माटी का बेटा माटी के गोद में चला गया

कुबेर

 

शासकीय स्वशासी दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगाँव से शा. गजानन अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा स्थानोरण के कुछ दिनों बाद पहली बार किसी काम से नरेश कुमार वर्मा जी राजनांदगाँव आए रेल्वे स्टेशन से उन्हें रिसीव करने के बाद मैंने उनसे जलपान के लिए आग्रह किया उनके ही आग्रह पर हम दोनों रेल्वे स्टेशन के बाहर अग्रवाल होटेल में आकर बैठ गए। जलपान के बाद पालिथिन का एक पैकेट उन्होंने मुझे दिया, कहा "ये आपके और बच्चों के लिए है।"

मैंने पूछा "क्या है?" "अरे भाई, हम छत्तीसगढ़िया लोग किसी के घर सगा जाते हैं तो खाली हाथ जाते हैं क्या?"

"अच्छा! बरा-सोहारी है?"

"मिसेज ने रात में ही बनाकर पैक कर दिया था। ठेठरी-खुर्ची

है। बरा-सोहरी खराब हो जाते न।" मैंने कहा "अब घर चलकर भोजन कर लेते हैं।"

मेरा गाँव राजनांदगाँव से 7 कि.मी. दूर है। शायद इसीलिए उन्होंने कहा "घर जाने से राजनांदगाँव का मेरा काम पूरा नहीं हो पयेगा और कभी सपरिवार आयेंगे तो आपके घर चलेंगे।"

इस होटल के मालिक से उनका आत्मीय परिचय था। आग्रहपूर्वक इसी होटल में आने का कारण अब समझ में आया था।

उन्होंने उनसे कुछ देर औपचारिक बातचीत की और फिर निकल पड़े हम दोनों शहर के अंदर की ओर शहर में उन्होंने उन सभी रास्तों का अनुसरण किया जिनमें उनके किराने की दुकान, सब्जीवालों का पसरा, पान ठेला और फोटो कॉपी की दुकाने अवस्थित थी। उन्होंने उन सभी लोगों से औपचारिक मुलाकातें की।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा का जन्म भाटापारा के समीप ग्राम फरहदा में एक कृषक परिवार में 13 अगस्त 1959 को हुआ था। गाँव की मिट्टी में खेलते और खेतों में हल चलाते हुए उनके व्यक्तित्व

का निर्माण हुआ था। यही कारण था कि उनके व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ियापन कूटकूटकर भरा हुआ था। छत्तीसगढ़ में सगा जाने पर मेजबान परिवार के लिए बरा, सौहारी, ठेठरी, खुर्मी की पोटली लेकर जाना एक आम परंपरा है।

यद्यपि सामाजिक जीवन में अब आधुनिकता और बाजार ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है और बरा, सोहारी, ठेठरी, खुर्ची की परंपरा बाजार में मिलने वाली मिठाइयों और फलों के द्वारा विस्थापित होने लगी है परंतु बरा, सोहारी, ठेठरी, खुर्ची में जो आतमीयता है उसे बाजार से खरीद पाना असंभव है। छत्तीसगढ़ की परंपरा और संस्कृति को जीने वाले

वर्मा जी इसे भलीभांति जानते और समझते थे। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए अपने खून से पत्र लिखने वाले डॉ. वर्मा के मन में छत्तीसगढ़ के गरीबों मजदूरों और किसानों के शोषण को देखकर जो दुख, पीड़ा और बेचैनी थी उसे उनकी काव्य कृति 'माटी महतारी को पढ़कर समझा जा सकता है।

डॉ. वर्मा विगत दो वर्षों से स्वास्थ्यगत परेशानियों से जूझ रहे। थे। कुछ दिन पूर्व ही उन्हें पितृ शोक का आघात भी लगा था। 26 अप्रैल 21 को मैंने उनसे मोबाइल पर संपर्क करने का प्रयास किया था। फोन उनके सुपुत्र मयंक ने रिसीव किया था।

बातचीत से डॉ. वर्मा के किसी प्रकार के असामान्य स्वास्थ्य के अंदेशे की प्रतीति नहीं हुई थी। परंतु चौबीस घंटे बाद, 27 अप्रैल 21 की संध्या वाट्सअप पर डॉ. वर्मा के निधन संबंधी एक पोस्ट को पढ़कर मुझे गहरा आ गत लगा विश्वास नहीं हो रहा था कि छत्तीसगढ़ माटी महतारी

ने अपने इस लाडले सपूत को अपनी गोद में समेट लिया है। छत्तीसगढ़ माटी महतारी के इस लाडले सपूत को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि नमन।


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