दिल की बात...

रवीश कुमार

 

आते-जाते कई बार शीशे से टकरा जाता हूं। देखने वाला कोई लगता है और जो दिखाई देता है वो किसी अजनबी सा लगता है। पहली बार दीवार पर टंगी अपनी ही तस्वीरें भूतपूर्व की तरह मुझे घूरती नज़र आईं। चाहने वालों ने कितनी शिद्दत से मेरा चेहरा बनाया है। स्मृतियों के बचे रहने के लिए समाज का बचा रहना ज़रूरी है। जब समाज ही नहीं बचेगा तो इन स्मृतियों का क्या मतलब। तस्वीरों में ख़ुद को बेख़ौफ हंसते हुए देखना क्रूर लगता है।

इस दौर में जब कोई हंस नहीं रहा पुराने दौर की हंसी की तस्वीर नहीं सुहाती है। लगता है यह शख्स कितना प्राणहीन रहा होगा। ऐसे वक्त में कोई कैसे हंस सकता है। कई बार लगा कि ख़ुद का फ्रेम बदल लूं। कम से कम चेहरे का भाव ही बदल दूं। यहां सबका वजूद दांव पर है और यहां कमरे में एक अनेक बना बैठा है। इससे वल्गर क्या हो सकता है। वो सारी तस्वीरें स्मृतिविहीन हो चुकी हैं। उनसे जुड़ी स्मृतियां बहुत दूर जा चुकी हैं।

मैं दूसरों का चेहरा देखना चाहता हूं। जिन्हें बेरोक-टोक देख रहा था। जो इस वक्त कमरे में नहीं हैं। जो मेरे करीब नहीं आ सकते हैं। ज़ूम के ज़रिए कल दो चेहरों को देखता रहा। दुनिया से जाने के बाद देखे जा रहे वीडियो की तरह लगने लगा। जैसे कुछ भी बीत न रहा हो। सब कुछ बीत चुका हो। सब केवल एक फोटो फ्रेम हैं जिन्हें केवल देखा जा सकेगा। लगा कि उस कमरे में मैं भी होता। वहीं कहीं कुर्सी पर बैठा उलट रहा होता। हाथ से टकरा कर कोई कप नीचे गिर गया होता।

इसके बग़ैर होने और किसी के साथ होने का अहसास ख़ाली सा लगता है। उसमें गति होती है। प्राण नहीं होता है। कल ही अचानक किसी का वीडियो कॉल दिख गया। उसने जल्दी से वीडियो कॉल काट दिया। इतने कम समय में एक चेहरा ऐसे कौंधा और ग़ायब हो गया जैसे अचानक कहीं रखी चाबी याद आकर भूल गई हो। मुझसे लोगों के बग़ैर नहीं रहा जा रहा है। जिन्हें जानता हूं उन्हें एक बार के लिए छूना चाहता हूं। उनके बनाए खाने से गला भर जाता है।

लगता है कि यही एक अंतिम तार बचा हुआ है। खाना आना बंद नहीं होना चाहिए। लोहे की दीवार के उस पार से आती यही एक चीज़ थी जिसे छू कर देखी जा सकती थी। जिसे अपने भीतर लिया जा सकता था। दोस्तों का खाना कभी इतना अमृत सा नहीं लगा। न हिसाब रखूंगा न लौटाऊंगा। यही वो ज़िद है जो ज़्यादा ताकत देती है बीमारी से लड़ने की।

दिन भर तरह-तरह की आशंकाओं से मुलाक़ात होती रहती है। किसी को छू कर गुज़री है तो किसी को लपेट कर चली गई है। किसी के पास आते-आते रह गई है। गहरी निराशा के क्षण में मेरे डॉक्टर की आवाज़ ही है जो एक रिश्ता बनाती है। मुझे छू लेती है। उम्मीद दे जाती है कि तुम्हें तो ठीक होना ही था। मुझे पता था। उनकी आवाज़ के पीछे दिन भर मन भागता है। डॉक्टर केवल डॉक्टर नहीं हैं। तो उनकी भी चिन्ता होने लग जाती है। फोन रखते रखते हल्के से एक बात छूट जाती है कि आप ठीक हैं।

फोन पर डाक्टर को कई बार सिसकते सुना। किसी को न बचा पाने या किसी के न बच पाने की हताशा उस तरफ चुप खड़ी रही। आवाज़ संभली तो मेरा हौसला बढ़ाने लगी। हम कई बार उन्हें मशीन समझने की ग़लती कर बैठते हैं। हर बार वो इंसान से भी बेहतर साबित होते हैं। इसलिए नहीं कि मेरे डॉक्टर हैं। बिल्कुल नहीं। मैं उन्हें हमेशा दूसरों के लिए जीते हुए के संदर्भ में देखता हूं।

तभी कहा कि वो सिर्फ एक डॉक्टर नहीं है। इन बीमारियों के बीच वो इतिहास के प्रसंग भी बताते रहे। बीमारी के बारे में उनके नोट्स लेता रहा। एक टीचर की तरफ फोन पर ही डायाग्राम बनाने लग जाते। नाम लिखने से फायदा नहीं। मेरे डॉक्टर को नाम ही तो नहीं चाहिए। उनके लिए नाम किसी काम का नहीं। इसलिए स्वार्थों से परे हैं। ऐसे कुछ डाक्टरों को जानना जीवन को समझने की एक पूरी लाइब्रेरी का होना है।

आराम नहीं कर सका। सबने कहा आराम करो। कैसे आराम करता। इनबाक्स में सैंकड़ों मैसेज हैं।किसी ने अपने पिता को न बचा पाने की हताशा साझा कर दी है तो कोई अपने किसी के बारे में बता रहा है कि केवल दो छोटे बच्चे बचे रह गए हैं। क्या आप बचा सकते हैं? आप ही उम्मीद हैं। आप बेड दिला दीजिए। आज से पहले यह बात कभी इतनी खोखली नहीं लगी। निर्रथक होना अभिशाप सा लगता है। काश मैंं सबको जान रहा होता। सब मेरा फोन उठा रहे होते। मेरे कहने पर लोगों को बेड मिल रहा होता। आक्सीज़न मिल रहा होता।

वेंटिलेटर मिल रहा होता। मेरे कहने से कुछ नहीं होता है। लोग इस वक्त इतने टूट गए हैं कि फेसबुक पर पोस्ट कर देने के लिए आभार जता रहे हैं। जबकि वो कोई काम नहीं है। उसमें किसी प्रकार का श्रम भी नहीं है। लेकिन सबकी बीमारी से जुड़ा जुड़ा ख़ुद की बीमारी भूल जाता हूं। कई बार दवा खाना भूल गया। अस्पताल के बाहर तड़प कर मर जाने की ख़बरों के बीच उसी बीमारी से ख़ुद के बचे हुए का समाचार बताने लायक नहीं लगता है।

मैं काफी ठीक हूं।अभी प्राइम टाइम के बारे में न पूछें तो अच्छा है। अराजकता के इस दौर में में कौन सा सिरा बचा है जिसे लेकर कोई बात कही जाए। हर बात बेमानी है। अराजकता को अब कोई नहीं थाम सकता। हम सभी को विनम्र होकर याद करना चाहिए कि कैसे लोग आक्सीज़न के लिए तड़प कर मर गए। अब भी लोग मर रहे हैं। कौन समझेगा कौन नहीं समझेगा इसकी कोशिश बेकार है। आम लोगों के साथ धोखा किया गया। वो अपनों को बचा नहीं सके। जिन नेताओं के लिए उन्होंने अपने रिश्ते ख़राब कर लिए उन नेताओं ने उन्हें मौत की आग में धकेल दिया।

हमारा खोखलापन आज दुनिया को दिख गया। हममें से बहुतों को भी दिखा होगा। ख़ाली बर्तन का नाम हिन्दुस्तान है जिसमें न दाना है, न दवा है और न हवा जिसका नाम आक्सीजन है। हम सब दुनिया के सामने एक कटोरा हैं कटोरा। अपने घर में भी कटोरा बन गए हैं। हर इंसान हर जगह कटोरा बन कर घूम रहा है। चारों तरफ़ एक ही परचम है। हुक्मरानों की निर्लज्जता आज दुनिया भर में परचम बन लहरा रही है। हमारे पास उनकी निर्लज्जता के अलावा कुछ भी नहीं है दुनिया को दिखाने के लिए। लानत है।


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