मई दिवस: मजदूरों के खून से रंगा दिन

उत्तम कुमार

 

8 घंटे कार्य दिवस की मांग करते हुए कब हड़ताल की गई थी, इतिहास में इसकी ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतिहासकारों के अनुसार छत्तीसगढ़ में 1919 में बीएनसी मिल, राजनांदगांव में ठाकुर प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में रालेक्ट एक्ट के खिलाफ किया गया हड़ताल पहला हड़ताल माना जाता है। बीएनसी वह रणभूमि हैं। जिसने हमें तीन जुझारू व ईमानदार नेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह, रूईकर और श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी दिया।

19 वीं सदी में अमेरिकी उद्योगों का अभूतपूर्व विकास हुआ। अमरीकी उद्योगों के विकास के साथ-साथ काम के घंटे कम करने का आंदोलन चारों ओर फैल गया। पहले मजदूरों को 18 से 20 घंटे काम करना पड़ता था। सन् 1820 से 1840 तक काम के घंटे कम करने का आंदोलन चल रहा था। प्रतिदिन 10 घंटे काम करने का नियम लागू करने की मांग प्रत्येक उद्योगों में की गई।

सन् 1927 में गृह निर्माण कार्यों में लगे मजदूरों ने 10 घंटे काम के मांग को लेकर हड़ताल की। इस संघर्ष के दौरान दुनिया का पहला ट्रेड यूनियन फिलाडेल्फिया के मैकेनिकों की यूनियन बनीं। 1834 में न्यूयार्क में रोटी कारखाने में मजदूरों की हालात मिश्र की गुलामी प्रथा से भी बदतर थी। जहां मजदूरों को 20 से 24 घंटे कार्य करने पड़ते थे।

राष्ट्रपति म्यानबुरेन अमरीका के सरकारी श्रमिकों  के लिए 10 घंटे काम के समय निर्धारित करने के लिए बाध्य होना पड़ा। 1850 के बाद ट्रेड यूनियन बनाने की काम में तेजी आई। जिसके फलस्वरूप 8 घंटे काम के लिए जोरदार आंदोलन होने लगा। काम के घंटे कम करने का आंदोलन सिर्फ अमेरिका में ही नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के तहत जहां भी मजदूरों का शोषण हो रहा था वहां आंदोलन तेज होने लगा।

भारत में 8 घंटे कार्य दिवस की मांग 1880 में बंबई की जीआईपी रेलवे कारखाना के मजदूरों ने शुरू किया था। काम के 8 घंटे, आराम के 8 घंटे और मनोरंजन एवं अध्ययन के लिए 8 घंटे की मांग अमरीकी मजदूर फेडरेशन ने सबसे पहले प्रारंभ किया। फेडरेशन ने 7 अक्टूबर 1884 को एक प्रस्ताव पारित कर यह मांग रखी कि मई 1886 से 8 घंटे का कार्य दिवस कानून के रूप में विधि सम्मत ढंग से शुरू हो। 1861-62 में पहले गृह युद्ध के बाद अमेरिका में कुछ ट्रेड यूनियन राष्ट्रीय यूनियन में शामिल हो गए।

20 अगस्त सन् 1866 में सभी ट्रेड यूनियनों ने मिलकर राष्ट्रीय यूनियन का गठन किया था। इसके मुखिया के रूप में एच सिलभिस चुने गए। सिलभिस युवा नेता थे। राष्ट्रीय मजदूर यूनियन के आंदोलनों के फलस्वरूप 8 घंटे श्रम समिति स्थापित की गई थी। इस संगठन ने 8 घंटे कार्य दिवस के आंदोलन को तेज किया। जिसके उभरते नेता थे बुरा शुयार्ड। इसके साथ ही प्रस्ताव व साधारण परिषद में प्रतिनिध भेजने का कार्य शुरू हुआ। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक आंदोलन एक रूप धारण करने लगा था। इस बीच सिलभिस की मृत्यु हो जाती है, जिससे यूनियन टूटन के कगार पर पहुंच जाती है।

1873 में मंदी का ग्राफ बढ़ते गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। 1881 से 1888 के बीच लगभग 500 हड़तालें एवं तालाबंदियां हुई। जिसमें लगभग 1 लाख 50 हजार मजदूरों ने भाग लिया। 1885 में हड़तालों के आंकड़े बढ़कर 700 तक पहुंच गए। इन हड़तालों में भाग लेने वाले मजदूरों की संख्या 2 लाख 50 हजार होगी। 1886 में हड़तालों की संख्या पिछले साल से बढ़कर 1572 पहुंच गई। जिसमें भाग लेने वाले मजदूरों की संख्या 6 लाख तक पहुंच गई। हड़ताल का मूल केंद्र शिकागो शहर था। परंतु हड़ताल न्यूयार्क, वल्दीमोर, वाशिंगटन, मिलबाकी, सेंटलुईस, पीटसबर्ग आदि क्षेत्रों में फैल गई। 

1 मई 1886 का दिन इतिहास में शुमार हो गया। इस दिन लगभग 5 लाख मजदूर हड़ताल में शामिल हुए। सारे हड़ताली शिकागो में इकट्ठे हुए। परिणाम स्वरूप 1 लाख 80 हजार मजदूरों की संगठित प्रयासों से 8 घंटे की लड़ाई जीत ली गई। इस संघर्ष से अंतरराष्ट्रीय मई दिवस का जन्म हुआ। इसी दिन पेरिस में दूसरे इंटरनेशल का स्थापना किया गया। उस दिन को पर्व के रूप में मनाने मान्यता मिली। इस जीत के साथ मालिकों ने अपना होश खो दिया। 

2 मई 1886 में शिकागों में मैककार्मिक हार्पेस्टर कारखाना में हड़ताली मजदूरों पर पुलिस ने गोली चला दी। जिसमें 2 मजदूर शहीद हो गए और कई मजदूर गंभीर रूप से घायल हो गए। पुलिस के इस पाश्विक हत्या के विरोध में 4 मई को हे मार्केट में एक विरोध सभा आयोजित किया गया। इस सभा में फिर पुलिस ने हमला बोलकर मजदूरों पर गोली चलाई, लेकिन मजदूरों ने भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया। जिसमें 7 पुलिस के सिपाही मारे गए।

हे मार्केट मजदूरों के खून से लाल हो गया। इतिहास कहता है। यहां खून से सने कपड़े को मजदूरों ने अपने कंधों से ऊपर आसमान की ओर उठाया और लाल झंडे को जन्म दिया। जो एक देश से दूसरे देश तक पहुंचा। यह लाल झंडा कालांतर में कुर्बानी का प्रतीक बन गया।

हे मार्केट की घटना से उद्वेलित होकर सरकार ने आंदोलन के प्रमुख नेताओं पार्सन्स, स्पाईश, फीसर और एंजेल पर मुकदमा चलाकर 11 नवंबर 1888 को फांसी दे दी और नौवे स्च्वान और फील्डेन को उम्र कैद की सजा दे दी। एक अन्य मजदूर नेता लिंग काल कोठरी में मृत पाया गया। जिसे पुलिस ने आत्महत्या बताया, लेकिन यह पुलिस अभिरक्षा में हत्या थी।

अमेरिकी सरकार की इस बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की सभी देशों ने विरोध किया। हे मार्केट के शहीदों के अरमानों को पूरा करने की कसमें खाई। विभिन्न देशों में मई दिवस व्यापक रूप लेने लगा। एक बड़ा असंगठित मजदूर वर्ग इस लाल झंडे के नीचे संगठित होने लगे। जेनेवा कांग्रेस ने 8 घंटे का कार्य दिवस लागू किया। 1886 में ही पेरिस ने इसे लागू करने पुन: घोषणा की।

24 जुलाई 1886 को पेरिस में दूसरे इंटरनेशनल की स्थापना में 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी समारोह को मनाते हुए यह निर्णय लिया था कि सभी देशों में मजदूर वर्ग के अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मई दिवस मनाया जाए। जिसमें 8 घंटे का कार्य दिवस का संघर्ष मुख्य मांग के रूप में रहे। जो आज भी दुनिया भर में पूरी संजीदगी के साथ मनाया जाता है। अब यह दिन और 8 घंटे का कार्य दिवस नई लड़ाई की एजेंडा के रूप में उभरने लगा है।

22 मार्च 1889 को ब्रिटेन में लंकाशायर कपड़ा मजदूरों ने काम के घंटे निश्चित करने के लिए भारतीय मजदूरों के मांग के समर्थन में एक संगठित और बड़ा जुलूस निकाला। जिसमें कई महत्वपूर्ण नेताओं ने भाषण दिया। अप्रैल 1860 में बम्बई कपड़ा मिल के 10 हजार मजदूरों ने एनएम लोखांडे के नेतृत्व में एक विशाल सभा में शामिल हुए। जिसमें महिला मजदूरों ने भी भारतीय इतिहास में पहली बार सभा को संबोधित किया था।

सभा ने विश्राम के लिए साप्ताहिक अवकाश की मांग रखी। जिसे मान लिया गया था। यह विजय भारत के मजदूरों की पहली संगठित जीत के रूप में दर्ज हुआ। इस आंदोलन के बाद 26 सितम्बर 1890 को भारत सरकार ने एक आयोग गठित किया था।

जिसमें सापुर आयोग के सदस्य व लोखांडे प्रतिनिधि के रूप में चुने गए। आयोग के सिफारिश पर 1891 में कारखाना कानून बनाया गया। जिसे 1 जनवरी 1892 से पूरे देशभर में लागू किया गया था। इस कानून के अनुसार भारत में पहली बार महिला मजदूरों के लिए प्रतिदिन 11 घंटे का कार्य दिवस बच्चों के लिए 7 घंटे का कार्य दिवस व डेढ़ घंटे का भोजनावकाश निर्धारित किए गए थे।

उस समय तक पुरूष मजदूरों के लिए कार्य के घंटे तय नहीं किए गए थे। 1905 में लंकाशायर के मजदूरों ने पुन: एक प्रतिनिधि मंडल सरकार के पास भेजकर पुरूष मजदूरों के लिए कार्यदिवस तय करने की पहल की थी, लेकिन सापूर व लोखांडे की मृत्यु के कारण्स इस मुद्दे पर कुछ तय न हो सका था।

1905 से 1908 के मध्य मजदूर आंदोलन कई उतार-चढ़ाव के साथ गुजरा। बरिसाल के बस्ती व जमालपुर के रेल मजदूर, तमाम मजदूर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। इसने एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण कर लिया था। 1908 में इन आंदोलनों पर केसरी में समाचार छापने के कारण बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष की कारावास की सजा सुना दी गई। हड़ताल 6 दिन तक चली। हालांकि आंदोलन से 8 घंटे का कार्य दिवस राजनैतिक रूप नहीं ले सका। किंतु भारत में सर्वहारा वर्ग एक ताकत के रूप में उभरकर आया।

बम्बई के कपड़ा मजदूरों का संघर्ष पहली राजनैतिक संघर्ष के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। पुलिस के साथ मुठभेड़ व कई बलिदानों के बाद 1911 में मिल मालिकों को मजबूर होकर पुरूष मजदूरों के लिए 12 घंटे का कार्य दिवस व बाल मजदूरों के लिए 6 घंटे का कार्यदिवस स्वीकार करना पड़ा। बाद में यूनियनों के सांझा आंदोलनों से कार्य के घंटे 10 घंटे तक पहुंचा।

1892 से 1984 तक छत्तीसगढ़ के बीएनसी मिल ने तीन गोली कांड देखा हैं। 1923 में यहां 7 महीनों तक हड़ताल हुआ। जिसमें अबोध बालक राधे ठेठवार से लेकर जरहू गोड़ शहीद हुए। जरहू गोड़ को छत्तीसगढ़ का पहला मजदूर शहीद का दर्जा प्राप्त है। आज यह मिल बंद हो गई है।

1920 में भारत के मजदूर आंदोलन पर रूस की अक्टूबर क्रांति का प्रत्यक्ष प्रभाव था। रूस में अक्टूबर क्रांति के बाद विश्व साम्राज्यवाद की मजबूत कड़ी टूट गई थी। इन आंदोलनों को कुचलने के लिए भारत सरकार ने 10 हजार पाउंड खर्च कर एक सरकारी कार्यालय शिमला में स्थापित किया था। 1920 में चारों तरफ हड़ताल शुरू हो गई थी। सिर्फ कलकत्ता औद्योगिक शहर में 89 हड़ताल हुई थी। इस हड़ताल को देश का प्रत्येक राजनीतिक नेताओं ने समर्थन दिया था। इस बीच सितंबर 1920 में गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन ने देश में एक नई राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी।

जिससे मजदूरों में आत्मविश्वास  जागा और शोषक वर्ग के खिलाफ आंदोलन तेज होने लगे। उस समय कलकत्ता ट्राम कंपनी के मजदूरों की हड़ताल पूरे देश का ध्यान अपने संघर्ष में खींचा था। जहां मजदूरों को 15 घंटे काम करना पड़ता था ट्रॉम मजदूरों के लगभग 2500 मजदूरों ने 8 घंटे कार्यदिवस की मांग को लेकर हड़ताल प्रारंभ किया। जिससे ट्रेड यूनियन मजदूरों में एकता व संघर्ष के लिए एक रास्ता मजदरों ने दिखाया। 

सन् 1921 में मजदूर वर्ग ने 32 बार हड़ताल की जिसमें 6 लाख ईक्यावन मजदूरों ने हिस्सा लिया था। यह आंकड़ा सरकारी है। इसके अलावा बाहर से भी समर्थन में चाय बगीचे के हजारों मजदूर बगीचे को छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े थे। ब्रिटिश सरकार ने इन आंदोलनों को तोडऩे मिलिट्री बुलाई एवं गोलियां चलाई। इसी कड़ी में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अधिवेशन झडिय़ा में हुआ।

जब असहयोग आंदोलन किसी निर्णय तक नहीं पहुंचा उस वक्त मजदूरों ने झडिय़ा अधिवेशन में स्वराज्य के नाम प्रस्ताव पारित किया। 1921 से 1929 के दौरान कुल हड़तालों की संख्या 1739 थी। जिसमें लगभग 50 लाख मजदूरों ने हिस्सेदारी की थी।

भारत में मई दिवस सर्वप्रथम 1923 में मनाया गया। मद्रास के समुद्री तट पर सिंगारवेल्लु चेट्टियार की अध्यक्षता में सभा संपन्न हुई थी। सभी ने सर्वसम्मति से यह मांग की कि मई दिवस पर सरकार अवकाश घोषित करें। उस दिन चेट्टियार के घर पर लाल झंडा फहराया गया था। संघर्ष के इस बीज का समूल नाश करने मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर झूठे मामलों में फंसाया गया। इसी वर्ष पंजाब में बहुत से स्थानों में मई दिवस मनाया गया। 1926 में इंडियन सिमेन्स यूनियन के नेतृत्व में भारतीय नाविकों ने ब्रिटेन के हाइट पार्क में मई दिवस मनाया। 

1926 में लाहौर में अब्दुल मजीद के नेतृत्व में टांगा मजदूरों ने भी मई दिवस मनाया। इसके प्रचार के लिए कई स्थानों पर पोस्टर लगवाए गए और लाल झंडा फहराया गया। मीर अब्दुल मजीद भारत का पहला कम्युनिस्ट था, जिसके खिलाफ षढय़ंत्र का मुकदमा दायर किया गया। जिन्हें बाद में सजा भी हुई। मेरठ षडय़ंत्र मामले में 7 वर्ष जेल में बिताया।

1927 में कलकत्ता के खिदिरपुर बंदरगाह के क्रेन मजदूरों की ट्रेड यूनियन के नेता मुजफ्फर अहमद ने रंजी स्टेडियम में मई दिवस मनाया। इसी वर्ष बंबई में मई दिवस मनाया गया। पूरे शहर में जुलूस निकाला गया।

इस जुलूस को एनएम जोशी, जीआर थेगामी ने नेतृत्व दिया। जिसमें 8 घंटे कार्य दिवस व सप्ताह में वेतन सहित साप्ताहिक अवकाश की मांग उठाई गई। अमेरिका में साक्को भेजी को दिए गए फांसी के खिलाफ मद्रास में मजदूरों ने विरोध दर्ज किया एवं सत्यप्रिय बेनर्जी ने मई दिवस के उपलक्ष्य पर मे डे नामक किताब प्रकाशित किया।

जो भारत में मई दिवस पर पहला पुस्तक है। कलकत्ता में नीरोद चक्रवर्ती के नेतृत्व में एक जुलूस भी निकाला गया। बंगाल, नागपुर, खडग़पुर में 40 हजार मजदूरों ने हड़ताल किया।

हड़ताल को कई संगठनों ने आर्थिक व सांगठनिक सहयोग किया। इन सारे मजदूर आंदोलनों ने आगे चलकर कम्युनिस्ट आंदोलन के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में चल रहे मजदूर आंदालनों के समर्थन में ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय मजदूरों के संघर्षों से कंधा से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। उस वक्त सापुर ने पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध किया। 

ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी थे। लंदन में मई दिवस के दिन भाषण देने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने सापुर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। भारत में मजदूर आंदोलनों के अंदर क्रांतिकारी आंदोलन नई करवट ले रही थी। मजदूर आंदोलन के लक्ष्यों को पूरा करने आगे बढ़ रही थी। कम्युनिस्ट नेतागण इस नेतृत्व कर रहे थे। सन् 1928 में 3 करोड़ 15 लाख कार्य दिवस हड़ताल की गई थी।

जो पिछले तमाम 5 वर्षों के आंदोलनों में कुल संख्या से अधिक थी। बंबई के टेक्सटाईल्स आंदोलन का कोई जवाब नहीं था जिसमें 1 लाख 50 हजार मजदूर अप्रैल से अक्टूबर तक, सभी प्रकार के हिंसा के जवाब में लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष के मैदान में टिके हुए थे। इससे सरकार को मजबूरन मांगें माननी पड़ी।

1928 में बंबई, कलकत्ता व लाहौर में मई दिवस मनाया गया। बंबई में मई दिवस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कलकता में एक मील लम्बा मजदूरों का जूलूस निकाला गया। कलकत्ता के पुलिस आयुक्त ने 1862 के बंगाल अधिनियम की धारा 62 के तहत जुलूस पर प्रतिबंध लगाना चाहा, लेकिन वे असफल रहे। कई नेताओं के नाम नोटिस जारी किया गया। इसके बावजूद जुलूस शहीद मीनार में एक सभा के रूप में परिवर्तित हो गया। उस सभा को किशोरीलाल घोष, फिलिफ स्प्राट जैसे मजदूर नेताओं ने संबोधित किया।

इसी वर्ष ये लड़ाकू मजदूर राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन को 2 घंटे तक अपने कब्जे में करते हुए पूर्ण स्वाधीनता पर अपनी मांगे मनवाकर माने। ब्रिटिश सरकार ने ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं पब्लिक सेफ्टी बिल के जरिए मजदूर आंदोलन को खत्म करने की कोशिश की। उस समय ब्रिटेन से ब्रडली, फिलिस स्प्राट भारत मेंं आकर मजदूर आंदोलन के बीच कार्य कर रहे थे। जिससे उद्वेलित होकर सरकार ने मजदूर आंदोलनों पर हमले तेज कर दिए।

20 मार्च 1929 को 32 मजदूर नेताओं पर मेरठ षडय़ंत्र का मुकदमा दायर कर आंदोलनों को कुचलने भरसक कोशिश किया गया। यह पहली घटना है। जब मजदूर आंदोलन ने अपने अंतरराष्ट्रीय चरित्र का प्रदर्शन करते हुए ब्रिटिश भारत के मजदूर नेताओं ने यहां की आजादी के लिए कार्य किया।

जिसका इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं है। मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी के 40 दिन बाद ऐतिहासिक मई दिवस मनाया गया। बम्बई, कलकत्ता, करांची और कानपुर में बड़े-बड़े जुलूस निकाले गए। बम्बई में गिरनी कामगार यूनियन के नेतृत्व में मई दिवस मनाया गया।

उसी दिन 40 हजार मजदूरों ने विशाल जुलूस निकाला। पुलिस ने जलूस पर लाठी चार्ज किया। मजदूरों ने बुलंद हौंसले का प्रदर्शन करते हुए जुलूस को सभा में बदल दिया। सभा के अंत में मजदूरों ने संकल्प लिया कि पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर मजदूरों का राज्य स्थापित करेंगे।

साथ ही मेरठ षडय़ंत्र केस के गिरफ्तार नेताओं की रिहाई के लिए संघर्ष तेज करेंगे। मेरह षडय़ंत्र केस के इन गिरफ्तार नेताओं ने भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू को दिए गए फांसी की सजा का विरोध करते हुए न्यायालय में क्रांतिकारी गीत गाते हुए अदालत की कार्रवाई बंद करवा दी।

इसका अर्थ अदालत की अवमानना व कड़ी सजा थी, लेकिन यह पहला अवसर भी था कि मजदूर आंदोलन के नेताओं व भगत सिंह एवं उनके साथियों के विचारों में समानता का प्रदर्शन भी था।

मेरठ षडय़ंत्र मामले ने कुछ क्षण के लिए मजदूर आंदोलन को भले ही दबा सका हो लेकिन इसके परिणामस्वरूप 1930 में खडग़पुर रेलवे मजदूरों ने 8 घंटे की मांग को लेकर हड़ताल की और 1932 में पेशावर में आंदोलनरत मजदूर किसानों के साथ पुलिस का सीधा मुठभेड़ हुआ।

इसी वर्ष अमेरिका में भारतीय कम्युनिष्टों ने न्यूयार्क और ब्रिटिश ऑफिस के सामने, भारत में हत्या राज बंद करो जैसे पोस्टर लेकर प्रदर्शन किया।

पुलिस ने तीन प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया। इंग्लैंड में इंडियन फ्रीडम लीग के नेतृत्व में मेरठ षडय़ंत्र मामले में बंदियों की मुक्ति के लिए एक जुलूस भी निकाला था। 1931 से 1933 के बीच बड़े पैमाने में मई दिवस मनाया गया। मेरठ षडय़ंत्र मामला में बंदियों की रिहाई से लेकर राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन इन संघर्षों का केंद्र रहा है।

हे-मार्केट के शहीदों ने अपनी खून से जिस लाल झंडे को ऊंचा उठाकर भारत को हिलाकर रख दिया। वह भले सफल नहीं हो सका लेकिन आने वाले दिनों में मजदूर अपना राज कायम करने में अवश्य सफल होंगे।


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