ब्राह्मणवाद जातिवाद जब तक आरक्षण और प्रतिनिधित्व तब तक

उत्तम कुमार

 

बहुजन समाज एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का मामला हो या गुरु रविदास मंदिर तोड़ने का मामला हो दोनों बार दलितों ने सड़कों पर उतरकर बड़ा आंदोलन किया और कोर्ट को निर्णय में सुधार करना पड़ा, तो ऐसे समय में जब कोई भी सड़क पर उतरकर अपनी प्रतिरोध की आवाज बुलंद नहीं कर सकता है. तब कोर्ट का ऐसा निर्णय न्यायालय की मंशा पर सवाल उठाता है।

आरक्षण जैसी नीतियां सिर्फ भारत में नहीं और भी काफी देशों में हैं, जहां रंग, भाषा, धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जाता है। आरक्षण इसलिए दिया जाता है कि जिन लोगों से उनकी पहचान के आधार पर भेदभाव करते हुए उनके अधिकारों से वंचित रखा गया हो, उनको मुख्यधारा में लाया जा सके।

भारत में दलितों, आदिवासियों को हजारों वर्षों से इसी जातिगत पहचान की वजह से उनके साथ भेदभाव होता रहा, मूलभूत अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। दलितों के पास न शिक्षा, न प्रॉपर्टी और न ही सिविल राइट्स के अधिकार थे।

इसलिए दलितों की समस्याएं अन्य गरीबों से भिन्न हैं क्योंकि पूर्व में तो दलितों को उनके अधिकारों से वंचित रखा ही गया था। आज भी काबिलियत होने के बावजूद उनके लिए जातिगत पहचान की वजह से नौकरी शिक्षा, व्यवसाय सब रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। इसलिए आरक्षण के द्वारा उन्हें प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ाया जाता है ताकि उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। यदि माननीय सुप्रीम कोर्ट समीक्षा करना चाहता है तो इस बात की करे कि आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी आज तक एससी/एसटी व अन्य पिछड़ा वर्ग का कोटा स्टेट हो या केन्द्र कहीं भी पूरा क्यों नहीं हुआ है?

इस पर कभी कोर्ट ने समीक्षा के लिए टिप्पणी नहीं की है। आज़ादी के इतने वर्षों के बावजूद भी आज तक दलितों को संपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, इसके जिम्मेदार कौन लोग हैं? लेकिन समय आ गया है जिस कम्युनल अवार्ड  को पूना पैक्ट के तहत खारिज कर दिया गया था, उसे अब लागू करने का वक्त आ गया है।

समीक्षा होनी चाहिए। जाति आधारित असमानताओं को व भेदभाव को मिटाने के लिए जिस आधार पर समाज में अवैज्ञानिक रूप से मनुस्मृति पर आधारित भेदभाव हुआ है उसी आधार पर समानता के लिए आरक्षण दिया गया है।

ब्राह्मणवाद जातिवाद जब तक आरक्षण और प्रतिनिधित्व तब तक 

आज भी हर क्षेत्र में भेदभाव कायम है। जातिगत भेदभाव जो आरक्षण का आधार है वो आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. अफ़सोस की बात है कि अभी भी बड़े कालेजों में ख़ास कर मेडिकल और इंजीनियरिंग में एससी/एसटी वर्ग के संपन्न या गरीब तबके के छात्रों के साथ भेदभाव कम नहीं हो रहा है। रोहित वेमुला और डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या इसका जीता जागता उदाहरण है. शिक्षा, सरकारी नौकरियों, निजी क्षेत्र समेत हर जगह जातिगत भेदभाव बना हुआ है। हर साल दलित उत्पीड़न के 20 हजार से ज्यादा मुकदमे दर्ज किये जाते हैं, ऐसे में माननीय सुप्रीम कोर्ट का ये कहना कि आरक्षण 10 साल के लिये दिया गया था और इस पर समीक्षा करनी चाहिए, बिल्कुल नाजायज है। इस लॉक डाउन में आप कोरांटाइन सेंटर में दलितों के हाथ खाना नहीं खाते हैं। मुसलमानों के खिलाफ तबलीगी के नाम पर घृणा फैलाया है।

अब यदि हम कोर्ट द्वारा संपन्न दलितों पर की गई टिप्पणी की बात करें तो 70 सालों में एक नया वर्ग आया है, जो पढ़ लिख रहा है, अपने समाज को ऊपर उठा रहा है, ये वो छोटा वर्ग है। जो एससी-एसटी वर्ग के संपन्न लोगों में आता है। जिसकी रीढ़ आपने पहले नोटबंदी और अब लॉक डाउन से तोड़ रहे हैं।

एससी/एसटी वर्ग के संपन्न लोगों को आरक्षण इसलिए भी जरूरी है, जिससे वो सरकार के उन पदों पर स्थान प्राप्त कर पाएं जहां से वो कल्याणकारी नीतियां दलित वर्ग के लिए बना पाएं क्योंकि एक दलित जिस तरह से दलित समाज का दर्द समझ सकता है वह एक सवर्ण वर्ग का अधिकारी नहीं महसूस कर सकता। आप न्यायपालिका को ही ले लीजिए, यहां आरक्षण लागू नहीं है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ये आंकड़ें दे कि कितने एससी/एसटी व पिछड़ा वर्ग के लोगों को जज बनाया गया है? जिन 70 सालों की आप दुहाई दे रहे हैं, उन 70 सालों में मात्र एक दलित चीफ जस्टिस कुर्सी पर बैठा है। आज भी आपके 33 जजों के गुट में सिर्फ एक दलित जज है, जिसे पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया गया है।

यदि शिक्षा के क्षेत्र में हम आरक्षण के आंकड़े देखें तो देश की 40 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 95 प्रतिशत प्रोफ़ेसर सवर्ण जातियों से हैं और दलित समाज से सिर्फ 4 प्रतिशत आदिवासी की 0.7 प्रतिशत की भागीदारी है। एसोसिएट प्रोफेसर 92 प्रतिशत सवर्ण और 5 प्रतिशत दलित 1.30 प्रतिशत आदिवासी हैं। ओबीसी दोनों जगह शून्य हैं। यहां से आप धरातल पर आरक्षण का कितना फायदा मिला है उसका आंकलन कर सकते हैं।

ओक्सफार्म इंडिया के 2019 के एक सर्वे के अनुसार भारत में मीडिया में 80 प्रतिशत से ज्यादा सवर्ण जाति के लोग हैं, शेयर बाजार में दलितों की संख्या लगभग शून्य के बराबर है। निजी क्षेत्र में कहीं भी दलित आदिवासी निर्णायक स्थिति में नहीं हैं। कोर्ट में बहुजन न्यायाधीश दूर की कौड़ी मीडिया में कहीं दलित सम्पादक नहीं है।

आज भी सभी बड़े संस्थानों में सवर्ण जाति के लोग 70 से 80 प्रतिशत निर्णायक की कुर्सियों पर बैठे हैं। वहीं एससी/एसटी/ओबीसी इन बड़े संस्थानों, कार्यालयों में मात्र 20-30 प्रतिशत हैं। इसी से जान लीजिये की सामाजिक रूप से असमानता किस कदर अब भी देश में फैली हुई है। इतना बड़ा अंतर आज भी हमारे समाज में है।

माननीय सुप्रीम कोर्ट जहां आरक्षण को मौलिक अधिकार न होना बताते हुए एक तरफ सरकारी नौकरी में आरक्षण को पूरी तरह से राज्य सरकारों पर निर्भर होना बताती है, वहीं दूसरी ओर जब राज्य सरकार शेड्यूल ट्राइब्स को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना चाहती है, तो सुप्रीम कोर्ट कह रही है कि यह असंवैधानिक है। अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण असंवैधानिक है तो कोर्ट ने सवर्णों के 10 प्रतिशत आरक्षण पर तुरन्त रोक क्यों नही लगाई?

भारत के संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने तमाम मौकों पर कहा है कि भारत में न्यायाधीशों का फ़ैसला उनके जातीय चरित्र के मुताबिक़ होता है। इसलिए आरक्षण या एससी/एसटी व पिछड़ा वर्ग से जुड़े मुद्दों पर निर्णय देने वाली बेंच में माननीय सुप्रीम कोर्ट को इन वर्गों का प्रतिनिधित्व जरूर सुनिश्चित करना चाहिए, ताकि लोगों का न्यायपालिका पर बना विश्वास मजबूत हो।

भारत में गरीबी रेखा से नीचे लोगों के जाति और समुदाय प्रोफ़ाइल, सच्चर रिपोर्ट में पहले ही दर्शाया गया है। सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। 

भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है। और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।

आम आबादी में उनकी संख्या के अनुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्यस्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ अभिज्ञेय समूहों के लिए प्रवेश मानदंड को नीचे किया गया है। कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदंड जाति है। भारत सरकार द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, हालांकि कम-प्रतिनिधित्व के अन्य अभिज्ञेय मानदंड भी हैं; जैसे कि लिंग (महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है), अधिवास के राज्य (उत्तर पूर्व राज्य, जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कम है), ग्रामीण जनता आदि।

मूलभूत सिद्धांत यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही।

संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण था।बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। 50% से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी। हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं। उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69% है और तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर यह लागू होता है।

जब तक जातिवाद जीवित है आरक्षण गैरबराबरी की खाई को पाटने में लागू करना होगा। जैसे अमेरिका में रेड इंडियन के लिए Affirmative एक्शन के रूप में लागू है। भारतीय न्यायपालिका ने आरक्षण को जारी रखने के लिए कुछ निर्णय दिए हैं और इसे सही ढंग से लागू करने के लिए के कुछ निर्णय सुनाया है। आरक्षण संबंधी अदालत के अनेक निर्णयों को बाद में भारतीय संसद द्वारा संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बदलाव लाया गया है। भारतीय न्यायपालिका के कुछ फैसलों का राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा उल्लंघन किया गया है। 


Add Comment

Enter your full name
We'll never share your number with anyone else.
We'll never share your email with anyone else.
Write your comment

Your Comment