कहानी : अधिकार का ज्ञान

इलिका प्रिय की कहानी

इलिका प्रिय, कथाकार

 

गर्मी का मौसम था। पर लोग धरना देने से पीछे नहीं हट रहे थे। पिछले दो वर्षों से वे विरोध कर रहे थे। हालांकि उनकी मांगें अभी तक नहीं मानी गयी थी। जंगल के इन इलाकों के वे आज के निवासी नहीं है। यह इलाका उनके नाम से ही जाना जाता है, हर कोई जानता है आदिवासियों का प्रदेश। वे वहां के सिर्फ निवासी ही नहीं रहे हैं वहां के पेड़-पौधे, जमीन-पहाड़, नदी-तालाब प्रकृति के हर वरदान के रखवाले भी रहे हैं। अपने जीवन को उन्होंने उसी पर निर्भर बना रखा है। उनके खाने-पीने की आधी चीजें वहीं से निकलती है। 

वे जलावन की लकडिय़ां भी वहीं से लाते हैं, मगर कभी भी प्रकृति को उन्होंने नुकसान नहीं पहुंचाया। हरे-भरे पेड़ों को काटने के वे कभी आदि नहीं रहे हैं, हमेशा सूखे पेड़ों को काटा और जलाया, नये-नये पौधे लगाए, हमेशा जंगल को हरा-भरा रखा। तोडऩे वाले फल ही तोड़े, जड़ी-बूटियों से इलाज किया जिसे तोडऩे से पेड़ों को कोई नुकसान न था, जंगली जानवरों का खयाल भी रखा। गिनती के ऐसे पेड़-पौधेे होंगे जो उनके द्वारा अपनी जरूरत पूरी करने के लिए नष्ट किये गये होंगे। उनकी संख्या हजार में एक की होगी। उनकी धार्मिक मान्यताओं ने भी पेड़-पौधों की रक्षा ही की। उनकी संस्कृति ने उन्हें पेड़-पौधे उजाडऩा कभी नहीं सिखाया। उन्हें प्रकृति का रक्षक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

इसी कारण जब उनके इलाके में भी दमनकारी कानूनें लागू की जाने लगी, खनन किये जाने के लिए, विकासवादी सडक़ें बनाए जाने के लिए अच्छे खासे पहाड़ों को काटने, जंगलों को उजाडऩे का कानून लागू किया जाने लगा वे अपने-अपने घरों से निकलकर आंदोलन की राह पर चल पड़े। एसडीओ की ऑफिस के बाहर, ब्लॉक के सामने धरना देकर अपना विरोध व्यक्त किया, अपनी मांगें रखी। 

वही जरूरी मांगें जिसके लिए बुद्धिजीवी लोगों द्वारा विश्व स्तर पर अभियान चलाये जाते थे, पर्यावरण बचाओ अभियान-उन्हीं मांगों को लेकर जिसे नेशनल चैनलों के साथ-साथ व्यावसायिक चैनलों में अच्छे-खासे पैसे लेकर प्रचार किये जाते थे, पेड़ लगाओ, पर्यावरण बचाओ... हां वे भी पर्यावरण बचाने की मांग को लेकर धरने पर बैठे थे। हां उनकी मांगें भी थी, हरे-भरे पेड़ काटकर खनन न किया जाए। पहाड़-जंगल पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी हैं इन्हें न उजाड़ा जाए। 

उनके रखवालों को उनके घर-जमीन से अलग न किया जाए। पर वे अपने दोस्त का सीना चीरकर सडक़ें बनते हुए देख रहे थे, अब इस व्यावसायिक कार्य के लिए जहां खनन के बाद फैक्ट्री लगने वाली थी और उन्हें घर-जमीन से बेदखल कर उनके व उनके दोस्तों के जीवन में जहर घोलने वाली थी। आखिर कब तक इस तबाही को देखा जा सकता था। उस तबाही के वे खुद भी तो एक मोहरा थे जिन्हें अनिश्चित जीवन जीने के लिए मजबूर किया जा रहा था। अपने घर से बेदखल किया जा रहा था। चंद मुआवजे क्या उन्हें रोटी-कपड़ा-मकान दिला सकती थी?

पर उनके धरने से व्यवस्था के कानों में जूं तक न रेंगी। वे अपना विकासवादी मॉडल लिए हुए डेवलपमेंट का नक्शा तैयार कर रहे थे। उनकी पर्यावरण बचाने, पर्यावरण बचाने वालों को बचाने की मांग बिलकुल ही नहीं मानी गई थी। पर आज के आंदोलन में जिसके लिए पूरे क्षेत्र के गांव वाले जमा हुए थे, वह उस खनन कार्य के खिलाफ ही आंदोलन न था, यह आंदोलन नये सीआरपीएफ कैंप लगाने के खिलाफ था। इससे पहले भी कई कैंप कई जगहों पर लगाए जा चुके थे। जिसके खिलाफ में वे लोग भी शामिल थे जो अब तक शामिल नहीं हुए थे। 

अगर सच्चाई से सोचा जाता तो यह विचार किसी के भी मन में कौंध सकता था, आखिर एक गांव में ऐसे गांव में जहां के लोग पर्यावरण के प्रति इतने सजग हो, सीआरपीएफ कैंप की क्या जरूरत पड़ गयी? 

गांव में लोगों को पीने के लिए दूर-दूर तक भटकना पड़ता है, छप्पर के उनके घर बने हुए है, घर में न गर्मी से बचने के लिए कुछ है, न बरसात, न जाड़ा।

खाने के लिए वही गिने-चुने सामान है, पौष्टिक आहार को उन्होंने जिंदगी में कभी नहीं देखा, इलाज के लिए पैदल कोसों दूर जाने के बाद भी न दवा मिलती, न डॉक्टर, मरे हुए लोगों को साइकिल पर लादकर वे गांव लाते थे, गरीबी के दंश में झाड़-फूंक, भूत-पिचाश जैसी कोरी बातें उन्हें अपनी समस्या का समाधान नजर आते, न खेती के लिए सिंचाईं की कोई व्यवस्था थी, न डेवलप खेती की पद्धति, स्कूल के लिए भी कई-कई किलोमीटर मासूम बच्चों को पैदल ही जाना पड़ता था, उस शिक्षा के लिए जहां शिक्षा के नाम पर नाममात्र की चीजें थी, जिस गांववासियों का जीवन स्तर वर्षों पुराने ढर्रे पर ही चल रही थी, बल्कि आज आधुनिक समस्याओं से लड़ते हुए और भी बदतर हो गई थी उस गांव में आखिर सीआरपीएफ कैंप की क्या जरूरत थी? 

क्या उनकी समस्याएं सीआरपीएफ कैंप से ठीक होने वाली थी? उनके हथियार से, उनके रोबिले अंदाज से, गोला-बारूद से या उनके सर्च ऑपरेशनों से जिसमें कभी किसी ग्रामीण को यूं ही पीट दिया जाता या उनकी पाली मुर्गियां, बकरियां चुरा लिया जाता, उनके छोटे से गिने चुने सामान से भरे घर के सामान को तितर-बितर कर दिया जाता और इससे भी घिनौनी गांव की महिलाओं को घृणित नजरिये से देखा जाता...उनके साथ बदसलूकी की जाती। क्या यह विकास संभव था उस दमन से जिसे ऐसे कैंप के पास रहने वाले ग्रामीण झेलते थे...।

सभी जानते थे पुलिस प्रशासन सत्ता के हर कानून की रखवाली करती है, चाहे वह कितना भी जनविरोधी क्यों न हो? जब शिक्षा के व्यवसायीकरण से तंग आकर यूनिवर्सिटी छात्र एजुकेशन सिस्टम के खिलाफ असंतुष्ट होकर आंदोलन करते हैं, ताकि कुछ सुधार हो, तो पुलिस वाले आंदोलित छात्रों पर डंडे बरसाती हैं। उनके तर्क-वितर्क नहीं सुनती।

करोड़ों जनता जब लॉक डाउन में बेसहारा मजदूरों की स्थिति पर आहत हो रही थी, उनकी बदहाली पर आंसू छलका रही थी, उस वक्त वर्दीधारी उन पर डंडे बरसा रहे थे, उन्हें मुर्गे बना रहे थे, जेलों में ठूंस रहे थे, लोग उनके डर से रेल की पटरियों पर चले और कटकर मर गए, क्या उन वर्दीधारियों से उम्मीद की जा सकती थी कि वे अपने जायज मांगों को लेकर आंदोलनरत ग्रामीणों के पक्ष में खड़े होकर उनका साथ देंगे? फिर एक गांव में सीआरपीएफ कैंप का मतलब क्या था? सच और झूठ आइने की तरह साफ था।

हां, यह सीआरपीएफ कैंप इसलिए बनाए जा रहे थे क्योंकि यहां के निर्दोष ग्रामीण खनन के, निरर्थक सडक़ों के निर्माण के, बड़े-बांध जिसकी उन्हें कतई जरूरत न थी क्योंकि उनकी जरूरत छोटे तालाब की थी, निर्माण के खिलाफ आंदोलनरत थे और तब यह कहानी गढ़ दी गई कि ये माओवादियों के उकसावे में ऐसा कर रहे हैं? 

यह एक अजीब विडंबना थी, अपने घर-जमीन पर जीने की मूलभूत इच्छा, तंगहाल जिंदगी नहीं स्वीकारने की इच्छा भी यदि ग्रामीणों ने व्यक्त की तो वह भी व्यस्था की नजर में माओवादी के इशारे पर ही मानी जाती थी। किसी के भी मन में प्रश्न उठ सकते थे, क्या एक आम ग्रामीण में इतनी भी समझ नहीं हो सकती कि वे अपने जीवन के खतरों के प्रति सजग हो सके? 

हां! इस व्यवस्था के संचालक ऐसा ही मानते थे, उनके लिए यह घोर आश्चर्य की चीज थी क्योंकि इस शोषणकारी व्यवस्था का चरित्र है कि वे गरीब का अर्थ निरा मूर्ख से लगाते हैं जिन्हें अपने अच्छे-बूरे का जरा भी ज्ञान न हो, अगर है तो यह शह पर है।

यह भी  सामंती समाज का बचा हुआ अवशेष था, जो आधुनिकता से कोसों दूर गरीब-दलित लोगों के बारे में जिन्हें वे पिछड़ा मानते थे, यही उम्मीद करती कि वे सर झुकाकर अपने सर को कलम करवा ले, वे चुपचाप अपना घर-बार छोडक़र वहां से हट जाए, खानाबदोश की जिंदगी गुजार ले, अपने प्यारे साथी जंगल-पहाड़ों को चुपचाप उजड़ते देखें, अपने वातावरण में मुनाफाखोर फैक्टरियों को पनपने दे और पर्यावरण में जहर घोलते देखें और उफ तक न करें। 

यह सामंती समाज का बचा चरित्र ही था जो यह विश्वास करने को राजी न था कि किताबी शिक्षा, सुविधा से दूर भोले-भाले ग्रामीण अपने हक के लिए लड़ सकते हैं। अपने हक की बात कर सकते हैं, इसलिए इन्होंने माओवादियों के शह की कहानी गढ़ दी और इसलिए उन काल्पनिक माओवादियों के खात्मे के लिए सीआरपीएफ कैंप लगाने की प्लानिंग भी कर दी गई। 

दूर शहर में बैठे अपने दैनिक जीवन की समस्याओं से परेशान लोग इन हक की बातों कर बैठते यदि वे उन गांव में जाकर जमीनी हकीकत जानते, पर वे अखबारों में जो बड़े-बड़े अक्षरों में छपता, उन पर ही यकीन करते थे।

पर इन ग्रामीणों को उनकी सहानुभूति की भी चाह न थी। वे तो बस उस कदम के खिलाफ थे जो उनकी जिंदगी को बूरी तरह तितर-बितर कर रही थी। कोई कल्पना करके उनके दर्द को चाहता तो समझ सकता था  कि अपनी मेहनत की कमाई के एक छोटे हिस्से की लूट भी किसी को कितना सचेत कर देती हैं फिर यह कितना स्वाभाविक था जिन्हें घर-जमीन से बेदखल किया जा रहा हो, जिनकी पूरी जिंदगी को अनिश्चितता के साये में डाल दिया जा रहा हो, वे इस अन्याय के खिलाफ उठ खड़े हो।

पर सच यह भी था कि ये जंगल-पहाड़ों के रक्षक आज पहली बार नहीं उठ खड़े हुए थे। इनका इतिहास प्रतिक्रिया का इतिहास रहा था और ये सदियों से बोल रहे थे, यहां-वहां हर उस जगह जहां इन्हें बड़े बांध के नाम पर, खान के नाम पर, खनन के नाम पर, सडक़ के नाम पर  खदेड़ा जा रहा था। पर इन्होंने जब भी बोला अखबारों में खबरें छपी माओवादियों के शह पर...। 

जिस जगह कैंप खुलने थे आज क्षेत्र के सारे ग्रामीण उसी जगह को घेर कर बैठे हुए थे। खुदाई के लिए जेसीबी आ गयी थी, ईंट-बालू, सीमेंट सभी गिराए जा रहे थे। एक तरफ गर्मी से तपती धरती पर वे ग्रामीण बैठे हुए थे और दूसरी तरफ कैंप बनाने के लिए ढुलाई के काम हो रहे थे। 

जब नींव का समय आ चुका था, तब एक अनाउंसमेंट  हुआ-‘‘जो भी लोग कैंप की जमीन पर बैठे हैं हट जाए! काम शुरू होने वाला है...।’’- यह आवाज इतनी विनम्रता के साथ थी कि जैसे कोई खेल चल रहा हो जहां यूं ही शरारती बच्चे उस जगह पर आ बैठे हो। इस आवाज में उस जिंदगी की गंभीरता का तिरस्कार था, जो उन लोगों के जिंदगी का हिस्सा बनाया जाने वाला था। यह विनम्र निवेदन उतनी ही खतरनाक थी जितनी मगरमच्छ के आंसू, समुद्र की शांति। 

पर उस जमीन से कोई न उठा। विनय, विक्रम के हाथ में मोबाइल था, उसने अपने कैमरे को तैयार कर लिया था। (इतनी जागरूकता कइयों में आ चुकी थी) एक बार फिर चेतावनी दी गई। पर कोई ग्रामीण न उठा। यह निर्णायक घड़ी थी, जब नहीं सुनने के बाद भी व्यवस्था संचालकों को उनकी आवाज सुननी ही थी। 

तभीअचानक ढेर सारे सीआरपीएफ के जवान आ धमके। उनके पीठ पर बंदूकें थी, अपने बंदूक का कुंदा दिखाते हुए उन्होंने लोगों को उठने की धमकी दी। पर कोई भी अपनी जगह से नहीं हिले।

‘‘हम तब तक नहीं हटेंगे जब तक कैंप लगाने का फैसला वापस नहीं ले लिया जाता।’’- विनय ने उठकर कहा। 

दोनों पक्षों के बीच कहा सुनी होने लगी, मामला बिगड़ गया। देखते ही देखते हो-हल्ला मचने लगा। सीआरपीएफ वाले धमकी दे रहे थे, पर जागरूक ग्रामीण भी डटे हुए थे। लाठियां पटकी जाने लगी।

कई सीआरपीएफ वालों ने डंडे बरसाना, ग्रामीणों को पकडऩा शुरू कर दिया। पर ग्रामीण भी हजारों की संख्या में थे, बचाव में उन्होंने भी झाडिय़ों से डंठल उठाए। अबकि सीआरपीएफ वाले उन पर टूट पड़े। आंदोलकारी महिलाएं खुद को बचाने के लिए डंडे पटकने लगी। 

‘‘आंदोलन खत्म नहीं होगा’’- आवाज गूंज रही थी। पर तेज हो-हल्ला में वे आवाजें दब गयी। एक हडक़ंप सी मच गयी, सीआरपीएफ वाले बंदूक के कुंदे से मार रहे थे। किसी का सर फट गया, किसी का हाथ। कुछ लोग भागे... यह खबर सुनकर गांव से और लोग भी भागे दौड़े आ रहे थे...। 

मारो! ...आवाज आ रही थी, विनय ने रिकॉर्डिंग शुरू कर दी। भगदड़ मच गयी। विनय सारी चीजों को रिकोर्ड कर रहा था कि अचानक धांय-धांय की आवाज गूंज उठी। उसका धडक़न जोर से धडक़ उठी।

‘‘गोलीचली!  गोली चली!’’-किसी की आवाज गूंजी।
‘‘भागो! वे लोग गोली चला रहे थे, लोगों पर चला रहे हैं...।’’- एक भयावह दृश्य उभर पड़ा। बंदूकधारी अपने निष्ठुर, अमानवीय आत्मा हाथ में लिए चलाए जा रहे थे। लोग जान बचाकर भाग रहे थे। इधर-उधर, गिरते पड़ते, कोई भागते-भागते जमीन पर गिर पड़ा, तो गिरा ही रह गया, कोई खड़े-खड़े गिर पड़ा, तो फिर न उठा...। 

किसी के सर से खून बहने लगा। किसी के पैर से...। रिकॉडिंग करता विनय गिरता पड़ता झाडिय़ों के पीछे जा छुपा, और एक गोली उसके कान को छूती हुई निकली। उसके मोबाइल में अब भागते पैर रिकॉर्ड हुए थे जो सिर्फ पैर होने के बावजूद बेहद ही भयानक लग रहे थे। एकदम डरावने।  

दोपहर होते-होते कैंप की जमीन खाली हो चुकी थी। दोनों तरफ की भगदड़ शांत हो चुकी थी। गांव वाले घायलों को लेकर हॉस्पिटल दौड़े थे, मृतक के परिजन अपने लाल के शरीर को लेकर घर जा चुके थे और कुछ लोग उस खाली हो चुके जगह में अपने खोए परिजन को ढूंढ़ रहे थे। विक्रम अपने भाई को ढूंढ़ रहा था, विमला अपने पिता को...उनके साथ - साथ गांव के और लोग भी थे। पर किसी ने बताया वे भी मर चुके हैं, उनकी लाशें भी सीआरपीएफ वाले ले गये हैं। 

दूसरे दिन अखबार में खबर छपी थी। माओवादियों ने कैंप पर किया हमला...ग्रामीणों को उकसाया...छ: ग्रामीणों की मौत...तीन माओवादी ढेर...। ये वही तीन लोग थे जिनकी लाशें उनके परिजन नहीं उठा पाये थे, जिन्हें सीआरपीएफ वाले अपने साथ ले गये थे। विक्रम का भाई, विमला के पिता और मंजू का पति...।

बड़े अधिकारी का बयान छपा था- ‘‘मारे गये लोग नक्सली थे...। गांव वालों से जबरन विरोध करवा रहे थे...। उनकी गोली से कुछ ग्रामीण भी मरे और घायल हुए। सर्च ऑपरेशन में भारी मात्रा में विस्फोटक भी बरामद हुआ है और भी सर्च ऑपरेशन जारी हैं...। 

उन पांच लाशों को जो गांव वाले अपने साथ ले जा पाये थे। उन्हें तो ग्रामीण मान लिया गया, और उनकी हत्या का आरोप उन पर मढ़ा गया था जिन्हें सीआरपीएफ वाले अपने साथ लाए थे, जिन्हें सीआरपीएफ वालों ने मारकर बहादूरी व वाहवाही कह कर पीट ठोंक रहे थे।
 
खबर ऐसे छपी थी जैसे कि अपने घर-जमीन, जीवन की अस्त-व्यस्तता, डर, खतरे से ग्रामीणों को कोई मतलब नहीं हो।

शाम तक उस जगह पर पूरी तरह सन्नाटा पसर चुका था। दोपहर तक जहां जेसीबी कुछ जगहों से मिट्टी हटा रहे थे शाम होते होते वह सब वापस लौट चुका था। अब यहां निर्माण कार्य रोकने के लिए कोई ग्रामीण न बैठा था, ग्रामीण के खून से रंगी धरती से अब निर्माण कार्य खुद डर चुका था।

मनगढ़ंत न्यूज तो दूसरे दिन छपकर अखबारों में आई पर विनय का वह वीडियो उसी दिन वायरल हो चुका था जिसमें सारी सच्चाई कैद हो चुकी थी। दिल दहला देना वाला सच...निहत्थे भागते ग्रामीण पर सीआरपीएफ की धांय-धांय चलती गोलियों का सच...।

उस वीडियो ने तहलका मचा दिया था। हर कोई उसे शेयर कर रहा था...हर कोई जमीनी हकीकत देख रहा था...व्यवस्था की नंगी तस्वीर...। 

अब यह कैंप का निर्माण कुछ दिनों के लिए रूक चुका था। मानवता के हितैषी ताकतें उठ खड़ी हुई थी और इस घटना पर सवाल उठा रही थी। अब यह निर्माण तब तक के लिए रूक चुका था, जबतक यह मसला शहरी जगत में शांत न हो जाए।

कुछ दिनों में जब यह मामला ठंडा पडऩे लगा, जेसीबी फिर से ले आई गई। पर अबकि जब वह लाई गयी, वह फिर खड़ी ही थी क्योंकि अब वे चोट भी भर गये थे जो उस दिन ग्रामीणों के दिल में पड़े थे और नये उत्साह और हिम्मत के साथ वे फिर आंदोलन के मैदान में खड़े थे। अबकि एक धोखे से संभलने की तैयारी के साथ, अपनी सुरक्षा के साथ...इस दृढ़ता के साथ कि -‘‘हमें रोजी-रोटी-मकान चाहिए, हमें सीआरपीएफ कैंप नहीं चाहिए।’’


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