संस्मरण : ''मैं भंगी हूं '' आज भी प्रासंगिक

संजीव खुदशाह

 

सन् 1983-84 के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था। समाज के सक्रिय कार्यकर्ताओं की बैठक में, मैं भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील हैं ये जानकारी बाद में हुई) हैं, जो समाज के लिए भी काम कर रहे हैं।

मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुई, किन्तु यादा जानकारी नहीं मिल सकी। इस दौरान मैंने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, मुझे किताबें लाकर देते थे और मैं उन्हें पढ़कर वापिस कर देता था।

उन्होंने अमृतलाल नागर की '' नाच्यो बहुत गोपाला'' उपन्यास लाकर दी परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मैं पूरा न पढ़ सका । पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाएं थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मैं मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी।

इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी ''मै भंगी हूं'' इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़  डाली। मन झकझोर देने वाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थी, इसलिए इस किताब को मैं खरीद नहीं पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।

मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नहीं थी कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैं, जिनके बारे में मैंने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुध्दि जीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, जिन्होंने मैं भंगी हूं किताब की रचना की है। मैंने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखी, जिसमें मैं भंगी हूं की प्रशंसा की थी।

अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मैं स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई। नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। मैं नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे।

उन्होंने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर  पूछा कि -
'' तुम क्या करना चाहते हो..?  ''
''मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।''  मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपायेगें। मेरा उत्साहवर्धन करेगें।
''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुंच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगा, तभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो।

ऐसी उल्टी धारा तो मैने कही नहीं देखी।'' -उन्होने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया । 1998 में मुझे शासकीय नौकरी मिली, इसी बीच मैं सुदर्शन समाज, वाल्मीकि समाज के कार्य-मों में एक दर्शक की भांति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मैं इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैंने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया, मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई।

अब सुदर्शन ऋषि, वाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे? तथा अछूत कौन है? पढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता है, मुझे विश्वास हो गया। मैने अपनी चर्चित पुस्तक 'सफाई कामगार समुदाय' पर काम करना प्रारंभ किया। कई किताबों, लाइब्रेरियों की खाक छानी बुध्दिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात अधिवक्ता भगवानदास से हुई।

मैंने पहले उनसे फोन पर बात की, उन्होने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वाले, उची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे है। मैने उन्हे बताया कि मै उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी। अभी मै इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी। मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया।

उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मैं ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे। उनका व्यवहार, उनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी। वे कह रहे थे लिखने-विखने मे मत पड़ो और खूब पढ़ो। उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई। मैंने उनको नोट किया। ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थी।

उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगे, इनसे किताब के पैसे जमा करा लो। मैंने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका। यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछा, लेकिन वे टाल गये। शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें। मै लौट आया।

इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी  ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। 2005 को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन 2007 को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया। दिल्ली में हुए इस कार्यम में एड. भगवानदास जी भी आये थे।

मैंने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण - शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में 'मै भंगी हूं' किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नही था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।

जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे। आज मै अपने - आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला।

स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा-
संजीव खुदशाहजी, आप ही हैं न..?''
'' जी हां'' - मैंने कहा हां ।
'' मैंने आपकी किताब देखी, बहुत ही अच्छी लिखी है आपने । इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।''  -  उन्होंने कहा ।
इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा - '' आदरणीय इस किताब में आपका भी जि है। मैंने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।''

वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थे, साथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे। आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध है, वह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)।

फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते है कि मैं भागवतशरण उपध्याय की '' खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर'' पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं'' आज भी प्रासंगिक है।


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