गँगा में लाशें बहती रही और हम नहाते रहे
के. आर. शाहसमाज और सत्ता किसी भी राष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। समाज चाहे जितना भी कमजोर, दिशाहीन या रूढिवादी हो, यदि सत्ता (शासन प्रशासन चलाने वाले लोग) मजबूत इच्छाशक्ति, दूरदृष्टि व विज्ञानवादी सोच के लोगों के हाथों में है तो कुछ भी असँभव नही है। चीन इसका सबसे बडा उदाहरण है। भारत से बडी जनसंख्या के बावजूद वह प्रत्येक क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुका है। भाग्य और भगवान से बाहर निकल कर चाईना ने आज खुद को यूरोप, अमेरिका व रुस के समकक्ष खडा कर लिया है। विश्व के सभी विकसित देशों की जनता ईश्वर को मानती है और अपने धर्म पर विश्वास करती है। आज यह विकसित देश भाग्य औंर भगवान के नाम पर निर्मित पाखण्डवाद से पूरी तरह मुक्त हो गये है।

1920 मे आई वैश्विक महामारी के समय भारत एक गुलाम देश था। अँग्रेजो की लाख कोशिशों के बावजूद आधुनिक चिकित्सा पद्धति से भारतीय जनमानस इलाज के लिए सहर्ष तैयार नहीं था इस कारण मौतें अधिक हुई। 2020 मे आई महामारी मे हम एक सौ तीस करोड़ जनसंख्या के साथ विश्व के सबसे बडे स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश है। लगभग 60% आबादी युवा है। इस सदी की पहली और दुसरी लहर की महामारी को 130 करोड़ जनता ने खुली आँखों और विवेक पूर्ण दीमाग से देखा, समझा,झेला व भोगा है।
भारतीय समाज जिसे आज भी भाग्य और भगवान पर अधिक विश्वास है क्योंकि सदियों से उसे यही सिखाया पढाया गया है, इस महामारी मे बेबस और लाचार नजर आता है। माँ गँगा भारत की सबसे पवित्र नदी है जिसमें आज हजारों लाशें उनकी बह रही है जिन्होंने कभी उसके तट पर शुद्ध मन से उपवास रख घी के दीपक जलाये थे और माँ गँगा की आरती भी की थी। ऐसा मँजर इस सदी के भारतवासियों ने पहले कभी नही देखा था। जीवन मृत्यु प्रकृति का शास्वत नियम है लेकिन लोग बिना इलाज असमय मर जाय यह प्रकृति का नियम नही है।
प्रकृति में जीवन जीने का एक ही नियम है कि मनुष्य को आपदाओं, विपदाओं व महामारियों से बचने तथा सुरक्षित रहने के सारे उपाय स्वयं खोजने व तैयार करने होंगे।अब देशवासियों को अपने तथाकथित वैदिक व पौराणिक मान्यताओं, परमपराओं, रूढियों आदि इत्यादि प्रकार की अवैज्ञानिक अवधारणा का चिंतन मनन करना ही होगा।
दीप जलाकर माँ गँगा की आरती करना या मँदिरों में प्रार्थना करना मानव मन की शाँति का विषय है लेकिन उसके लिए हजारों, लाखों की धन राशि खर्च करना जीवन की अशांति का कारण अवश्य है और आज प्रमाणित भी हो गया है। गँगा में लाशें बहती रही और हम नहाते रहे। लोग मरते रहे और हम देखते रहे। ना धन काम आया, ना पद और पावर काम आया। ना भाग्य काम आया और ना भगवान काम आया। गीता में यही तो गूढ सँदेश है कि हे मानव, सिर्फ और सिर्फ तेरा कर्म ही काम आयेगा, शेष सब व्यर्थ है।
यह बात आईने की तरह साफ हो चुकी है कि सारी दुनिया में ताँडव मचाने वाले कोरोना वायरस ने भारत को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है। लाखों भारतीयों की जान इसलिये नही बचाई जा सकी क्योंकि हमारे पास उस प्रकार के ना सँशाधन है और ना ही आपातकालीन व्यवस्था करने मे सरकार सफल हो पाई। अब तन,मन,धन से जाग उठने का समय है। अब हमें बुद्धि,ज्ञान और विवेक से जागना है। भाग्य और भगवान की जो व्याख्या भारत में अवतरित की गई वह व्यवसाय आधारित पाखंड से अधिक कुछ नहीं है।
एक गँभीर मरीज इलाज हेतु अस्पताल में भर्ती होता है और अच्छे डाक्टर से बेहतर इलाज मिलने के बाद भी मर जाता है तो हम इस मृत्यु को भाग्य या नियति मान सँतोष कर लेते हैं। मन की शाँति व सँतुष्ठि का यह सिद्धांत पूरी दुनिया में है। लेकिन अब इसके ठीक विपरीत स्थिति हो कि मरीज गँभीर हालत में है और इलाज के लिए अस्पताल नहीं है, अस्पताल है तो बिस्तर नही है, बिस्तर है तो दवाई नहीं है, आक्सीजन, वेन्टीलेटर नहीं है या विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है और मरीज तडप तडप कर मर जाय, तब यहां पर ना तो भाग्य है ना ही भगवान है।
यूरोप, अमेरिका के लोगों ने इस विधा को महामारियों से ना सिर्फ सिखा बल्कि उसे अपने जीवन में भी उतार लिया। वहां पर धर्म भी है, ईश्वर भी है, चर्च और पादरी भी है लेकिन अँधविश्वास, धार्मिक कर्मकाण्ड व पाखंड बिल्कुल भी नहीं है। हमें भी ऐसा ही भारत बनाना होगा।
21 वी सदी की पहली वैश्विक महामारी ने भारत को तहस नहस करके रख दिया।हमारी प्राथमिकता यह नहीं है कि कोरोना की सुनामी मे दुनिया कितनी डूबी। जब लगी है आग घर में तब शहर का हाल पुछना मुनासिब नहीं होता दोस्तों। मां गँगा ने जिसे बुलाया था और जिसने मां गँगा की सौगंध खाया था, आज उसी के शहर से बहती गँगा ने हजारों लाशों को ढोते हुए आँसू बहाया है। गँगा के तटों पर दफन लाशों का मिलना जारी है और अँधी सरकारें गीत गा रही है। क्या आलम है देश की बाहरी जनता का कि वह उस गीत को सुन भी रही है।
देश के सभी राज्यों में लोगों ने सरकारों की बद इँतजामी से दम तोड़ दिया और सरकारें लाशों को छुपाकर मेरिट बनाने में लगी रही। खबर है कि 40 दिनों मे अकेले गुजरात में सवा लाख से अधिक लोग मर गये। मेरे जिला दुर्ग में ही इन्हीं 40 दिनों मे प्रतिदिन डेढ़ से दो सौ जानें जाती रही लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार की अँकतालिका तीन अँको मे कैद है। देश के हर व्यक्ति का रिश्तेदार या उसका कोई अपना करिबी, परिचित इस महामारी की भेँट चढ गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अकाल मृत्यु के आँकड़े दस लाख से अधिक हो सकते हैं।
मृत्यु अटल व सत्य है, यह हम सब जानते हैं लेकिन असमय मृत्यु कभी स्वीकार नही होती। भाग्य औंर भगवान के कथासागर मे लगभग तीन हजार सालों से गोता लगा रहे भारतवासियों ने असामयिक मृत्यु को भी सदैव भाग्य औंर भगवान की इच्छा माना। बीसवीं सदी में आई वैश्विक महामारी से भारत में लगभग 8 से 10 करोड़ भारतीयों के अकाल मृत्यु की जानकारी मिलती है। इस समय भारत अँग्रेजी हुकूमत के अधीन पूर्ण रुप से भाग्य औंर भगवान भरोसे था। आपदाओं व विपदाओं को ईश्वरीय प्रकोप मानकर नियति से समझौता कर लेना भारतीय सामाजिक चरीत्र की विशेषता थी। इसके बाद समय बदला और बदलता चला गया।
चिकित्सा विज्ञान ने असमय मृत्यु पर लगातार विजय हासिल कर मानव जीवन को नये आयाम दिये। कोरोना महामारी के शिकार मरीज़ों को मौत के मुंह से बाहर निकालकर चिकित्सा विज्ञान ने साबित कर दिया कि मृत्यु भाग्य और भगवान का खेला नही है। यूरोप व अमेरिका की तरह भारतीय समाज ने अभी सोचना शुरू नही किया है लेकिन कोरोना महामारी के वायरस हमले और भारी मौतों ने देश की बहुत बडी जनसंख्या को नया सोचने के लिए बाध्य अवश्य कर दिया है।
आज एक आम आदमी भी यह सोच रहा है कि उसके माता, पिता, भाई, बहन, रिश्तेदार को यदि अस्पताल मिल गया होता, बेड, आक्सीजन और दवाइयां समय पर मिल गई होती तो जान जाने से बच जाती। जो भाग्यशाली लोग बच कर आये है आज वे सभी डाक्टरों, नर्सों व पैरामेडिकल का दिल से धन्यवाद अदा कर रहे हैं। यह बचे हुये लोग ईश्वर को भी धन्यवाद कर रहे है लेकिन उन्हें यह विश्वास हो गया है कि अब भाग्य और भगवान के भरोसे नहीं जीया जा सकता।
समाज और सत्ता किसी भी राष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। समाज चाहे जितना भी कमजोर, दिशाहीन या रूढिवादी हो,यदि सत्ता (शासन प्रशासन चलाने वाले लोग) मजबूत इच्छाशक्ति, दूरदृष्टि व विज्ञानवादी सोच के लोगों के हाथों में है तो कुछ भी असँभव नही है। चीन इसका सबसे बडा उदाहरण है।
भारत से बडी जनसंख्या के बावजूद वह प्रत्येक क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुका है। भाग्य और भगवान से बाहर निकल कर चाईना ने आज खुद को यूरोप, अमेरिका व रुस के समकक्ष खडा कर लिया है। विश्व के सभी विकसित देशों की जनता ईश्वर को मानती है और अपने धर्म पर विश्वास करती है। आज यह विकसित देश भाग्य औंर भगवान के नाम पर निर्मित पाखण्डवाद से पूरी तरह मुक्त हो गये है।
किसी समय यूरोप, अमेरिका भी भाग्य, भगवान और धार्मिक पाखंड से ग्रसित थे।चर्च, पादरी, बिशप के धार्मिक चमत्कार पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास रखते थे। वैश्विक महामारियों ने मनुष्यों को ईश्वरीय चमत्कार से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्ष 1620, 1720, 1820 मे आई वैश्विक महामारी ने यूरोप महाद्वीप सहित अमेरिका, एशिया व दक्षिण अफ्रीका मे भारी तबाही मचाई। करोड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए।
गिरजाघरों, मजारों व मँदिरो के प्रागंण में लाखों लोगों ने दम तोड़ दिया। पादरी, पुजारी व मौलवी सभी मारे गये। जिनके पास आम जनता को बचाने का धर्म आधारित अधिकार था जब वे ही स्वयं को नहीं बचा पाये तब नये विचारों ने जन्म लिया और क्रमशः विकसित होते होते ईश्वरीय चमत्कार को वैज्ञानिक आविष्कार में बदल दिया। इस प्रकार विकसित देशों ने भाग्य और भगवान के भरोसे जीवन जीने की मान्यताओ व परमपराओं का अन्त कर दिया।
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