कोरोना काल में धर्म और ईश्वर 

आर्थिक तंगी और कोरोना जैसे जानलेवा बीमारियों के बीच धर्म और विज्ञान की तर्कसंगत व्याख्या कर रहे हैं जाने माने चिकित्सक डॉ. क्रांतिभूषण बंसोड़े

 डॉ. क्रांतिभूषण बंसोड़े

 

वास्तविक मूल्य से अधिक की राशि मुनाफा कहलाती है जो दुकानदार के पास होती  है। मुनाफ़ा कमाने के सामान्य तौर से किये जाने वाले व्यापार के अलावा भी अनेक तरीके होते हैं इसलिये कई बार युद्ध काल या अन्य संकट में वस्तुओं की झूठी क्राइसिस पैदा करके मुनाफाखोरी की जाती है। यह अर्थशास्त्र के सामान्य नियमों के अंतर्गत आता है।

अब हम देखते हैं कि धार्मिक क्रियाकलापों को किस तरह व्यापार की श्रेणी में रखा जा सकता है। वस्तुओं का व्यापार उनकी आवश्यकता , अर्थात मांग, उत्पादन एवं पूर्ती के आधार पर होता है। वस्तुएँ अथवा सुविधाएँ मनुष्य की भौतिक आवश्यकता होती है किन्तु धार्मिकता जिसमे समस्त धर्म कर्म एवम ईश्वर की अवधारणा इत्यादि की आवश्यकता मेरे हिसाब से किसी भी व्यक्ति की भौतिक आवश्यकता नहीं है। वह केवल भावनात्मक, परम्परागत, रूढ़िवादी आवश्यकता है। यह मनुष्य की भावनाओं का दोहन या उसकी संतुष्टि मात्र के लिए है।

लोग रोजमर्रा के जीवन में धर्म अथवा इश्वर के आलंबन के बगैर नहीं रह सकते इसलिए अपनी पैदाईशी धार्मिक पहचान को बनाए रखने के विभिन्न कार्यों में अमूमन बड़े उत्साह से लगे रहते हैं। इस तरह के क्रियाकलाप उनके मनोरंजन का भी एक साधन है जिसमे उत्सव, धार्मिक आयोजन, प्रवचन, तक़रीर आदि का समावेश है। इतना ही नहीं संकट काल में उन्हें उनकी धार्मिकता के हिसाब से अपनाए गये ईश्वर की विशेष आवश्यकता भी महसूस होती है। जैसे क्रिश्चियन्स को ईसामसीह की, मुस्लिम को अल्लाह की , हिंदुओ को उनके तैतीस करोड़ देवी देवता में से कोई एक या अनेक की।

यहाँ हम समस्त धर्मों को लेकर उनके अनुयायियों के भीतर अनेक विरोधाभास देख सकते हैं जैसे कोई मुस्लिम हिन्दू देवी देवता की पूजा नही करता, क्योंकि उसको यकीन है कि वह सब कोरी कल्पना है। वैसे ही क्रिश्चयन को ईसामसीह के अलावा सब फिजूल लगते हैं। हिंदुओं के पास तो देवी देवताओं और भगवानों का एक विशाल संसार है।

किसी को दुर्गा, किसी को गणेश, किसी को काली इत्यादि अलग अलग देवता पसंद है। उन्हें विश्वास है कि उनके वही देवता उनकी जरूरत पूरी कर सकते हैं। लेकिन वह गिरजाघर के ईसा मसीह को या मस्जिद में अल्लाह को याद नहीं करेगा। इसी तरह देवताओं के अलावा और भी उनके पीर, संत, बाबा आदि हैं जिन्हें वे देवताओं के सामान ही सम्मान देते हैं और उनसे अपेक्षा रखते हैं। मज़े की बात यह है जो अपने धर्म के लिए आस्तिक है वह अन्य धर्म के लिए नास्तिक है।

अब हम देखते हैं कि इस कोरोना काल के संकट में अलग अलग धर्म और उनके ईश्वर की क्या स्थिति हुई है। हम वास्तविकता से मुंह नहीं मोड़ सकते  सच्चाई यह है कि इस कोरोना नामक महामारी ने ईश्वर से लोगों को अलग कर दिया है और इस संकट ने लोगों को यह समझाने का प्रयत्न किया है कि जीवन में जरूरी पूजा पाठ ज़रूरी नहीं है बल्कि जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता अस्पताल, चिकित्सक, दवाएँ और आवश्यक संसाधन हैं।

यहाँ जब व्यवस्था की बात आती है तो सबसे पहला प्रश्न इस संकट काल में अस्पतालों द्वारा की जा रही लूट को लेकर होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मनुष्य के जीवन उसके स्वास्थ्य से जुड़ी इन महत्वपूर्ण संस्थाओं का नैतिक पतन तो हुआ है और संकट काल में भी मनुष्य से उसके दुःख स्वप्न की अधिक कीमत वसूलने का सिलसिला प्रारम्भ हुआ है। यद्यपि हम सभी इस बात से सहमत हैं इसलिए ऐसी संस्थाओं को निस्वार्थ मानव सेवाओं की सूची से खारिज करने की भी जरूरत है।

अब प्रश्न यह है कि यदि ऐसी संस्थाएं हैं तो उन्हें किस तरह ख़ारिज किया जाए? क्या उससे हमारा नुकसान नहीं होगा? हम जानते हैं कि हमने ही इन संस्थाओं को बनाया है। परोक्ष रूप से इनके निर्माण के लिए हम ही ज़िम्मेदार हैं इसलिए यदि वे असफल हैं या उनमें गड़बड़ी है तो उसको सुधारने की जिम्मेदारी भी हम सबकी है।

परिवर्तन की बात पर सबसे पहले हमें राजनैतिक संस्थाओं की याद आती है। इस जनतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत हम बार बार अलग अलग राजनैतिक पार्टियों को चुनकर उन्हें देश की व्यवस्था सुचारू रूप से चलने के लिए सत्ता सौपते हैं। हमारी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के फलस्वरूप हम राजनैतिक दल पार्टी  को बदलते हैं और परिवर्तित संस्था से अपेक्षा करते हैं कि वह आगे चलकर एक अच्छी व्यवस्था बनायेगी, जो पुरानी व्यवस्था से कहीं बेहतर होगी।

लेकिन हम सारी सतर्कता के बावजूद अक्सर गच्चा खा जाते हैं। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि वे गड़बड़ करते हैं तो क्या उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिये? और परिवर्तन का यह काम क्या हमें ही अर्थात एक आम नागरिक को करना चाहिए? 

मेरे अनुसार इस प्रश्न का उत्तर हां है। जो भी संस्था गड़बड़ करती है अर्थात अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में जनता को मूलभूत आवश्यक सुविधाएँ यथा बेहतर स्वास्थ्य शिक्षा आदि नि:शुल्क प्रदान करने में चूक करती है उसको बदलकर नई संस्था या व्यवस्था भी हमें ही बनानी होगी। यह हमारी महती जिम्मेदारी है। गलत कहीं भी हो उसका उन्मूलन जरूरी है। हमें अपने आपको खुद को तथा अपने परिवेश को हर स्तर पर निरन्तर स्वच्छ रखना हमारी प्राथमिक आवश्यकता होनी ही चाहिये। इसमें कोई किन्तु परन्तु की जगह भी नहीं होनी चाहिये।

इसे हम धर्म और अन्धविश्वास के सन्दर्भ में देखते हैं। मुख्य बात यह है कि हमें आस्था, विश्वास और अंधविश्वास के बीच फर्क को हर हाल में समझना ही होगा। जो लोग कहते हैं कि वे साइंस बैकग्राउंड से हैं उनके लिए तो यह और भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। जैसे राजनीति के क्षेत्र में आपको गड़बड़ियों को सुधारने की स्वतंत्रता और अधिकार है उसी तरह धर्म के क्षेत्र में भी आप चुपचाप आंख बंद करके गड़बड़ियों को स्वीकार नहीं सकते हैं।

यदि आप उन्हें  सुधारने की बात नहीं करते हैं या उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं तो आपका दृष्टिकोण संकुचित और अवैज्ञानिक है। विज्ञान सम्मत बातों का हमें हर हाल में सटीक तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचकर उसका समर्थन करना ही होता है। किसी को बुरा लगेगा यह जानकर चुप रहना न केवल अवैज्ञानिकता है बल्कि कायरता भी है।

आप कह सकते हैं कि हम धर्म के विषय में अधिक नहीं जानते हैं इसलिये चुप रहना चाहते हैं। निस्संदेह यह आपकी निजी स्वतंत्रता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अब इस दुनिया में अनेक लोग धर्म और धार्मिक अंधविश्वास से आगे निकलकर वैज्ञानिक विचारधारा से लैस हो चुके हैं हैं।

वे प्रत्येक धर्म का समुचित अध्ययन करते हैं तथा फिर तार्किक आधार पर धर्म या धार्मिकता की खुलकर धज्जियाँ उड़ाते हैं और अवैज्ञानिक आस्थाओं का मज़ाक भी बनाते हैं। अभी भी विदेश में वर्तमान समय के संकट में भारतीय लोगों के द्वारा कोरोना से मुक्ति के उपाय जैसे गोबर स्नान, गोमूत्र पान आदि करने वालों का मजाक ही बनता है।

आप को स्वतंत्रता है कि विदेशों में आपकी क्या छवि है इससे आँख मूंदे रहिये। आप अपने घर में बैठे रहिये और बिलकुल मत जानिये कि आपके देश को दुनिया में अभी भी सिर्फ सँपेरों और मदारियों का देश समझा जाता है। कूपमण्डूक क्या है? इससे किसी को फर्क भी नहीं पड़ता। इतना जरूर होगा कि मूर्खों की गिनती में हम सब भारतीय चाहे उनमे पढ़े लिखे प्रगतिशील, विचारवान तथा वैज्ञानिक सोच के नागरिक क्यों न हों सब एक समान समझे जायेंगे।

अतः परिवर्तन ही एकमात्र चारा है। संभव है इसके लिए आप को बुरा भला कहा जाए। आधुनिक या संस्कृति व धर्म से विमुख होने का भी आरोप लगाया जाए लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। इतिहास में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। नास्तिकता की प्रगतिशील परिभाषा देते हुए भगतसिंग ने भी अपने प्रसिद्ध लेख में कहा था कि- ‘मैं नास्तिक हूँ। लेकिन उन्हें भी लोगों ने आत्मविस्मृत और अभिमानी ही कहा था। अतः परिवर्तन की इच्छा रखने वालों और तदनुसार कार्य करने वालों पर यह कोई नया आरोप नहीं है।

लेखक पेशे से चिकित्सक हैं


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