युवाओं के कंधों पर ऐतिहासिक जिम्मेदारी
निशांत आनंदआखरी में युवाओं के नाम एक बड़ा संदेश यह है को वह अपनी हर क्षमता से किसान आंदोलन का समर्थन करें क्योंकि यही किसान थे जिन्होंने आपको कोरोना महामारी में अन्न प्रदान करने का कार्य किया है। इसके अलावा सरकार ने जनता को उसके हाल पर मारने के लिए छोड़ दिया है। 1.7 लाख करोड़ की घोषणा करके यह सरकार मात्र 90000 करोड़ ही अन्न या अन्य सुविधाओं के ऊपर खर्च की है और वह संभव इसलिए हो पाया क्योंकि 56 मिलियन टन अनाज जो किसान ने पैदा किया था वह सरकार के पास थी।

मोदी जब 2014 में चुनाव जीतकर आए तब उन्होंने यह बोला की हमारे पास युवाओं की सबसे बड़ी संख्या है, जिसे उन्होंने उस समय भी ह्यूमन रिसोर्स ही कहा था। एक अनटैप्ड (ना इस्तेमाल किया गया) संसाधन है। जिसमे उन्होंने 15 से 25 साल के युवाओं की बड़ी फौज को रेखांकित किया था।
पर उन बड़ी बड़ी बातों में भी वह अपना घिनौना मकसद छुपा नहीं पा रहा था कि मैं आपको सही और उचित तरीके से अपने और अपने आकाओं के फायदे के लिए उपयोग करूंगा। और वह उपयोग क्या था जो आज दिख रहा है।
युवा इतनी बेरोजगारी,गरीबी, परिवार के दबाव में है कि वह शिक्षा और उच्चतर सुविधाओं की बात तो दूर, आज वह महज दो वक्त के अनाज के लिए भी मोहताज है। पर वो अच्छे दिन के स्वप्न का हमने अच्छी तरह से निरीक्षण नहीं किया कि वह किस आधार पर इस बात को कह रहा है? अर्थव्यवस्था आस्था नही है जिसका कोई स्वरूप नही होता है।
अगर इतने अमूर्त स्तर पर बात किया जाए कि 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने जा रहे हैं फिर यह पूरी तरीके से अमूर्त जान पड़ता है। इसे सुनते हुए ही यह प्रश्न आना चाहिए हमारे अंदर में कि अगर हम अंग्रेजों के हुकूमत की भी बात करें तो क्या उस समय पैसे और कारोबार नहीं थे। उस समय भी अर्थव्यवस्था रही ही है, पर उस अर्थव्यवस्था पर किसका नियंत्रण था? किन लोगों को किस प्रकार का रोजगार मिल पा रहा था? बेरोजगारी की दशा क्या थी? गरीबी का स्तर क्या था? सरकार जन हितकारी कार्यों में कितना खर्च कर रही थी? लोगों का जीवनस्तर कैसा था?
किसानों को उसकी उपज का कितना फायदा मिल पा रहा था? उनकी आर्थिक दशा से उनके सामाजिक और राजनीतिक हित किस तरह से प्रभावित थे? क्या ये सवाल हमारे लिए जरूरी नही थे? तो जवाब है ये सारे सवाल जरूरी थे और सभी इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों द्वारा उठाए भी गए हैं। तो क्या आज जब देश की कर्ताधर्ता बनी सरकार सारे संसाधनों पर अपना अधिकार जमाए बैठी है तब लोगों को यह सवाल नही पूछने चाहिए। पर इसमें एक बड़ी दिक्कत डाटा की आती है।
डाटा वर्तमान के समय में अर्थव्यवस्था को न केवल बल प्रदान करता है अपितु लोगों को उस व्यवस्था से जोड़ने का काम भी करता है। जैसे भारत के अंदर 2014 में बेरोजगारी की दर 6.1 % के आस पास थी। वही भ्रष्टाचार की सूचनाओं पर बात करें तो भारत की स्थिति 2014 में बेहद चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई थी परंतु 2020 में भी भारत गिने चुने भ्रष्ट राष्ट्रों की सूची में बराबर प्रदर्शन कर रहा है। परंतु डाटा का रोल जब सरकार द्वारा दिखाया जाता है तब वह ज्यादातर परसेंटेज में होता है जो कि एक मोटा मोटा रुझान होता है और पिछले शासन की तुलना में दिखाया जाता है वास्तविक स्तर पर नही।
उसी समय सरकार ने विकास का नया मॉडल सुझाया जिसमे देश में निजीकरण को हर ओर से बढ़ावा दिया गया और विकास का एक मार्ग बताया गया। यह काम कोई नया नही था। देश में 1947 के बाद से ये काम हो रहा था परंतु बड़े बड़े शब्दों जैसे पब्लिक सेक्टर बैंक,पब्लिक सेक्टर इंडस्ट्रीज, के अंदर में छुपा दिया जाता था। एक आंकड़े के अनुसार 1950 में भारत की पूंजी का लगभग 80 % निवेश अंग्रेजों द्वारा भारतीय प्राइवेट बड़े पूंजीपतियों के द्वारा और सरकारी उद्यमों के अंदर किया जा रहा था।
परंतु बाद में, 1990 के बाद इसे खुली छूट दे दी गई, अर्थात इसपर से पर्दा उठा दिया गया। परंतु वर्तमान में जो आर्थिक मॉडल चलाया गया वह प्रत्यक्ष रूप से आपको यह बता कर चलाया गया कि हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं कि हम निवेश को बढ़ाएं। 2014 =15 के बीच भारत में 26% विदेशी निवेश की वृद्धि हुई। और ज्यादातर खर्च सेवा क्षेत्रों में किए गए, बड़े शहरों में, सड़कों में, हाईवे के निर्माण में तथा SEZ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) बनाने में किया गया।
ये सारे खर्च सिर्फ इस जुमले पर किया गया को इससे उत्पादन में भयानक वृद्धि होगी, हम दुनिया के एक्सपोर्ट हब बन जाएंगे,और चीन को पीछे छोड़ देंगे। चीन एक बड़ा ट्रंप कार्ड था जिसे सरकार द्वारा समय समय पर अपनी समस्या को छुपाने के लिए लगातार प्रयोग किया।
परंतु एक जबरदस्त बात जो डोकलम के विवाद के अंदर छुपा ली गई वह यह थी कि भारतीय राज्य जब कई ऐप और मोबाइल कंपनी बैन कर रही थी उसी समय, एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक से लार्सन एंड टूब्रो के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास हेतु फंड प्राप्त किए थे। इस विकास का एक छोटा सा अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पीपीपी मॉडल पर बनी बड़ी और चौड़ी आगरा -दिल्ली एक्सप्रेस वे की पूरी यात्रा में आम नागरिक को 1000 रूपये से ज्यादा टोल देना पड़ जाता है।
बात अभी भी वही पर आकर अटकी है कि अर्थव्यवस्था को हम अमूर्त रूप में समझें या मूर्त रूप में। आम जनता जिसे रोज के जीवन में खाने से लेकर दावा,पढ़ाई, सफाई जैसी मूलभूत चीजों पर खर्च करना है वह उसे अमूर्त रूप में चाहे तो भी नही समझ सकता है। वर्तमान में भारत की बेरोजगारी दर 7.9 % के आंकड़े को पर कर रही है। जिसमे बिहार में 14.5%, झारखंड में 12.8% हरियाणा में 28% के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है।
वहीं दूसरी तरफ आईएमएफ भारत की अर्थव्यवस्था के ठीक होने की लगातार बात कर रहा है परंतु ऐसा आईएमएफ क्यों कर रहा है? क्योंकि भारत इस बड़ी साम्राज्यवादी संस्था से एस्टूरिटी लोन भारी मात्रा में ले चुका है। ये वही लोन है जिसे लेकर 1990 में कांग्रेस सरकार ने भारत के बाजार को विदेशियों द्वारा लूटने की खुली छूट दी गई थी।
युवाओं को यह सब समझना होगा। क्योंकि बढ़ती हुई बेरोजगारी का सीधा प्रभाव युवाओं के ना केवल जीवन स्तर पर, अपितु सामाजिक,मनोवैज्ञानिक सभी स्तरों पर पड़ेगा। जहां एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी लोगों की खरीदने की क्षमता को घटा रही है वही इससे उत्पादन प्रक्रिया व्यापक स्तर से गिरेगा। लेबर कोड को इस वक्त लाना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि मजदूरों से जानवरों की तरह काम लिया जाए और उन्हें ऐसे बिना किसी सुरक्षा के मारने के लिए छोड़ दिया जाए।
वही उससे निकला मुनाफा पूरे तरीके से पूंजीपतियों की जेब में जाता रहे। यह एक प्रकार के सामाजिक अलगाव को भी व्यापक बना देगा। जहां युवा वर्ग अपने आप को संगठित करने के बजाए अपने अस्तित्व की लड़ाई एकाकी में लड़ने की ओर बढ़ेंगे। यह उनके सृजन की क्षमता को सीमित करेगा। साथ में मानसिक अवसाद को भी जन्म देगा।
भारत के अंदर की बढ़ती डिप्रेशन को समस्या और भयावह रूप ले सकती है जिसको मौका बनाकर यहां की दावा कंपनियां खूब पैसे बनाने का बाजार बढ़ाएंगी है। जैसा कि इस पूरे कोरोना कल में देखा भी गया है। औपचारिक प्रकार की नौकरी की स्थिति देश में पहले ही निम्नतर अवस्था में है जहां लगभग 90% आबादी कार्य कर रही है। यह एक बड़ी आबादी बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के,बिना किसी प्रकार के रिस्क कवर को लिए हुए कार्य कर रही है।
क्या करने की जरूरत है?
पूरी चेतना के साथ संगठित होने की अनिवार्यता है। आज यह व्यवस्था हमारे अलग होने के कारण हमें आराम से बांट पा रही है, लेकिन अगर कल हम एक होंगे और राजनीतिक चेतन से लैस होंगे तो हम खुद में भी एक शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे। हमे क्षेत्रीय स्तर पर समाज की समस्या को लेकर एक होना होगा और स्थानीय संसाधनों के विकास पर ध्यान देते हुए राज्य की तमाम गलत नीतियों का विरोध करना होगा। परंतु इसके लिए हम राज्य द्वारा दी गई पुस्तकों को बेहद क्रिटिकल तरीके से देखना होगा।
अर्थात हमें अपने अध्ययन सामग्री को आंकड़ों से ज्यादा विश्लेषण पर ले जाना होगा, मानने से ज्यादा जानने पर देना होगा। तभी हम इस मौजूदा व्यवस्था को चुनौती दे सकते है। जब तक सरकार द्वारा पकड़ाई गई किताबों को पढ़ते रहेंगे वह हमारे अंदर चेतन का विकास नहीं होने देंगी।
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