फांसी सजा नहीं संविधानिक हत्या
उत्तम कुमारफांसी की सजा अमानवीय है। यह खून का बदला खून को दर्शाता है। आप कितने लोगों को फांसी दोगे। जनता का विरोध व आक्रोश के माध्यम से ज्यूडिशियल के कार्य को प्रभावित नहीं करना चाहिए। सभी को जिंदा रहने का अधिकार है।

सभ्य समाज में हैवानियत की सजा मौत कतई नहीं हो सकती है यह इतिहास ने साबित कर दिखाया है और लोकतांत्रिक देश में तो बिल्कुल भी नहीं लेकिन सजा से कोई इंकार नहीं करता है। यदि ऐसा होता है तो दुर्भाग्य है कि यह लोकतंत्र का सबसे घृणित चेहरा है। जब अधिकांश देश में मौत की सजा पर रोक लगा दिया गया है तब फांसी की सजा संविधानिक हत्या ही मानी जा सकती है।
हाल ही में शशि वारियर की पुस्तक जल्लाद की डायरी प्रकाशित हुई हैं। जिसमें एक ऐसे जल्लाद की कहानी है, जो अपनी आजीविका फांसी के लिए रस्सी खींचकर जल्लाद की भूमिका से करता है। इस पुस्तक में केंद्रीय पात्र जनार्दन पिल्लै त्रावणकोर के एक पेशेवर जल्लाद है।
एक जल्लाद के रूप में काम करते हुए वह अपने बच्चों को तो भूख से बचा लेता है, लेकिन खुद जीवन हत्या के बोझ को अपने ऊपर लेकर जीता है। हर फांसी के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से होकर गुजरता है।
उपन्यास में मृत्युदंड या फांसी की सजा को सभी एक पाप की तरह मानते हैं और सभी उससे मुक्त भी होना चाहते है, राजा जब फांसी की सजा का आदेश देता है तो स्वयं को पाप से मुक्त करने की एक तरकीब अपनाता है। फांसी की सजा का आदेश सूर्योदय से पहले चार बजे दिया जाता है।
जबकि राजा सूर्योदय के बाद संदेशवाहक से फांसी रोकने का आदेश भिजवाता है। तब तक फांसी हो चुकी होती है। इस प्रकार राजा को लगता है, कि उसने तो माफी का आदेश भेज दिया था लेकिन अधीक्षक ने फांसी दे दी। अधीक्षक भी अपने ऊपर दोष नहीं लेता और अंतत: यह जल्लाद के ऊपर ही आता है। जब फांसी संपन्न हो जाती है, तो अधीक्षक, संदेशवाहक, राजा और पूरा राजतंत्र इस हत्या के पाप से अपना पिंड छुड़ाने का अभिनय करते है।
अकेला जल्लाद ही अपने खून से सने हुए हाथ और अपनी अंतरात्मा पर हत्या का बोझ लेकर घर लौटता है। इस तरह आज फांसी सियासी कत्ल बनता जा रहा है। पहले यह ज्यूडिशियल मर्डर बनता है, क्योंकि उनको अपनी सफाई पेश करने का पर्याप्त मौका नहीं दिया जाता है। सियासी इसलिए क्योंकि यह राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर दिया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में माना है, कि पिछले दिनों कम से कम 14 मामले ऐसे रहे जिनमें फांसी की गलत सजा सुनाई गई। देश के 14 महत्वपूर्ण न्यायाधीशों ने इसीलिए बकायदा पत्र लिखकर राष्ट्रपति से अपील की कि इन फैसलों को उम्रकैद में बदला जाएगा।
विश्व के 140 देशों ने मानवीय पहुलूओं को ध्यान में रखकर फांसी पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसकी वजह यह भी है, कि 2014 के चुनाव आने से पहले सरकार महंगाई, भ्रष्टाचार व गैरबराबरी का मुकाबला करने अपनी नाकामी की तरफ से जनता का ध्यान खींचना चाहता है? इन्हें फांसी देने से बलात्कार की शिकार लडक़ी पुनर्जीवित नहीं होने वाली है।
मृत्यु अंतत: सब कुछ खत्म कर देती है, लेकिन राजनीतिक मातम की भी दुकान लगा लेती है। ऐसे सभी मामलों में जो हादसे के शिकार होते है, उनके दिमाग में प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरा जाता है, इस प्रतिशोध में दिखने वाली अमानवीयता न्याय के मुलम्मे से ढका जाता है। उनके जख्मों को हरा रखा जाता है ताकि उनका राजनीतिक इस्तेमाल हो सके। सभी फांसी के सजाओं में देखा गया है, कि उनको बोलने का मौका तक नहीं दिया गया।
एक अपराध को रोकने प्रतिशोध में एक और संविधानिक अपराध कर दिया गया। सजा के स्वरूप से स्पष्ट है, कि खून का बदला खून लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक संकेत है। पूरी दुनिया ने साबित कर दिया है, कि सजा के बतौर फांसी सभ्य मानवजाति के लिए सबसे कू्ररतम सजाओं में से एक है। इससे हमारा लोकतंत्र तानाशाही की ओर संक्रमण करेगा। जो औपनिवेशिक व कबिलाई देशों के सजाओं के तौर-तरीकों से मिलता जुलता है।
न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने में हम तालिबानियों व नक्सलियों द्वारा दिए जा रहे सजाओं के समानांतर ऐसे घृणित सजा को अमल में ला रहे है। परिणाम हम भुगत चुके है। इतिहास में हमने देखा है, कि हमारे क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई। उन्हें पेड़ों में लटकाकर मौत के घाट उतार दिया गया। किसान नेता भूमैया और किस्ता गौड़ को आपातकाल के दौरान फांसी दे दी गई। अपराधियों को सजा देने से पहले उनके जीवन जीने के अधिकार का हनन करने का हमारा कोई अधिकार नहीं है। उन्हें सुधरने का मौका भी मिलना चाहिए। ऐसे क्रूर अपराधों पर दंड देने के लिए आजीवन सजा को हम कारगर क्यों नहीं समझते यह भी एक सवाल है। बर्बर सजाओं को अमल में लाकर हम अपनी सभ्यता को बट्टा लगा रहे है। यह निश्चित तौर पर बर्बर सभ्यता की ओर हमें पीछे ढकेलती है।
कोई भी व्यक्ति कोर्ट के आदेश पर ऊंगली उठाने का साहस नहीं करता है। लेकिन जब कोर्ट जनआक्रोश व प्रतिशोध को भुनाने के लिए तत्काल फांसी जैसे सजाओं को दंड के रूप में इस्तेमाल करती है, तो कोर्ट पर संदेह लाजमी हो जाती है। कोर्ट का यह स्वभाव नैसर्गिक न्याय के मानवीय पहुलूओं को रौंदती है। कई सालों पहले पश्चिम बंगाल में धनंजय को ऐसे ही आरोप में फांसी दे दी गई थी। सवाल उठता है, कि क्या इससे फांसी रूक गई? हमें समाज में मौजूद बलात्कार व अपराधों के कारणों की तलाश करनी होगी। बलात्कार की वजह के रूप में जो ये जुमले उछाले जा रहे हैं ये भी स्त्री पर उनके शरीर पर और उसके वजूद पर हमला ही है औरत पर हिंसा को पूरी व्यवस्था जायज ठहराती है इसलिए मर्दों को ये लगता है, कि उन्हें बलात्कार करने का लाइसेंस मिला हुआ है।
पुलिस और सशस्त्र बलों द्वारा किए जा रहे बलात्कारों को बलात्कार माना ही नहीं जाता है, उन्हें व्यवहारिक छूट मिली हुई है। यह बलात्कार के लिए माहौल बनाती है। घर और परंपराओं की जकडऩों से बाहर निकल रही औरतों को पितृसत्ता अपने शिंकजे में कसने को मुस्तैद है। व्यवस्था भी बलात्कार को जायज ठहरा रही है, इसलिए बलात्कार हो रहे है, बल्कि एक पूरी बलात्कार की संस्कृति खड़ी हो गई है। परंपराओं से लेकर नाच-गानों, गलियों-बाजार सब में औरत पर ङ्क्षहसा को जायज बनाया जा रहा है और हर जगह औरत को संपत्ति, भोग और मजे की वस्तु के तौर पर परोसा जा रहा है। तमाम बलात्कारियों के बयान कमोवेश इसी लाइन पर रहते हैं कि उन्होंने शराब पी और उन्हें मजे के लिए जिस्म चाहिए था। इस तरह बर्बर मजे की यह अवधारणा धर्म-वर्ग-जाति आदि के बोध में जकड़ते जा रही है। समाज में लिंगानुपात पर गौर करना जरूरी है। धीरे-धीरे पितृसत्ता ने लड़कियों के जन्म को नाजायज करार दे दिया है। लड़कियों की संख्याओं में कमी आ रही है। सही समय पर विवाह नहीं होने से भी ऐसे घटनाओं को बढ़ावा मिल रहा है। लडक़ी का उम्र 18 व लडक़े का उम्र 21 पर देश में शायद ही किसी युगल जोड़ी का विवाह होता हो। जाति, धर्म व सामाजिक बंधनों ने भी बलात्कार के घटनाओं को जन्म देने में आग में घी का काम किया है।
जहां तक सजा देने का सवाल है, तो 1984 की सिख विरोधी हिंसा में 3 हजार लोगों को मार दिया गया था। 2002 में गुजरात में 2 हजार मुस्लिमों को मौत के घाट उतार दिया गया। वहां महिलाओं के साथ अनगिनत बलात्कार के घटनाएं हुई। उनके कोख को चीरा गया व भू्रण को आग में झोंक दिया गया। 2004 में मणिपुर में मनोरमा के बलात्कार व हत्या के बाद भारतीय सेना के विरोध में महिलाओं ने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। 2006 में महाराष्ट्र के खैरलांजी में दलित महिला सुरेखा और उसकी बेटी प्रियंका के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। मणिपुर से लेकर कश्मीर तक जहां भी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून लागू है वहां बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों के द्वारा बलात्कार के घटनाओं को अंजाम दिया गया है। उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में कोनक और पोशपोरा गांव की 100 महिलाओं को भारतीय सेना के जवानों ने सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया।
छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम अभियान के दौरान आदिवासी महिलाओं को मारा, काटा व कई दिनों तक शरणार्थी शिविरों में रखकर लगातार बलात्कार किया गया। डौंडी लोहारा क्षेत्र के आमाडुला आश्रम में छात्रावास में आदिवासी बच्चियों के साथ कई वर्षों से यौन शोषण किया गया। और यह सब अधीक्षिका की देखरेख में संभव हुआ। इस आरोपी को सरकार ने राज्योत्सव में पुरस्कार देकर नवाजा था। कांकेर के झलियामारी में आदिवासी बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया गया। बच्चियां पेट से होकर मर गई। पखांजूर में आदिवासी महिला के साथ उनके रिश्तेदारों ने जबरन बलात्कार किया। नक्सली सहयोग का दंश झेल रही सोनी सोरी के ऊपर न्यायिक हिरासत के दौरान उनके गुप्तांगों में बिजली के झटके दिए गए और जब इससे भी कुछ हासिल नहीं हो सका तो उसके गुप्तांग में पत्थर घुसेड़ दिया गया।
दिल्ली के निर्भया घटना हाईप्रोफाईल बन जाती है, लेकिन छत्तीसगढ़ सहित देशभर में आदिवासियों व दलितों के साथ हो रहे अपराधों में किसी का खून नहीं खौलता है। शर्म की बात यह भी है, कि शासनकर्ता नुमाइंदे ऐसे घटनाओं पर सडक़ पर आकर फांसी की मांग करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते है। यह निश्चित तौर पर लोकतंत्र में न्यायपालिका के लिए सबसे घिनौना व शर्मनाक समय है। इन सब के बाद भी सवाल यह उठता है कि अपराधियों को फांसी की सजा देकर निजात पा ले। लगातार बलात्कार व हत्या जैसी घटनाएं बढ़ क्यों रही है। आज सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है, कि लोगों के बीच इस विषय पर गहराई के साथ बहस व चर्चाएं नहीं हो रही है। चर्चाओं में सजा के मानवीय पहलूओं पर भी ध्यान देना जरूरी है।
फांसी की सजा अमानवीय है। यह खून का बदला खून को दर्शाता है। आप कितने लोगों को फांसी दोगे। जनता का विरोध व आक्रोश के माध्यम से ज्यूडिशियल के कार्य को प्रभावित नहीं करना चाहिए। सभी को जिंदा रहने का अधिकार है।
आदिवासी महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार पर छत्तीसगढ़ में सुनवाई तक नहीं हो रही है। फिलहाल देश में फांसी को लेकर सकारात्मक बहस शुरू हो गई है। उम्मीद है फांसी जैसे दंड के तरीकों पर पूरा देश बहस करेगी व सही रास्ता ढूंढ निकालेगी। बहस व तर्क के बाद इस जघन्य सजा पर शीघ्र ही रोक लगेगी। इस तरह हम सही मायने में नैसर्गिक व सच्चे न्यायिक व्यवस्था के अंदर सांस ले सकेंगे।
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