पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव : उमाकांत - बादल के बीच बहस
बादल सरोज/उमाकांतमाकपा के मध्य प्रदेश के वरिष्ठ नेता और अखिल भारत किसान सभा के संयुक्त सचिव कामरेड बादल सरोज ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक लेख लिखा है जिसकी शुरुआत उन्होंने वहां हो रही हिंसा घटनाओं, खासकर संयुक्त मोर्चा, जिसमें माकपा नीत वाम मोर्चा, कांग्रेस और चुनाव के ऐन पहले फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी द्वारा गठित आईएसएफ (इंडियन सेकुलर फोरम) शामिल हैं, के कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों का जिक्र करते हुए किया है। निश्चित ही, बंगाल में चुनाव के बाद हिंसा, मारपीट, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं चिंतित करने वाली और निंदनीय हैं। इसकी केवल निंदा ही नहीं, बल्कि विरोध व प्रतिऱोध भी किया जाना चाहिए। यह हिंसा केवल संयुक्त मोर्चा के कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ ही नहीं, बल्कि उनके साथ भी हो रही है जिन्होंने चुनाव के दौरान "ऩ वोट टू बीजेपी" (भाजपा को एक वोट भी नहीं) नारे के साथ अभियान चलाया था। और जिसका चुनाव परिणाम पर भारी असर भी देखने में आया है। 'द कोरस' दोनों राजनेताओं के पत्रों को प्रकाशित कर रहा है। आप भी अपनी प्रतिक्रियाएँ कामेंट बॉक्स में भेजे-संपादक

दीदी की निर्ममता और बंगाल को गुजरात बनाने का आव्हान
बादल सरोज
ममता के पुनराभिषेक की शुरुआत जमालपुर की वामपंथी महिला नेत्री काकोली खेत्रपाल (52 वर्ष) की बलि के साथ हुयी। महिला सशक्तीकरण की स्वयंभू बड़ी अम्मा ममता की टीएमसी के शूरवीरों ने इस अकेली महिला को मारकर जश्न मनाया।
काकोली पूर्वी बर्दवान के नबग्राम में सीपीएम की पोलिंग एजेंट थी। (उनकी मृत देह की फोटो किसी को भी विचलित कर सकती है।) वे यहीं तक नहीं रुके। उत्तर चौबीस परगना जिले के देगंगा में उन्होंने इंडियन सेक्युलर फ्रंट के हसनुज्जमा को मार डाला।
डायमंड हार्बर से संयुक्त मोर्चा - सीपीएम के उम्मीदवार और एसएफआई के प्रदेशाध्यक्ष प्रतीक उर-रहमान के घर और चुनाव कार्यालय पर ममता की पार्टी के गुंडों ने हमला बोल दिया।
यहां 100 अन्य घरों को भी निशाना बनाया गया - अनेक दुकाने भी लूट ली गयीं। दुकाने किनकी लूटी गयीं? - यह जानना उन भले मानुषों के लिए अत्यंत आवश्यक है, जो ममता को धर्मनिरपेक्षता की जॉन ऑफ़ आर्क मानते हैं।
जादवपुर में सीपीएम और संयुक्त मोर्चे के समर्थकों पर शुरू हुए हमलों की अगुआई वहां से जीता टीएमसी विधायक देबब्रत मजुमदार कर रहा है। यह देबब्रत चुनाव में टीएमसी की टिकिट मिलने से पहले तक इस इलाके में आरएसएस का मुख्य संगठनकर्ता था।
उत्तर दिनाजपुर में तो टीएमसी के सूरमा सीपीएम दफ्तरों पर जेसीबी लेकर पहुंचे और हमला बोल दिया। केन्या खमरपारा में 10 घर तोड़कर 51 लोगों को बेघर कर दिया। कोरोना पीड़ितों के लिए ऑक्सीजन, बैड और जरूरी दवाओं के इंतजाम में जुटे रेड वालंटियर्स को भी टीएमसी के गुंडों ने अपने हमले का निशाना बनाया।
ये कुछ घटनायें हैं। ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनका ब्यौरा माकपा के दैनिक अखबार 'गणशक्ति' की साइट पर जाकर देखा जा सकता है। जब मुख्य लड़ाई ममता-मोदी, भाजपा-टीएमसी के बीच थी, तो फिर हमले का निशाना लेफ्ट और सीपीएम ही क्यों है ?
कहते हैं कि लेफ्ट तो इस चुनाव में खत्म ही हो गया। संयुक्त मोर्चा और वाम गठबंधन शायद की कहीं मुख्य मुकाबले में रहा हो, फिर लेफ्ट पर हमला क्यों? यह सवाल ममता से नहीं है, क्योंकि उनके बारे में वाम को कभी कोई गलतफहमी नहीं थी। संयुक्त मोर्चा और वामपंथ ने हमेशा ही कहा कि बंगाल में भाजपा को लाने और बिठाने वाली यही ममता बनर्जी हैं।
इनके बूते धर्मनिरपेक्षता की रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि नमक से नमक नहीं खाया जा सकता। वामपंथ की निश्चित राय है कि बर्बर हिंसा और टीएमसी की गुंडावाहिनी की अगुआ के भरोसे बंगाल में लोकतंत्र की बहाली नहीं हो सकती, क्योंकि लोमड़ी की अगुआई वाले भेड़ियों के दल को बच्चों और शिशुओं की हिफाजत का जिम्मा नहीं सौंपा जा सकता।
यह भूलना बहुत महँगा पडेगा कि ममता बनर्जी जैसी तानाशाह व्यक्तियों की अगुआई वाली पार्टियां क्षेत्रीय शासकवर्गों की आकांक्षाओं और राज चलाने की इच्छाओं की प्रतिनिधि नहीं होतीं। इनमें लोकतंत्र एक विजातीय चीज होती है। तानाशाही इनके डीएनए में होती है। उस पर कहीं अगुआई किसी मनोरोगी के हाथ में हो, तो जनतंत्र का कबाड़ा ही मानिये।
इस तानाशाही को पिछली 10 वर्षों में बंगाल ने भुगता है और पूरे देश ने देखा है। ममता और भाजपा में एक ही अंतर है और वह तनिक-सा मात्रात्मक अंतर यह है कि वे एक प्रदेश में वह सब कर रही हैं, जो भाजपा पूरे देश में करना चाहती है।
तीन साल पहले मार्च 2018 का पहला पखवाड़ा याद कीजिये, जब त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव परिणामो के बाद इसी भाजपा ने एक हत्यारी मुहिम छेड़ी थी और सीपीएम तथा मेहनतकश जनता के संगठनो के नेताओं, कार्यकर्ताओ को निशाना बनाया था। उनके दफ्तरों को दखल कर लिया था। आज भी तानाशाही का कहर त्रिपुरा में रुका नहीं है।
बाकी राज्यों में भी, जहां-जहां भाजपा जीती, वहां-वहां थोड़ी बहुत कम तीव्रता के साथ यही हुआ। आज ठीक वही काम ममता और उनकी टीएमसी के गुंडे बंगाल में कर रहे हैं। इसलिए भाजपा के शहीद बनने के पाखण्ड का कोई अर्थ नहीं है। निस्संदेह फासीवादी बढ़त के खिलाफ व्यापकतम संभव एकता चाहिए, मगर हिटलर के खिलाफ मुसोलिनी और गोयबल्स और हिमलर और तोजो को जिताकर फासीवाद नहीं रोका जा सकता।
चुनावी तौर पर इतने कमजोर दिखने के बाद भी यदि हमले का निशाना सीपीएम-वाम-और संयुक्त मोर्चा है, तो इसलिए क्योंकि ममता और उनके सरपरस्त शासक वर्ग को पता है कि सिर्फ यही ताकत है, जो उनकी और उनके जैसों की राजनीतिक कब्र का शिलालेख लिख सकती है।
बंगाल के जनादेश को समझने की जरूरत है। सदियों की परवरिश में सुसंस्कृत हुयी बंगाल की स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष जनता ने ममता को नहीं जिताया, भाजपा को हराया है। भाजपा इतनी बढ़ी भी है, तो ममता की मेहरबानी से! इसलिए जो झाँझ-मंजीरे बजा रहे हैं, उन्हें अपना यह बाल सुलभ कौतुक बंद करके और बंगाल की इस हिंसा के खिलाफ आवाज उठानी ही होगी।
इन चुनाव नतीजों की साम्प्रदायिक व्याख्या कर अब भाजपा और आरएसएस जितनी धूर्तता के साथ बंगाल को साम्प्रदायिक टकरावों की ओर धकेल रहे हैं, वह हाल के समय की सबसे गंभीर आशंका है। यह बंगाल की कई हजार वर्ष पुरानी मेलमिलाप और सद्भाव की जड़ों में एसिड डालने की तैयारी है। संघी आईटी सैल ने जहरीले अभियान के जरिये बंगाल की जनता पर विष-वर्षा शुरू कर दी है। मोदी और आरएसएस की जहरीली ब्रिगेड की कंगना राणावत की ट्वीट को इस महिला का निजी प्रलाप मानना गलत होगा।
उनके द्वारा मोदी "जी" से सुपर गुण्डई दिखाने और 2002 के गुजरात नरसंहार की तरह अपना "विराट रूप" दिखाने का आव्हान अकेली कंगना का युध्दघोष नहीं है। भेड़िये निकल चुके हैं पश्चिम बंगाल को गुजरात बनाने। यह बंगाल के मेहनतकशों और भद्रलोक दोनों की परीक्षा की घड़ी है। चुनाव हो गया - उसमे जो होना था, हो गया। अब उन्हें बंगाल की हिफाजत के लिए एकजुट होना होगा।
यह लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पहरुओं की परीक्षा का समय है। इस वक़्त में कौन कहाँ है, यह देखना बहुत जरूरी होगा। एक कोई महुआ मोइत्रा जी हैं, सुनते हैं लोकतंत्र और सेक्युलरिज़्म पर बढ़ा धांसूं बोलती हैं!! कहाँ हैं इन दिनों?
काकोली खेत्रपाल के लिए मुंह कब खोलेंगी? लोकतंत्र के इस टीएमसी उत्सव पर कुछ बोलेंगी? एक कोई आत्ममुग्ध वाम है, जिन्हे इस जनादेश में लोकतंत्र की बहाली की ढेर उम्मीदें नजर आ रही हैं, वे इन हमलों और हत्याओं पर चुप क्यों हैं?
साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई कारपोरेट के खिलाफ लड़े बिना न लड़ी जा सकती है, न जीती जा सकती है। इटली के कम्युनिस्ट नेता तोगलियाती ने कहा था कि जो पूँजीवाद को नहीं जानते, वे फासीवाद की किस्मों के बारे में भी कुछ नहीं समझ सकते।
वाम और सीपीएम दोनों - कारपोरेटी पूँजी और सांप्रदायिकता के विविध रूपों - के मेल की तासीर समझती है और उनसे लड़ना भी जानती है। इसलिए आख़िरी बात "अब का हुइये" पूछने वाले शुभचिंतक और सलाहकारों के लिए ; और वह यह कि जनता को साथ लेकर इस हिंसा का मुकाबला दिया जाएगा। असली 'खेला' तो अब शुरू हुआ है।
लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
बादल फटकर बरसे, मगर अफसोस, उगाए केवल खरपतवार
उमाकांत
माकपा के मध्य प्रदेश के वरिष्ठ नेता और अखिल भारत किसान सभा के संयुक्त सचिव कामरेड बादल सरोज ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक लेख लिखा है जिसकी शुरुआत उन्होंने वहां हो रही हिंसा घटनाओं, खासकर संयुक्त मोर्चा, जिसमें माकपा नीत वाम मोर्चा, कांग्रेस और चुनाव के ऐन पहले फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी द्वारा गठित आईएसएफ (इंडियन सेकुलर फोरम) शामिल हैं, के कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों का जिक्र करते हुए किया है।
निश्चित ही, बंगाल में चुनाव के बाद हिंसा, मारपीट, आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं चिंतित करने वाली और निंदनीय हैं। इसकी केवल निंदा ही नहीं, बल्कि विरोध व प्रतिऱोध भी किया जाना चाहिए। यह हिंसा केवल संयुक्त मोर्चा के कार्यकर्ताओं व समर्थकों के साथ ही नहीं, बल्कि उनके साथ भी हो रही है जिन्होंने चुनाव के दौरान "ऩ वोट टू बीजेपी" (भाजपा को एक वोट भी नहीं) नारे के साथ अभियान चलाया था और जिसका चुनाव परिणाम पर भारी असर भी देखने में आया है, जिसे सकारात्मक या नकारात्मक रूप में सभी स्वीकार करते हैं।
इस विधानसभा चुनाव में फासीवादी भाजपा की बंगाल में सरकार बनाने और इस बूते पूरे देश में फासीवादी मुहिम तेज करने के मंसूबे को फौरी तौर पर धक्का लगा है और जनवाद पसंद लोगों को सांस लेने का थोड़ा मौका मिला है, ऐसी घटनाओं से वह हाथ से निकल जाएगा और भाजपा को अपनी जमीन मजबूत करने का मौका मिलेगा। अतः तृणमूल कांग्रेस सरकार को इस हिंसा पर रोक लगाना चाहिए और राज्य की जनवादी ताकतों को इसकी मांग करनी चाहिए और वे अपनी आवाज उठा भी रहे हैं।
बहरहाल, यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि बंगाल में ऐसी हिंसा पहली बार हो रही है या केवल बंगाल में होती है। साथ ही, चुनाव प्रचार के दौरान बंगाल में भाजपा नेताओं और वहां प्रचार करने गए आदित्यनाथ जैसे नेताओं के बयानों को नहीं भूलना चाहिए, जो कह रहे थे कि दो मई के बाद और भी सितलकुची होगा (जहां मतदान के दौरान केन्द्रीय बलों के द्वारा गोली चलाने से पांच लोगों की मौत हो गई थी), घर से निकाल कर मारेंगे, आदि।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अभी उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव के बाद हुई हिंसा में करीब दस लोग मरे हैं। त्रिपुरा में पिछले विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा के पच्चीस साल के शासन को हटाकर भाजपा के सत्ता में आने पर भाजपा ने किस प्रकार की हिंसा की थी, यह भी सबको पता है। तब भी जनवादी ताकतों ने इसका विरोध किया था।
यह तो एक बात हुई। मगर कामरेड बादल सरोज यहां से जिस राजनीतिक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, मुख्य बात उस पर होनी चाहिए। बात इस पर होनी चाहिए कि पश्चिम बंगाल के इतिहास में ऐसी स्थिति पहली बार क्योंकर आई कि 'वाम' दलों का एक भी प्रतिनिधित्व नहीं है। 2011 में विधानसभा चुनाव क्यों हारे और तब से वाम मोर्चा का जनाधार सिमटते हुए आज 4-5 प्रतिशत पर क्यों पहुंच गया है, जबकि भाजपा 4-5 प्रतिशत से बढ़ते हुए 40 प्रतिशत के करीब कैसे पहुंच गई है?
इस पर विचार करने के बजाय तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को एक दिखाने के लिए वे कहते हैं कि जादवपुर में हिंसा की अगुवाई तृणमूल के टिकट से जीते विधायक देवब्रत मजुमदार कर रहे थे जो इस इलाके में आरएसएस के मुख्य संगठक थे। फिर तो वे उन विधायकों के बारे में क्या कहेंगे जो माकपा से भाजपा में गए हैं?
तब सवाल यह है कि क्या बंगाल चुनाव परिणाम वामपंथ (लेफ्ट) के पराभव की सूचना है? परन्तु इससे पहले सवाल यह है कि वाम है क्या? वाम वह है जो दक्षिणपंथ और चरम दक्षिणपंथ के खिलाफ है, जो प्रतिक्रियावाद और इसके सबसे घोर प्रतिक्रियावादी रूप, फासीवाद के खिलाफ है, वामपंथ वह है जो व्यापक मेहनतकश जनता को संगठित कर उनके शोषण - उत्पीड़न के खिलाफ लड़ता है, जो आम जनता की मूलभूत समस्याओं को लेकर लड़ता है, जो देसी-विदेशी कारपोरेट घरानों और उनकी हितपोषक नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष करता है, जो सत्ता में आने के लिए दक्षिणपंथ के साथ समझौता नहीं करता और कहीं सत्ता में आने पर विभिन्न बहाने से नव-उदारवादी नीतियों को लागू नहीं करता, कुल मिलाकर, जो एक नए समाज का सपना देखता है।
इस अर्थ में वाम मोर्चा की हार-जीत से परे समाज में वामपंथ था, है और रहेगा। और एक अर्थ में बंगाल में भाजपा की हार के पीछे, जो अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ, तमाम अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर, अपार धन बल के साथ बंगाल फतह करने के लिए जंग में उतरी थी, जनता के बीच वामपंथी विचार का बड़ा योगदान रहा है।
वामपंथी संगठन या दल इस विचार के वाहक और मूर्त रूप देने के साधन होते हैं। ऐसे में "वाम मोर्चा" लगातार नीचे जा रहा है तो यह सोचने काम उसका है कि इसमें शामिल दल वामपंथी विचारों के कितने वाहक रह गए हैं?
इस संदर्भ में बादल बाबू क्या यह बताएंगे कि नव-उदारवादी नीतियों का 'कोई विकल्प नहीं है' (There Is No Alternative, या टीना), यह किसका दिया नारा था? बंगाल में तेभागा संघर्ष और इसके बाद हुए किसान आंदोलन और आपरेशन बर्गा जैसे कार्यक्रम के तहत भूमिहीन किसानों को बंटाई का अधिकार देने, आदि से किसानों के बीच जो व्यापक आधार बना था, वह बड़े कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए सिंगूर और नंदीग्राम में जबरन भूमि अधिग्रहण के कारण खिसक गया तो इसमें दोष किसका है?
अटल बिहारी वाजपेई के शासन काल में वैट के लिए गठित कमेटी में पश्चिम बंगाल के तात्कालिक वित्तमंत्री क्या कर रहे थे? क्या केरल सरकार के वित्तमंत्री ने जीएसटी जैसी नव-उदारवादी नीतियों का समर्थन नहीं किया था? क्या केरल में वाम जनवादी मोर्चा सरकार नव-उदारवादी नीतियों से अलग कुछ लागू कर रही है?
जहां तक बंगाल में भाजपा को लाने में तृणमूल कांग्रेस की भूमिका का संबंध है, यह तो जगजाहिर है कि ममता बनर्जी उस सरकार में शामिल थीं जिसका नेतृत्व वाजपेई कर रहे थे।
तृणमूल कांग्रेस कोई जनपक्षीय, वामपंथी दल तो है नहीं जो नव-उदारवादी नीतियों, साम्प्रदायिक शक्तियों और फासीवाद से समझौताहीन संघर्ष करेगी। यह काम तो वामपंथ के सच्चे झण्डाबरदारों का है। इस संदर्भ में माकपा की क्या भूमिका रही है? क्या यह सही नहीं है कि एक समय विश्वनाथ प्रताप सिंह को केन्द्र में रखकर एक तरफ वाम मोर्चा खड़ा था तो दूसरी तरफ भाजपा, जिस चुनाव में भाजपा की सीट 2 से बढ़कर 89 हो गई थी। और बादल बाबू 2011 में बंगाल विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा की पराजय के पश्चात 2015 में हुए दार्जिलिंग जिला परिषद व पंचायत उपचुनाव में प्रयोग में लाए गए "दार्जिलिंग माडल" के बारे में अवश्य जानते होंगे, जो तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस और भाजपा के साथ कभी प्रत्यक्ष, कभी परोक्ष तालमेल की शुरुआत थी।
इसका नेतृत्व सिलिगुड़ी के विधायक अशोक भट्टाचार्य कर रहे थे और प्रचार का मूल वक्तव्य था हर सीट पर तृणमूल को हराने के लिए सबसे मजबूत प्रत्याशी को वोट दो। इसी क्रम में, 2019 में "एखोन राम, पोरे वाम" की बात सभी ने सुनी है। जहां वाम ताकतवर है वहां वाम को, जहां कांग्रेस ताकतवर है वहां कांग्रेस को और जहां भाजपा ताकतवर है वहां भाजपा को। और इस बार के चुनाव में पीरजादा अब्बास सिद्दीकी द्वारा नवगठित इंडियन सेकुलर फोरम जैसे दल के साथ गठजोड़ करने से क्या भाजपा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास को मदद नहीं मिली?
बादल बाबू के लेख के साथ समस्या यह है कि वे माकपा के अवसरवादी, विलोपवादी अवस्थानों की निर्मोह होकर आत्म आलोचना करने के बजाय, विभिन्न पार्टियों के चरित्र का बेतुका, बेमतलब का, अपने अवसरवाद को सही ठहराने के लिए मनमाना विश्लेषण पेश करते हैं। उन्हे पहले तो यह बताना चाहिए कि भारत में फासीवाद का खतरा है या नहीं। इसका स्रोत कौन है, कौन सी पार्टी इसका प्रतिनिधित्व करती है। वे भाजपा से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक, सबको एक ही तराजू में तौलने लगते हैं।
बादल बाबू लिखते हैं कि ममता और भाजपा में एक ही अंतर है और वज्ञ तनिक-सा मात्रात्मक अंतर रह है कि वे एक प्रदेश में वह सब कर रही हैं, जो भाजपा पूरे देश में करना चाहती है। वे आगे कहते हैं कि "निस्संदेह फासीवादी बढ़त के खिलाफ व्यापकतम संभव एकता चाहिए, मगर हिटलर के खिलाफ मुसोलिनी और गोयबलस और हिमलर और तोजो को जिताकर फासीवाद नहीं रोका जा सकता।" ओह, भारत तेरी रह दुर्दशा देखी न जाए! कितना भयावह है यह। एक ही देश में हिटलर से लेकर मुसोलिनी और तोजो तक, दुनिया के सभी फासिस्ट एक साथ! जाने क्या होगा।
बादल बाबू की मार्क्सवादी! समझ का क्या कहना, जो यह अंतर नहीं कर पाते कि भाजपा कारपोरेट फासीवाद का प्रतिनिधित्व करती है तो तृणमूल कांग्रेस एक निरंकुशता का। दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब, मगर ऐसे बेहूदा, अवसरवादी विश्लेषण से न तो निरंकुशता का विरोध किया जा सकता है, न फासीवादी शक्ति को भी शिकस्त दी जा सकती है।
अंत में अपनी कुछ बातें। पश्चिम बंगाल चुनाव में जनता में खुशी का मुख्य पक्ष तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत नहीं, भाजपा की करारी हार है. वहां के मतदाताओं की नजर ममता की छवि पर कम संघ परिवार के खूंखार चेहरे पर ज्यादा केंद्रित रही थी. इसलिए इस पहलू पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया कि ममता राज के दस सालों में क्या हुआ और क्या होना चाहिए था. वह इस बात पर केंद्रित रहा कि मोदी राज के सात साल (खासकर अंतिम दो साल) में क्या हुआ! मसलन सीएए, एनआरसी, महामारी की मार, किसान व मजदूर विरोधी कानून आदि आदि।
यहां भी बंगाल की जनता और माकपा की सोच में अंतर था। जनता एक कदम आगे बढ़कर भाजपा को हराना चाहती थी, और माकपा दो कदम पीछे हट कर तृणमूल को सत्ता से बेदखल करना चाहती थी। इस तरह जनता की सोच से तीन कदम पीछे की सोच का परास्त होना स्वाभाविक ही था।
अंत में, भाकपा (माले) रेड स्टार, पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी का विधान सभा चुनाव परिणाम पर बयान का कुछ अंश, जो सच्चे वामपंथी ताकतों के लिए कुछ संकेत देता है।
"अट्ठारहवीं विधानसभा चुनाव का जो परिणाम आया है उसने फासीवाद के रथ के पहिए को थोड़ा-सा रोक दिया है। किन्तु तृणमूल कांग्रेस की इस जीत से फासीवाद को जोर का धक्का लगा है, यह कहना ठीक नहीं है। तृणमूल कांग्रेस को विपुल संख्या में सीट मिलने पर भी, भाजपा एकमात्र संसदीय विपक्षी पार्टी के रूप में सामने आई है।
सम्पूर्ण राज्य दक्षिणपंथियों के बीच बंट गया है। यहां तक कि संयुक्त मोर्चा के जिस एकमात्र प्रत्याशी की जीत हुई है, वे भी अल्पसंख्यक समुदाय के धर्मगुरु के रूप में विजयी हुए हैं। धार्मिक भावना ने ही एकमात्र मानदंड के रूप में काम किया है।
"इस स्थिति के लिए वाम मोर्चा, विशेष रूप से माकपा की विलोपवादी राजनीति, निश्चित रूप से, दोषी है, किन्तु कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों को यह बात दिमाग में रखनी होगी कि इस विलोपवादी राजनीति को परास्त कर, सर्वहारा और मेहनतकश जनता के एक बड़े हिस्से के बीच क्रांतिकारी राजनीति को स्थापित नहीं कर पाने से, केवल दोष देने से काम नहीं चलेगा।
क्योंकि इस सूत्र को पकड़ कर ही फासीवाद को पांव पसारने की जगह मिलती है। सत्तारूढ़ सरकार की जनविरोधी भूमिका को दिखाकर उसे और मजबूती से अपना पैर जमाने का मौका मिलता है।
"हम जानते हैं कि अभी मजदूर वर्ग फासीवादी शक्ति को चुनाव में चुनौती देने की स्थिति में नहीं आ पाया है, इसका अगुवा दस्ता भी तैयार नहीं है। इसलिए इस मुहुर्त में , 'भाजपा को वोट नहीं' तात्कालिक चुनावी नारा हो सकता था। इस नारे और इसके प्रचार का जनता के पर अच्छा प्रभाव पड़ा है।
किन्तु दंभ से चूर माकपा ने इस नारे का फायदा उठाने के बजाय, खुद को इसके विरोध में खड़ा कर लिया और भाजपा विरोधी जनता की नजरों में अपनी छवि को मलिन कर लिया।
अल्पसंख्यक कट्टरपंथी शक्ति और बड़े पूंजीपति वर्ग की बराबर की प्रतिनिधि कांग्रेस के साथ साथ मिलाकर और अनावश्यक, अप्रासंगिक रूप से नवान्न (बंगाल विधानसभा) पर कब्जा करने का प्रयास करने से जनता यह सोचने के लिए बाध्य हो गई कि तृणमूल कांग्रेस ही भाजपा के खिलाफ एकमात्र कार्यकारी शक्ति है। परिणाम यह हुआ कि विधानसभा में लाल झण्डा पकड़ने वाला कोई नहीं रह गया।"
एक बात और, बंगाल में भाजपा की हार पर जनवादी ताकतों ने संतोष भले व्यक्त किया है, मगर वे फासीवादी खतरे के प्रति बेपरवाह, लापरवाह बिल्कुल भी नही हैं। साथ ही, वे बंगाल में जारी हिंसा और तृणमूल कांग्रेस की निरंकुशता पर जरा भी मौन नहीं हैं। यहां भाकपा माले रेड स्टार के कामरेड शंकर दास का यह बात मार्के की है।
"हम फासीवादी भाजपा को रोकना चाहते थे और हमने इसके लिए काम किया और सफल रहे। इस घटना के फलस्वरूप तृणमूल जीती है। यदि। हमारी अपनी शक्ति इस जगह पर होती तो हम जीतते। .... तृणमूल यह सब अच्छी तरह से जानती है। तृणमूल हमला कर रही है क्योंकि वह अपने राजनैतिक स्वार्थ को समझती है। वह इस स्थिति को बनाए रखना चाहती है। इसलिए वह अपने आधिपत्य में निरंकुशता चलाना चाहती है।
"दूसरी तरफ हम इस अवस्था को बदलना चाहते हैं। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में शक्ति संतुलन को बदलना चाहते हैं। समस्त। हमलों को जमीनी स्तर पर रोकने कुछ क्षमता चाहते हैं। सच्चे अर्थों में जो कम्यूनिस्ट हैं, जो बुर्जुआ वर्ग के समान ही अपने राजनैतिक स्वार्थ के प्रति सचेत हैं, उन्हें एकजुट होना हु होगा। विरोधी शक्ति का आधार खड़ा करना होगा। भाजपा को रोक कर हमने जो थोड़ा समय हासिल किया है, उसका सदुपयोग करना होगा।" यह बयान अपने आप में स्पष्ट है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बादल बाबू ने लेख में जो विश्लेषण पेश किया है, वह आगे नहीं, और पीछे ले जाने वाला है। बादल बरसे तो सही, मगर पैदा हुई केवल खरपतवार। कहीं बादलों के पीछे संघनित जल ही दूषित तो नहीं।
लेखक सीपीआई एमएल रेडस्टार पोलित ब्यूरो मेम्बर हैं।
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