मेरा बस्तर में एक निशान और मिट गया

आशुतोष भारद्वाज

 

दीपक कर्मा ने अपने पिता महेंद्र कर्मा का नम्बर अपने फ़ोन में 'बिग बॉस' के नाम से सेव किया था। पिता की मृत्यु के बाद वह नम्बर माँ के पास आ गया, लेकिन दीपक के फ़ोन में नाम वही रहा।

जब भी माँ फ़ोन करतीं, दीपक की स्क्रीन पर चमकता -- बिग बॉस कॉलिंग। दीपक चौंक जाते, कई बार उनके मुंह से निकलता -- 'हाँ, पापा।'

वह शायद दो हज़ार पंद्रह की कोई रात थी। महेंद्र कर्मा को गए दो साल हो चुके थे। दीपक कर्मा रायपुर में थे। उस रात हम दोनों को जगदलपुर के लिए निकलना था।

क़रीब दस बजे चलना था लेकिन दीपक बारह के भी बाद आए थे, मेरे घर के सामने तेज ब्रेक लगाते हुए स्कॉर्पीओ रोक दी थी।

हम दोनों ने गाड़ी बदल कर चलायी थी, घनघोर रात में एक सौ चालीस-डेढ़ सौ की रफ़्तार से गाड़ी दौड़ाते दीपक को मेरा सौ क़रीब का एक्सिलरेटर बड़ा मरियल लगता था।

दो हज़ार तेरह के नवम्बर में भी मैं उनकी स्कॉर्पीओ में था। लेकिन इस बार छह एके-47 लिए पुलिसवाले हमारी गाड़ी में थे, दो गाड़ियाँ हमारे आगे पीछे थीं। हम दंतेवाड़ा से फरसपाल जा रहे थे।

नक्सल हमले के मद्देनज़र दीपक को Z plus सुरक्षा मिली हुई थी। उनके रूट की जानकारी पहले एसपी को दी जाती थी, पुलिस पूरी सड़क पर सुरक्षा देती थी।

अचानक दीपक ड्राइवर को आगे मुड़ने का निर्देश देते हैं। उनका पीएसओ घबराकर मुड़ता है — सर? दीपक नहीं मानते, मुड़ जाओ।

यह कच्ची सड़क है। यह कार्यक्रम में नहीं है। नक्सली हमले इन्हीं अनजाने रास्तों पर होते हैं। लेकिन दीपक अड़े हुए हैं, अपने दोस्त को अपने बचपन का कोई बगीचा दिखाना चाहते हैं।

पीएसओ पसीना पोंछता है, बाक़ी दोनों गाड़ियों को पीछे आने का संकेत देता है।

अपने लड़कपन से बन्दूकों और राइफ़लों के साथ जीता आया दीपक कर्मा आज एक वायरस से हार गया।

अपने परिवार का शायद सबसे सयाना सदस्य, कर्मा परिवार का एकमात्र सदस्य जिसने मुझसे कई बार कहा कि सलवा जुड़ुम ठीक रास्ते पर नहीं गया, जिसने स्वीकारा कि महेंद्र कर्मा को भाजपा की मदद नहीं लेनी चाहिए थी, उस युवक को कोरोना ने मिटा दिया।

मेरा बस्तर में एक निशान और मिट गया। बस्तर की यात्रा का एक साथी और चला गया।


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