एमए जोसेफ... यह नाम ही काफी था !
गिरीश पंकजमेरे परम आदरणीय अग्रज पत्रकार एमए जोसेफ (मार्क एंथनी जोसेफ) नहीं रहे। वे तिहत्तर वर्ष के थे। उन्हें अचानक हृदयाघात हुआ। इस कोरोना काल में अनेक लोगों को हृदयाघात भी हो रहा है। जोसेफजी के साथ मैंने नवभारत में लगभग एक दशक तक काम किया। उन वर्षो में उनके साथ मेरी गहरी आत्मीयता हो गई थी, जो निरंतर बनी रही।

वे पत्रकारिता की दुनिया में कैसे आए, इसके बारे में उन्होंने मुझे एक बार बताया था। वे जब पढ़ाई कर रहे थे, तभी उन्होंने पाठकों के नाम पत्र लिखना शुरू किया था। उनके पत्रों में जो वैचारिक मुद्दे हुआ करते थे यह बड़े महत्वपूर्ण रहते थे शहर की विभिन्न समस्याओं पर भी वे धारदार कलम चलाया करते थे। लेखन में उनकी रुचि देखते हुए बाद में उन्हें नवभारत में नियुक्ति मिल गई।
फिर वे सिटी चीफ हो गए। उस दौरान उनकी ज़बरदस्त ख्याति बढ़ी और वे एक सजग पत्रकार के रूप में पूरे शहर में पहचाने जाने लगे। उनका गठीला बदन और पूरा लुक 'मिलिट्री मेन' जैसा नजर आता था। जब मैंने साहित्य संपादक के रूप में 'नवभारत' ज्वाइन किया, तो मेरी साहित्यिक रुचि देखकर जोसेफ जी कभी-कभी मुझे अपनी रिपोर्टिंग दिखाया करते थे कि देख लो, कहीं मात्रा संबंधी कोई गलती तो नहीं है।
मैं ससंकोच देख लेता था। हालांकि उसमें कहीं कोई खास गलती मुझे नजर नहीं आती थी। कविता में मेरी रुचि देखकर जोसेफ जी अकसर छायाकार गोकुल सोनी द्वारा खींची गई तस्वीरें मुझे देते और कहते, ''इन पर कोई काव्यात्मक कैप्शन लिख दो''। मैं कुछ लिख दिया करता था। कभी-कभी किसी किसी खास छायाचित्र को देखकर मैं विस्तार के साथ फीचर भी लिख कर सौंप दिया करता था। इस कारण वे मुझसे बहुत प्रसन्न रहते थे।
एक समय बाद जोसेफजी को फ्रंट पेज पर बिठा दिया गया और मुझे सिटी चीफ की जिम्मेदारी सौंप दी गई। जोसेफ जी के रहते मैं सिटी चीफ रहूं, यह मेरे लिए संकोच की बात थी लेकिन प्रबंधन का निर्णय था, तो मुझे काम करना ही था। पर जोसेफ जी उस वक्त भी मुझ से स्नेह करते रहे और कभी-कभार अपनी कोई खास रिपोर्टिंग भी मुझे छापने के लिए दे दिया करते थे। शहर में उनके तगड़े सूत्र थे इसलिए उन्हें कुछ न कुछ समाचार मिलते ही रहते थे।
बाद में कुछ ऐसी स्थितियां बनी कि उन्होंने नवभारत छोड़ दिया और दूसरे अखबारों में काम करने लगे। मगर वह जहां भी रहे, उनकी धारदार रिपोर्टिंग हंगामा मचाती रही। एमए जोसेफ... यह नाम ही काफी था। उनका नाम लेते ही शहर के अनेक दिग्गजों के होश गुम हो जाते थे क्योंकि उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग के माध्यम से समय समय पर उन की खूब खबर ली थी ।
जीवन के अंतिम समय में वे रायपुर के लोकप्रिय सांध्य दैनिक 'प्रखर समाचार' के भी संपादक रहे । सेवा निवृत्ति के बाद उनका जीवन ठीक-ठाक चल रहा था। वे सांध्य दैनिक जाते और वहां थोड़ा-बहुत लेखन करके वापस चले जाया करते थे। पिछले दिनों मैंने उन्हें फोन किया और कहा, '' मार्क एंथोनी जोसेफजी सब बोल रहे हैं?'' तो वे चौंक गए।
मेरा दूसरा नंबर उनके पास सेव नहीं था, तो उन्होंने पूछा,'' कौन श्रीमान बोल रहे हैं ?'' जैसे ही मैंने अपना नाम बताया, तो वे चहक उठे और प्रसन्न हो कर बोले, ''वाह!! बहुत दिन बाद तुमने याद किया''। और सुनाओ क्या हाल है?'' फिर वे अतीत की मधुर स्मृतियों में खो गए।
आज अचानक उनके जाने की बुरी खबर जब मेरे मित्र राजेश जेकब ने सुनाई, तो मन पीड़ा से भर गया और मैं भी अतीत की स्मृतियों में डोलने लगा । याद आने लगा वह दौर, जब मैंने उनके साथ वर्षो तक एक ही अखबार में सुखद समय बिताया। तब तो रोज़ ही मुलाकातें होती रहीं। बहुत कम लोग उनके पूरे नाम से वाकिफ थे। मैं प्रायः उन्हें उनके पूरे नाम से बुलाता था, तो वे प्रसन्न हो जाते थे।
उन्हें श्रेष्ठ रिपोर्टिंग के लिए केपी नारायणन पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। उनको सम्मान मिलने के एक साल बाद मुझे भी यही सम्मान मिला तो उन्होंने गले लगा कर मुझे बधाई दी थी। ऐसी उदारता कम लोग ही दिखाते हैं। एक अच्छे धाकड़, सजग, रिपोर्टर,पत्रकार के रूप में जब भी रायपुर के कुछ पत्रकारों का जिक्र होगा, तो उसमें जोसेफ जी का नाम अनिवार्य रूप से लिया जाएगा।
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