आत्मकथा को कोरी - अहम कथा बनाकर लिखने से बेहतर है न लिखना 

अपूर्व गर्ग

 

हिंदी में आत्मा कथाएँ फिर भी काफी हैं पर डायरी का प्रचलन कम है.

मुझे श्रेष्ठ डायरी मोहन राकेश और दिनकरजी की लगी.

कमलेश्वर ने मोहन राकेश की डायरी के आमुख में लिखा है 'डायरियाँ एक लेखक का अपना कब्रिस्तान होती हैं... जिस लेखक ने अपने कब्रिस्तान को नहीं जिया है वह अधूरा ही रहा है. '

दिनकरजी ने आत्मकथा नहीं लिखी डायरी लिखी और कहा था 'आदमी अपने सही रूप को उस तरह आँक नहीं सकता जिस तरह कोई तटस्थ व्यक्ति आंक सकता है.

दिनकर जी ने अपनी डायरी में ये भी लिखा 'मुझे लगता है, मैंने अगर आत्मकथा लिखी, तो वह भी आत्म प्रशंसा से भरी होगी. आत्मकथा में ये रोग स्वाभाविक है . अवगुण दो - एक इसलिए दिखाए जाते हैं कि वर्णन पर शंका न रहे. '

बच्चनजी की भी आत्म कथा पर टिप्पणी कर उन्होंने लिखा है कि 'आत्मकथा में आदमी अपनी प्रशंसा को रोक नहीं सकता यही इस विधा का दोष है. '

कमलेश्वर जी ने संडे मेल में संस्मरण लिखने शुरू किये थे जिन पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी बाद में उन्होंने-

इन सब को समेत कर तीन भागों में अपनी आत्मकथा लिखी. कमलेश्वरजी ने जो जिया वो अपनी आत्मकथा में खुल कर निर्भीक तरीके से लिखा.

रविंद्र कालिया की  'ग़ालिब छुटी शराब' की तरह सबसे दिलचस्प आत्मकथा उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की है  'यादों की बरात '.

जोश ने अपनी आत्मकथा लिखने पर कहा है '' अपना हाल सुनाकर मैं भी हिचकियाँ ले लेकर रो रहा हूँ... हाय माज़ी [अतीत ] के डंक!!

अपने कभी के रंग महल में जो हम गए

आंसू टपक पड़े दरों- दीवार देखकर! ''

राजेंद्र यादव ने अपनी आत्मकथा! 'मुड़-मुड़ कर देखते हुए ' को आत्मकथ्यांश कहा. उन्होंने लिखा  'आत्मा कथा वे लिखते हैं जो स्मृति के सहारे गुज़रे हुए को तरतीब दे सकते हैं. लम्बे समय तक अतीत में बने रहना उन्हें अच्छा लगता है.'

मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा  'एक कहानी ये भी' के लिए साफ़ साफ़ कहा है 'ये मेरी आत्मकथा कतई नहीं है... कहानी की तरह ज़िंदगी का एक अंश है. '

पद्मा सचदेव ने अपनी आत्मकथा  'बूँद बावड़ी ' के लिए कहा  'दुनिया की कहानी ही मेरी कहानी है. '

पांडेय बेचन शर्मा  'उग्र' ने खुल कर और बेबाकी के साथ 'अपनी खबर' दुनिया को दी है.

अमृता प्रीतम की आत्म कथा  'रसीदी टिकट' तथा  'अक्षरों के साए' सबसे ख़ूबसूरती से लिखी गयी हैं. अमृता जी अपने जीवन की परतें और व्यक्तिगत जीवन को बहुत कलात्मक सुंदरता और साहस के साथ दुनिया के सामने रखा.

इस्मत चुगताई की आत्मकथा ‘कागज़ी है पैरहन’ बोल्ड और साफ़गोई से बहुत दिलचस्प अंदाज़ में लिखी गयी है. उन्होंने लिखा है ''लिखते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रही हूँ और वो सुन रहे हैं. मेरे कुछ हमखयाल हैं, कुछ मोतरिज़ हैं, कुछ मुस्कुरा रहे हैं, कुछ गुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूँ तो यही अहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूँ.”

बच्चनजी की आत्मकथा 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' से 'दशद्वार से सोपान तक' का सफर सर्वाधिक चर्चित रहीं. चार खंडों की तीन तीन सौ पृष्ठों में है. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बच्चन की आत्मकथा के बारे में कहा था कि 'बच्चनजी की आत्मकथा में केवल व्यक्तित्व और परिवार ही नहीं, समूचा देशकाल और क्षेत्र भी गहरे रंगों में उतरा है.'  डॉ॰ धर्मवीर भारती ने इसे हिन्दी के हज़ार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया जब अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कह दिया है.

अमृत लाल नागर ने 'टुकड़े- टुकड़े दास्तान' में बिना किसी आत्मश्लाघा के बहुत सरल शब्दों में अपने जीवन के बारे में लिखा है .नागरजी ने लिखा है 'टुकड़े - टुकड़े दास्तान' में भी मैंने खुद को झूठ और बनावट से दूर रखने की हरचंद कोशिश की है... आत्मकथा को कोरी - अहम कथा बनाकर लिखने से बेहतर है न लिखना...

भीष्म साहनी की आत्मकथा- ‘आज के अतीत’, 'अपनी बात ' सिर्फ आत्मकथा ही नहीं देश के विभाजन, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा का एक अहम दस्तावेज है. बंटवारे से लेकर 'तमस ' तक का उन्होंने जिस तरह सांप्रदायिक घटनाओं वर्णन किया, उसका जवाब नहीं. रूस में उन्होंने जो दिन गुज़ारे या अफ्रो - एशियाई लेखक संघ की यात्राओं का वर्णन ऐतिहासिक है. ट्यूनीसिया में यासर आराफात भीष्म साहनी से कहते हैं -''गांधीजी आपके ही नहीं , हमारे भी नेता हैं .उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए.''

परसाईजी ने तो अपनी आत्म कथा  ''हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं '' में सीधे -सीधे पाठकों से कह दिया है- '' मैं न सैडिस्ट, न मेसाफिस्ट, न तपस्वी, न एबनॉर्मल, न कलंकभूषण, न अटपटा, न सनकी, न उचक्का - तो मेरी आत्म कथा या संस्मरण मैं धरा क्या है? ख़ाक! उबाऊ चीज़ ही होगी - सो पाठक भोगें! ''


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