बंगाल के चुनावी नतीजों पर
प्रेमकुमार मणिबंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सुश्री ममता बनर्जी को राज्यपाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने केलिए आमंत्रित कर दिया है. वह तीसरी दफा बंगाल की मुख्यमंत्री बन रही हैं.

जब 2 मई को रुझान आने शुरू हुए और तृणमूल कांग्रेस का ग्राफ भाजपा से ऊपर उठने लगा तब कोरोना से गंभीर रूप से कराहते हुए भी इस मुल्क के आमलोगों ने खुश होने का थोड़ा वक़्त निकाल लिया था. चुनाव तो चार और प्रांतों में हुए थे और वहाँ के नतीजे भी आ रहे थे, लेकिन लोगों का ध्यान बंगाल पर अधिक केंद्रित था.
इसका कारण प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी थी, जिन्होंने अपनी पूरी ताकत बंगाल पर लगाकर पूरे मुल्क के मानस को मानो पौराणिक दुनिया में पहुँचा दिया था. बंगाल में चुनाव नहीं,जैसे राम - रावण या देवासुर संग्राम चल रहा था.
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी समस्त गरिमा त्याग दी थी और वह पूरे छल - बल से वहाँ एक्ट कर रहे थे, जो दिख रहा था. रथी रावण को रामकथा और रामलीला मंडलियों में पराजित होते देखने - सुनने के लोग अभ्यस्त हैं. लोग पूरी उम्मीद लगाए थे कि छल - बल की इस बार भी पराजय होगी. हुई.
इस देश में किसी को देवी - देवता या फिर दानव बना देने में लोगों को महारत हासिल है. इंदिरा गाँधी को और किसी ने नहीं भाजपा (तब जनसंघ ) नेता अटलबिहारी ने ही चण्डी दुर्गा बनाया था. इस बार जाने कितने लोगों ने ममता को भी बनाया. चोटिल हो जाने के उपरांत चुनाव प्रचार में व्हील चेयर पर नजर आने वाली ममता जी चुनाव नतीजों के बाद अचानक से किसी देवी की तरह अपने पैरों पर आ गईं.
हालांकि उन्होंने अपना नंदीग्राम गँवा दिया, जहाँ वह अपने पुराने सहयोगी शुभेंदु अधिकारी से पराजित हो गईं, लेकिन पूरे बंगाल पर उनकी पार्टी और उनके व्यक्तित्व का परचम काफी ऊपर हो गया. बंगाल विधानसभा के कुल 294 में से 292 पर चुनाव हुए थे. इनमें से 213 सीटें लाकर ममता ने एक करिश्मा दिखा दिया. पिछले चुनाव के मुकाबले उनकी सीटें भी बढ़ी और वोट प्रतिशत भी. पूरी ताकत लगा कर मोदी और उनकी पार्टी 77 पर सिमट गयी, जो बहुमत से बहुत दूर है.
लोग चाहे जो कहें, भाजपा की उम्मीद बिलकुल निराधार भी नहीं थी. 2014 के बाद बंगाल में उसकी ताकत में लगातार इजाफा हुआ था और हमारी ईमानदारी का तकाजा होगा कि यह बात स्वीकार करें कि इस बार भी कुछ मायनों में उसकी ताकत बढ़ी है. 2011 के विधानसभा चुनाव में केवल चार फीसद वोट लाने वाली भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव में 17 फीसद वोट हासिल करने में सफल हुई थी.
हालांकि दो साल बाद 2016 के विधानसभा चुनाव में वह नीचे आकर 10 फीसद पर सिमट गई. लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में उसने फिर छलांग लगाई. उसने 16 सीटों के साथ 40 .6 फीसद वोट हासिल किए. विधानसभा की 121 सीटों पर भी उसकी बढ़त थी. बड़ी बात यह कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को उसने असहाय बनाकर छह फीसद वोट पर ला दिया.
इस आधार पर उसका बंगाल जीतने का स्वप्न कोई दिवास्वप्न नहीं था. इस बार वह सरकार बनाने में भले विफल हुई हो, नतीजे इतने ख़राब भी नहीं हैं. संख्या के हिसाब से वह तीन से सतहत्तर पर पहुँच गई है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया है. इस स्पेस को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है. मेरा मानना है यह उसकी बड़ी उपलब्धि है.
अब जब कि नतीजे आ गए हैं, खेला हो चुका है, लोगों की ख़ुशी और गम ठौर पा चुके हैं ,तब हम इस बात पर विचार करना चाहेंगे कि बंगाल की राजनीति और उसके परिणामों को कैसे देखें? सामान्य तौर पर कहा गया कि यह सेकुलरवाद की जीत है. क्या यह उस तरह के संकल्प और सेकुलरवाद की जीत है, जैसी बिहार में 2015 में हुई थी, जब अमित शाह भाजपा आलाकमान थे और उन्होंने 185 + का एक टारगेट बनाकर चुनाव लड़ा था.
नतीजों में वह 58 पर सिमट गए थे. राजद, कांग्रेस, जदयू के महागठबंधन ने 178 सीटें लाई थीं. दो साल भी नहीं हुए थे कि नीतीश कुमार जो संघ मुक्त भारत के फलसफे दहाड़ रहे थे, खुद एकरोज अचानक नाटकीय अंदाज़ में भाजपा की गोद में जा बैठे. इसलिए मैं उनलोगों में नहीं हूँ, जो इस समय ममता को भाजपा विरोधी राजनीति का नायक स्वीकार रहे हैं.
ममता जी में अनेक खूबियां हैं. वह किसी राजनीतिक खानदान से नहीं आई हैं. उन्होंने सबकुछ अपनी मिहनत से हासिल किया है. वह अक्खड़ हैं, जुझारू हैं और जरुरत भर संवेदनशील भी हैं. बेशक वह कांग्रेसी चरित्र की हैं और कांग्रेस की खूबियों - खराबियों से खचित भी. लेकिन उनका कुछ अपना भी है और वह यह कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी लेफ्ट फ्रंट को वह नापसंद करती हैं. कांग्रेस के झंडे तले जब उन्होंने राजनीति में कदम रखा तब बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की सरकार थी.
उससे वह भिड़ गईं. मुसीबतें झेलीं, अपमान झेले, मार खाई. लेकिन झुकी नहीं. 1990 के दशक के आखिर में जब भाजपा का ग्राफ ऊपर उठने लगा तब उन्हें महसूस हुआ कांग्रेस के झंडे तले वह लेफ्ट से निर्णायक संघर्ष नहीं कर कर सकतीं. उनका लक्ष्य वाम विरोध था, साम्प्रदायिकता विरोध नहीं. इस लक्ष्य को हासिल करने केलिए भाजपा शिविर में भी शामिल हुईं. बिहार में लगभग यही स्थिति नीतीश कुमार की थी. उनका भी मुख्य लक्ष्य समाजवादी राजनीति नहीं, लालू विरोध था. इसे हासिल करने केलिए वह भी भाजपा शिविर में शामिल हुए, क्योंकि कांग्रेस इस लक्ष्य की प्राप्ति में उनकी सहयोगी नहीं हो सकती थी.
2011 में ममता ने वाम पक्ष को सत्ता से बेदखल कर दिया . वाम पक्ष का ग्राफ लगातार नीचे गिरने लगा .बंगाल कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस हो गई . इस चुनाव में ममता के अधूरे काम को भाजपा ने पूरा कर दिया है . वामपक्ष और कांग्रेस दोनों का पूरी तरह सफाया हो चुका है . उनकी सीटें निश्चित ही भाजपा ने हासिल की हैं . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को कुल जमा 4 .73 और कांग्रेस को 2 .93 फीसद वोट हासिल हुए हैं .
बंगाल की राजनीति का यह रूप मेरे हिसाब से उदास करने वाला होना चाहिए. कई कमियों के बावजूद आज भी कम्युनिस्टों और कांग्रेस को ही मैं वास्तविक सेकुलर पक्ष मानता हूँ. इस चुनाव में भी भाजपा के जयश्रीराम के मुकाबले तृणमूल के लोगों ने जिस तरह चंडीपाठ किया वह बतलाता है कि मौलिक रूप से दोनों में बहुत भेद नहीं है. वोट हासिल करने केलिए जो भी संभव था ममता और उनकी पार्टी ने भी किया.
चुनावों में एक खास बात यह हुई कि मुस्लिम मतदाताओं ने जो कि बंगाल में तीस फीसद के करीब हैं, ओबैसी के मजहबी राग को नकार दिया. ओबैसी की पार्टी केवल 0. 02 फीसद, यानि नगण्य वोट हासिल कर सकी. बिहार में इस पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में सीमांचल इलाके में महागठबंधन को नुकसान देकर भाजपा गठबंधन को अच्छा ख़ासा लाभ दिया था.
बंगाल में यह नहीं हुआ. लेकिन क्या प्रभावशाली (तीस फीसद) मुस्लिम वोट अपने चरित्र का सेकुलरिकरण कर सका है? यदि नहीं, तो फिर यह छुपी हुई अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता, बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को बल देगी. भाजपा की साम्प्रदायिकता या धर्मकेंद्रित राजनीति से आप तबतक नहीं लड़ सकते जब तक आप स्वयं अपने सेकुलर चरित्र को पुख्ता नहीं कर लेते.
मैं इस अवधारणा का समर्थक नहीं हूँ कि अल्पसंख्यकों को धार्मिकता में रियायत दी जाय. इसके उलट मेरा मानना है कि अल्पसंख्यकों को हर मुल्क में अपना सेकुलर चरित्र विकसित करना जरुरी होता है. भारत में सबसे कम जनसंख्या में पारसी हैं. वे धार्मिक भी हैं. वह भी बाहर से आया हुआ मजहब है लेकिन उनका कोई सांप्रदायिक रूप कभी नहीं दिखा.
बंगाल चुनाव में तृणमूल को हासिल लगभग अड़तालीस फीसद वोट में मुस्लिम वोट प्रभावशाली है. अब जब कि तृणमूल की सरकार बन गई है तब उसकी कोशिश होनी चाहिए कि वह धर्मनिरपेक्षता का एक उदाहरण पेश करे. बेसी पूजा पाठ और ईद - नमाज से ममताजी बचें. वह कलानुरागी हैं और बखूब जानती हैं विशद साहित्य और कला ही जीवन को वास्तविक रूप से धर्मनिरपेक्ष बनाते हैं. बंगाल रवीन्द्रनाथ टैगोर, नजरुल इस्लाम और शरतचंद्र की भूमि है.
वह लालन फ़कीर के जातिमुक्त आग्रह भरे बाउल गान की भूमि है. वहाँ से उन्नीसवीं सदी में नवजागरण का उद्घोष हुआ था. हिन्दू - मुस्लिम और ब्राह्मण - तपशील का भेद ख़त्म कर एक बंगाली भारतीय स्वरूप विकसित करने की उन्हें कोशिश करनी चाहिए. लेफ्ट हुकूमत ने गलतियां की होंगी, उन्हें नकारना ही होगा, लेकिन जो अच्छाइयां उन्होंने की है, उन्हें विकसित करने की कोशिश भी होनी चाहिए. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार पर जोर देते हुए एक ऐसी विकास नीति को अपनाएं, जो सबको एक साथ रख सकने में सक्षम हो.
और आखिर में यह गाँठ बाँध लें कि अब उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता मार्क्सवादियों से नहीं, भाजपा से है. उनकी कुर्सी के ठीक पीछे वह खड़ी है. उसने बस दस फीसद कम वोट लाए हैं. अब आमने - सामने की सीधी लड़ाई है. बहुत छल - छद्म होंगे कि नीतीश कुमार की तरह वह आत्मसमर्पण कर दें. वह ऐसा नहीं करें, इसके लिए जरूरी होगा कि वह अपनी रणनीति और वैचारिकता पर पुनर्विचार करें. यह उन्होंने किया तब वह भारतीय राजनीति को भी एक दिशा दे सकेंगी.
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