रिय शुक्ला ( Shukla Choudhury ) मम्मीजी नहीं रहीं। उनकी जिजीविषा ही थी कि कोविड से वे पिछले डेढ़ माह से लड़ सकीं।
मुझे उम्मीद थी कि वे ठीक होकर आएंगी और चिर परिचित अल्हड़ और मीठी आवाज में कहेंगी, ले, अब चांद पर एक कविता सुन! शुक्ला मम्मीजी जिंदादिल इंसान थीं। तेज नदी की धार और झरने जैसा अलमस्त जीवन। अपने आसपास जो मिलता उससे सीधे और आत्मीय बातें करतीं।
मम्मीजी प्रगतिशील और तार्किक थीं। उनकी लिखी कहानियों में स्त्री प्रगतिशीलता, प्रतिरोध और स्वतंत्रता की उन्मुक्त उड़ान मिलती है। उनके चरित्र और घटनाएं आसपास के और देखे भाले होते। कविता में इन दिनों चांद उनका प्रिय था। फ्लो में लिखी हुई चांद पर उनकी कविताएं बिल्कुल अलहदा हैं।
जितना मैनें पढा है चांद पर, उनके जैसा लिखा कहीं नहीं पढ़ा। आप उनकी वाल पर वे कविताएं अभी भी पढ़ सकते हैं। मित्र और कवि रजत कृष्ण ने उन्हें इसलिए 'चांद की बेटी' कहा है। पिछले 17 अप्रैल को अस्पताल से उन्होंने फेसबुक पर लिखा - मुझे चांद चाहिए। मैंने तत्काल एक क्लोजअप शॉट लिया चांद का और भास्कर भाई को भेजा उन्हें दिखाने।
ये था उनका जज्बा चांद को लेकर, जिंदगी को लेकर। मेरी उनसे फेसबुक और ही बात हो जाती थी लगभग रोज ही। फेसबुक पर उन्होंने बहुत प्यार कमाया। कहती थीं कितना बड़ा परिवार है यहां।
अभी चार बजे नींद खुली और भास्कर भाई की वाल पर उनके नहीं रहने की खबर पढ़ी। मन ठहर गया वहीं। आंख नम होती गयी। उन्हें देखने बाहर निकला और आसमान पर नजर दौड़ाई। देखता हूँ, चांद कहीं दूर उफ़क पर डूब गया है...
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