वर्मा जी को याद करना अपनी कहानी कहने जैसा है!
अमिता शीरीं16 मई की रात बेचैनी में कटी. एक दिन पहले पता चला कि वर्मा जी को आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया है. 17 मई की सुबह 6 बजे करीब नींद खुलते ही फोन की ओर लपकी. स्क्रीन पर एक दोस्त का मेसेज फ़्लैश कर रहा था 'वर्मा जी नहीं रहे'... मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. फिर तो फ़ेसबुक पर श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ गई. मैं उन्हें देखती जाती और रोती जाती! वर्मा जी को श्रद्धांजलि के रूप में देखना बर्दाश्त नहीं हो रहा था मुझे. आंसूओं का सैलाब कुछ थमा तो ज़िंदगी का सिनेमा फिर से फ्लैशबैक में चलने लगा.

कल किसी का मैसेंजर पर मेसेज आया कि आप वर्मा जी को कैसे जानती हैं. मैंने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया.
'कोई ये बतलाओ के हम उन्हें बतलाएं क्या '...
जीवन फ़्लैश बैक में रील की तरह घूम रहा है. समझ नहीं आ रहा कि कहां से शुरू करें. दरअसल लाल बहादुर वर्मा के बारे में कुछ लिखना अपने बारे में लिखने जैसा है. बिखरे हुए कुछ संस्मरण यहां दे रही हूं कि मैं उन्हें कैसे जानती थी.
16 मई की रात बेचैनी में कटी. एक दिन पहले पता चला कि वर्मा जी को आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया है. 17 मई की सुबह 6 बजे करीब नींद खुलते ही फोन की ओर लपकी. स्क्रीन पर एक दोस्त का मेसेज फ़्लैश कर रहा था ' वर्मा जी नहीं रहे '... मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. फिर तो फ़ेसबुक पर श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ गई. मैं उन्हें देखती जाती और रोती जाती! वर्मा जी को श्रद्धांजलि के रूप में देखना बर्दाश्त नहीं हो रहा था मुझे. आंसूओं का सैलाब कुछ थमा तो ज़िंदगी का सिनेमा फिर से फ्लैशबैक में चलने लगा.
वर्मा जी की बेटी आशु वर्मा मेरी सहपाठी और सहेली है. हम गोरखपुर विश्वविद्यालय में साथ में पढ़ते थे. वर्मा जी उस समय मणिपुर जा चुके थे. एक दिन आशु का फोन आया - लो पापा से बात करो. वर्मा जी गोरखपुर आए हुए थे. वर्मा जी ने कुछ बातें की फिर कहा कि अशु बता रही थी कि तुम गाना अच्छा गाती हो, एक सुनाओ न. फिर मैंने फ़ोन पर ही उन्हें एक ग़ज़ल सुनाई और उधर से वह वाह वाह करते रहे. तो ये था मेरा उनसे पहला परिचय.
एम ए करने के बाद मैं इलाहाबाद शिफ्ट हो गई. एक दिन आशु का एक पोस्टकार्ड आया जिसमें लिखा था 'पापा इलाहाबाद पहुंच गए हैं तुम मिल लेना '. शाम को ही मैं पहुंच गई उनसे मिलने. अल्लापुर में ही अपनी बहन के घर पर रुके थे वह. उस वक्त उनसे क्या क्या बात हुई, याद नहीं, पर इतना याद है कि उस दिन जब घर पहुंची तो जैसे उड़ रही थी. मुझे लग रहा था कि अब मैं जी जाऊंगी. ये बात शायद 91-92 की है.
इसके बाद तो वर्मा जी मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गए
मेरी हर शाम उनके उस जादुई ड्राइंग रूम में बीतने लगी. मैं जैसे किसी सम्मोहन में रोज़ उनके घर पहुंच जाती. उनके उस कमरे में ढेर सारी किताबें, पत्र पत्रिकाएं, कुछ कलाकृतियां और तरह- तरह के रंग रूप के ढेर सारे लोग रहते. बहस मुबाहिसे, गीत संगीत, कविता, कहानियां और ना जाने क्या क्या...मेरी प्यासी आत्मा को एक ठौर मिल गया था जैसे.
फिर मैंने उनके निर्देशन में मौखिक इतिहास में शोध करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में दाखिला ले लिया. मेरा विषय था ' स्वतंत्रता आंदोलन में जन भूमिका का मौखिक इतिहास - 1921-47, विशेष अध्ययन इलाहाबाद '.
इतिहास क्या है, मौखिक इतिहास क्या है, इन सबके बारे में कुछ भी पता नहीं था. लेकिन करने का जज़्बा था और वर्मा जी का साथ था. वर्मा जी कभी भी उंगली पकड़ चलना नहीं सिखाते थे. मुझे याद है मैं उनके साथ हिस्ट्री कांग्रेस में मैसूर गई और लौटते समय दिल्ली रुक गई. कुछ तो नेहरु मेमोरियल म्यूज़ियम लाइब्रेरी में मेटरियल कलेक्शन के लिए तो ज़्यादा अपनी मुक्ति का स्वाद लेने के लिए. उसी समय एक पत्र में वर्मा जी ने मुझे लिखा था :
बहुत ऊंचा है आसमान, उससे भी ऊंचा है उसमें उड़ने का हौसला
मैं सचमुच उड़ने लगी थी. पंखों में तकलीफ़ होती थी अक्सर, उसके बावजूद मैं उड़ रही थी... वर्मा जी ने मुझे उड़ने का हौसला दिया!
चूंकि मेरा शोध का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था, तो मैं सारा दिन अपनी मोपेड पर इलाहाबाद में घूमती रहती और 1947 के पहले के लोगों से साक्षात्कार लिया करती. इस काम ने मुझे बेहद आत्मविश्वास दिया. मेरे इस काम ने मुझे इतिहास की समझ दी कि इतिहास लिखने से ज्यादा ज़रूरी है इतिहास बदलना. जितनी ये समझ मजबूत होती जा रही थी उतनी मेरी रुचि अकादमिक क्षेत्र में कम होती जा रही थी. अंततः वर्मा जी ने लगभग ज़ोर देकर मुझसे थीसिस लिखवाई और सबमिट कराई. इस बीच मेरी राजनीतिक चेतना भी विकसित हो रही थी.
मुझे याद है मेरा पहला जुलूस - निराला के जन्मदिन वसंत पंचमी पर अल्लापुर से दारागंज तक. इसके पहले निराला की कविताओं से गुजरना, पोस्टर तख्तियां बनाना. ज़िंदगी का मज़ा आने लगा था.
मेरे घर में अकादमिक पढ़ने का तो माहौल था, जिससे पढ़लिख कर आईएएस बना जाए पर इंसान बनना तो वर्मा जी ने ही सिखाया. जुलूस में जाना, फुटपाथ पर किताब की दुकान लगाना, धरना प्रदर्शन में हिस्सेदार बनना, घरवालों की कल्पना से परे था. मैं एक सामान्य मिडिल क्लास परिवार से थी जहां पढ़ लिख कर नौकरी करना ही जीवन का उद्देश्य था. वर्मा जी के सान्निध्य ने मेरे लिए वह झरोखा खोल दिया जिससे मैं देश दुनिया को समझ सकती थी, परख सकती थी और उस दिशा में परवाज़ भर सकती थी जहां से मैं अपने फैसले खुद कर सकूं.
इलाहाबाद में मेरा पहला राजनीतिक -साहित्यिक- सांस्कृतिक कार्यक्रम था - ' भागो मत दुनिया को बदलो '. 1993 में. राहुल जन्म शताब्दी पर हुआ था यह कार्यक्रम. बहुत कुछ सीखा इस कार्यक्रम से. फिर तो गोष्ठियों कार्यक्रमों में जाने का सिलसिला ही बन गया.
फिर इतिहासबोध से जुड़े, उसके लिए लिखना, प्रूफ़ पढ़ना, छपाने के लिए जाना. वर्मा जी की चीलगोजा राइटिंग में लिखे को पहले ख़ुद समझना फिर कंपोजर डेविड जी को समझाना....इतिहासबोध के बंडल बांधना आदि...जीवन की ट्रेनिंग चलती रही...साथ ही वर्मा जी से तमाम असहमतियां और बहसें...क्या से क्या बन गई मैं. इन सबमें जो सबसे बेशकीमती बात हुई वह था - मार्क्सवाद से मेरा परिचय. मेरी दुनिया ही बदल दी इस दुनिया को बदलने वाले नजरिए ने.
औरतों की मुक्ति समाज की मुक्ति के बिना संभव नहीं और समाज की मुक्ति औरतों की मुक्ति के बिना संभव नहीं'... ये भी समझ आया
मुख्य रूप से वर्मा जी एक जनवादी आदमी थे. मेरे पिता की उम्र का एक व्यक्ति मुझसे इतनी बराबरी से बात करता है, यह बात मुझे बहुत प्रेरित करती थी. मैं उन्हें हमेशा वर्मा जी ही कहा करती थी. उनसे हाथ मिला कर अभिवादन करना मुझे अर्श पर पहुंचा देता. बाद में तो जनवाद की यह भावना तौरे ज़िन्दगी बन गई.
फिर तो औरत की मुक्ति के कितने सारे पाठ हमने वहां सीखे. महिला संगठन में शामिल हुई. पर्चे बांटे, धरना प्रदर्शन किया, आंदोलन किया. ज़ाहिर है घर में वर्ग संघर्ष छिड़ गया. शुरू में रूआंसा चेहरा लेकर वर्मा जी के पास पहुंच जाती. धीरे -धीरे अपनों से अपनी इस लड़ाई को हल किया और एक रोज़ घर छोड़ दिया. ज़ाहिर है इसके बाद पिता समेत घर वालों से मेरे रिश्ते ज़्यादा सघन और आत्मीय हो गए.
इन सबके बीच एक महत्वपूर्ण बात उस छवि के बारे में, जो कभी भी मेरे ज़ेहन से उतरी ही नहीं. वर्मा जी के घर में हमेशा रहने वाली चहल पहल के बीच एक खामोश सा व्यक्तित्व था रजनीगंधा वर्मा का. मेरी दोस्त, मेरी बहुत करीबी! हमेशा चुप सी रहने वाली बेहद नफ़ीस और ज़हीन मेरी रजनीगंधा आंटी. पहले किसी के भी आने पर उठ जाती, और उतनी ही खामोशी से चाय नाश्ता लाकर रख देती. जब उनके घर में हम लोगों का दख़ल बढ़ा तो यह प्रथा बंद की गई. एक अर्थ में आंटी, वर्मा जी से अधिक मेरी अंतरंग दोस्त थीं. बहुत कम बोलने वाली आंटी उनके ज़िंदगी के कई दुखदर्द घंटों मुझसे शेयर करती. वर्मा जी तो कई बार विभिन्न कारणों से अपना दुख शेयर नहीं करते थे. वर्मा के नहीं रहने पर शायद वही सबसे अकेली हो गई हैं! मैं चाह कर भी उनके पास नहीं हूं.
मुझे लगता है, वर्मा जी को मेरा पूर्णकालिक राजनीतिक होने का फैसला पसंद नहीं था, लेकिन उन्होंने मुझे रोका नहीं. जैसे चिड़िया अपने बच्चों को उड़ना सिखाने के बाद आज़ाद कर देती है ताकि वे अपनी ज़िन्दगी के फैसले से खुद करें. इसी तरह उड़ना सीखने के बाद मैं भी अपने जीवन का फैसला करने के लिए आज़ाद थी. मैंने 2000 में अपने राजनीतिक - सामाजिक कामों को अंजाम देने के लिए इलाहाबाद छोड़ दिया. वर्मा जी की महफ़िलें बदस्तूर जारी रहीं.
बीच- बीच में इलाहाबाद आने पर उनसे मुलाक़ात होती. फिर अंततः उन्होंने इलाहाबाद छोड़ दिया. इस बीच भौतिक दूरी के कारण हमारा मिलना नहीं हो पाता. लेकिन हमारे बीच आत्मीय वह रिश्ता जारी रहा. न मिल पाने के बावजूद वह हमारी और हम उनकी खै़रख़्वाह पूछते- जानते रहते. वर्मा जी व्यक्तिगत रूप से संकीर्णता से नफ़रत करते थे.
एक और खासियत थी वर्मा जी में कि वह कभी भी हार नहीं मानते, एक योजना असफल होती, दूसरी पर काम करने लगते. वह जहां भी रहते उस शहर के बुद्धिजीवी, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कर्मी उनके इर्दगिर्द संगठित हो जाते. एक औरा सा बन जाता उनके चारों ओर. बेइंतहां उत्साही आदमी थे वर्मा जी. कभी निराश नहीं होते. उनकी आंखों की चमक कभी मद्धम नहीं पड़ती थी.
तमाम राजनीतिक मतभेद के बावजूद मेरे प्रति उनकी आत्मीयता कभी कम नहीं हुई
हाल ही में गाज़ीपुर बॉर्डर पर जाने के बाद वह उत्साह से भर गए थे. किसान आंदोलन ने उनमें भारतीय क्रांति के प्रति आस्था जगा दी थी. उनकी आंखों में दुनिया बदलने का ख़्वाब हमेशा ज़िन्दा रहा, मरते दम तक.
वर्मा जी आपसे वादा है मेरा आपके उस ख़्वाब को ताउम्र ज़िन्दा रखूंगी.
जेल से आने के बाद मैंने जब पहली बार फेसबुक पेज बनाया तो पहली पोस्ट उनको ही समर्पित की थी.
उन्हीं पंक्तियों में इस पोस्ट को खत्म कर रही हूं.
मेरे इलाज से थक जाने वाले चारागर
अब तू मुझे देखेगा तो अपने हुनर पर नाज़ करेगा...
कोरोना ने यह देखना हमेशा के लिए मुल्तवी कर दिया...
वर्मा जी हम सभी लोग आपको बेहद प्यार करते हैं...
करते रहेंगे...
आप हममें ज़िन्दा रहोगे हरदम...
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