पार्टियों ने चुनाव ही नहीं देश, दुनिया और भरोसा भी हारा है

विप्लव साहू

 

किसी लोकतांत्रिक देश में जिस ताकत के साथ जनता राजनीतिक दल अथवा व्यकितयों के समूह को सत्ता सौंपती है तो उन्हें आशा रहती है कि जीवन को बेहतर बनाने वाली सुविधाओं के साथ-साथ जब भी मुश्किल या आपदा आएगी तो सरकार हमारे साथ संवेदनशीलता और सक्रियता से समस्याओं को हल करेगी.

लेकिन यहीं पर भारतीय जनता मात खा जाती है, वह भूल जाती है कि राजनीतिक दल जब येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने और विजयी ध्वज फहराने को ही अपना अंतिम मकसद बना ले, जनता और उसके हित कहीं दिखाई देना बन्द हो जाता है, वर्तमान परिदृश्य में बिल्कुल यही हो रहा है.

जिनके जिम्मे संक्रमण रोकना है, हर दल के नेताओं ने सुपर स्प्रेडर का काम किया है, पश्चिम बंगाल, केरल, आसाम, तमिलनाडु में मिल रहे नए केसेस और भीड़ भरी रैलियां में सारे संसार ने इसे देखा है. निर्लज्जता की इंतेहा यह है कि सत्ता में बैठे लोगों और उनके समर्थकों ने वायरस का मजाक उड़ाते हुए किसी भी प्रोटोकॉल का पालन नही किया.

मद्रास हाईकोर्ट की चुनाव आयोग पर टिप्पणी कि आपने हत्यारे जैसा काम किया है, सटीक है और यही आरोप और केस तो चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों पर भी चलना चाहिए. 

जनता को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है 

1 साल पहले जब सिर्फ 300 केस थे देश संसार का सबसे बड़ा और कड़ा 60 दिनों का लॉकडाउन किया था, और आज जब प्रतिदिन 4 लाख से ऊपर केस आ रहे हैं, तो सारी व्यवस्था को कलेक्टर के भरोसे छोड़ दिया गया. यह अदूरदर्शिता की पराकाष्ठा है.

पिछले साल भी और इस साल भी जब सत्ता ने लॉकडाउन किया था, लाखों लोग बिना आसरे और सहारे के पांव-पांव ही रोते-बिलखते-मरते अपने घर पहुंचे थे उसमें कितनी मौतें हुई, सरकार के आप आंकड़ा तक नही. देने के नाम पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भीखनुमा राशन और कभी पूरे न होने वाले खोखले वायदे रहते हैं. 

कीमती एक साल में तैयारी कुछ भी नहीं  

मार्च 2020 के बाद से जब कोरोना की शुरुआत हुई, इससे लड़ने के लिए हमे भरपूर मौका मिला था लेकिन हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे. एक साल में देश मे हमने मात्र 19461 वेंटिलेटर, 8648 ICU बेड और 94880 ऑक्सीजन सपोर्टेड बेड बनवा पाए, उल्टे 9 राज्यों की अस्पतालों की क्षमता घट गई. इनको दुरुस्त करने की जिम्मेदारी किसकी थी? यह भारी चूक है इसका खामियाजा ऐतिहासिक रहेगा.

पढ़े-लिखे और बौद्धिक लोगों का नेतृत्व नहीं  

इस जरूरी चीज का अभाव तो भारत आजादी के बाद से ही झेल रहा है. जीवन संघर्ष और श्रम मात्र को आधार बनाकर देश का कुशल संचालन असम्भव है. नेतृत्वकर्ता को उच्च शिक्षित, दूरदर्शी, गहरी समझ, सटीक निर्णय क्षमता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, साथ ही जनता की जरूरत और कठिनाइयों की बारीक समझ जरूरी होना चाहिए. और हमारे देश में इसका अभाव लगभग हमेशा रहा है.

जिसका खामियाजा भोले और मासूम देशवासियों को आजादी के 70 सालों बाद भी भुगतना पड़ रहा है. भारत के साथ ही आजाद हुए मुल्क कड़े अनुशासन, शिक्षा और तकनीक के दम पर आज विकसित देशों की श्रेणी में पहुंच गए हैं और हम आज भी दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी का तमगा अपने गले में लगाए हुए हैं.

स्वास्थ्य, महामारी विशेषज्ञों की सलाह नहीं 

किसी भी दौर में जब महामारी और स्वास्थ्य गत समस्या आती है तो उस क्षेत्र के अनुभवी विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाती है ताकि महामारी नियंत्रण और बचाव में सरलता हो, लेकिन हमारे यहां ऐसा रिवाज नही है.

न ही हम उनको उनकी योग्यता के आधार पर सम्मान दे पाते हैं और न योग्य जगह. और उनके अधिकार के फैसले अयोग्य और ताकतवर लोग लेते है और त्रासदी का जन्म होता है. फिलहाल अमरीकी  सरकार की महामारी विशेषज्ञ डॉ अन्थोनी फ़ौची की कुछ सलाह समझने योग्य है.

दुश्मन भी हम पर तरस खा रहे हैं

इससे बुरे दिन और क्या आएंगे. 3 दशकों से दुनिया के किसी भी देश से मदद न लेने का हमारा खुद का संकल्प टूट गया. कितने भूकंप जैसी आपदा भी हमने खुद झेल लिया था,  केरल आपदा में यूएई सरकार की 700 करोड़ की मदद हमने ठुकराई थी. और आज, सदा से हमारे लिए परेशानी खड़े करने वाले चीन और पाकिस्तान तक ने हमें राहत सहायता का ऑफर दिया है और चीन से हमे लेना भी पड़ रहा है.

कोरोना ने इस मुल्क को घुटनों पे ला दिया है. जिस बांग्लादेश को हम लाखों बकरों के खून से राजधानी ढाका की सड़कों पर बहाने के लिए गरियाते है, वहां से भी मदद लेना पड़ा है.

मजाक और तमाशा बना आत्मनिर्भर का नारा 

भ्रष्टाचार मुक्त, अच्छे दिन आने वाले हैं, मेरा देश बदल रहा है, आत्मनिर्भर भारत जैसे कथनों के आसरे सत्ता में आने के 7 साल भी देश का आगे जाना तो दूर उल्टे देश दशकों और पीछे चला गया. भावनाओं और नारों से चलने वाला हमारा समाज और देश अभी कुछ सालों में वापसी कर पायेगा ? मात्र मनोबल बढ़ाने के लिए, ऐसी उम्मीद की जा सकती है.

निजीकरण बन सकता है अभिशाप 

कोरोना वायरस के कारण जब सरकारी स्वास्थ्य मशीनरी चरमरा कर बैठ गई, निजी अस्पतालों ने बड़ी बेरहमी से आम और खास, जनता को बेड, दवाई और सुविधा के नाम पर लाखों रुपये लुटा जा रहा है. इन अव्यवस्था पर नियंत्रण नाम की कोई चीज नही रही, रेमडिसिवीर और फेरिपेरिवीर जैसी दवाइयों की कालाबाजारी खुलेआम हो रही है. ऑक्सीजन तक के लिए देश में त्राहि-त्राहि मची हुई है.

ऐसे में वैक्सीन के लिए सरकार द्वारा उत्पादन न करके निजी कंपनी को अरबों रुपये एडवांस में देना और उसके मालिक का लन्दन में रहकर धमकाये जाने का बयान देना विचित्र लगता है. यह जानना दिलचस्प होगा कि कौन ऐसा बंदा होगा?

जो जेड प्लस सुरक्षा प्राप्त और वैक्सीन जैसी अतिमहत्वपूर्ण चीज के बनाने वाले को धमकी देगा! जब सरकारी होने के बाद भी किसी चीज पर सरकार का नियंत्रण नही तो निजीकरण के बाद उस पर कैसे नियंत्रण करेगी ? समझ से परे है !फिलहाल सामुहिक रूप से खुद को धिक्कारते हुए देश पर तरस खाने और अच्छे दिन के इंतजार अलावा और कोई विकल्प नही.

लेखक छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिला पंचायत  में सहकारिता और उद्योग में  सभापति हैं


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