माओवाद की मानवीय पड़ताल

उत्तम कुमार

 

2006 में नक्सली मामलों पर सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी डी बंधोपाध्याय की अध्यक्षता में गठित योजना आयोग की समिति की रपट में भूमि हस्तांतरण, आदिवासियों एवं दलितों में व्याप्त गरीबी और मूल वन उत्पादों तक उनकी पहुंच न होने को माओवाद के विकास का कारण माना है।

‘आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास के लिए चुनौतियां’ नामक रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के सलवा जुडूम को कटघरे में खड़ा किया गया था।

साथ ही विशेष आर्थिक क्षेत्र की आलोचना करते हुए इसमें पंचायत राज (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार कानून 1996 और वन (संरक्षण) कानून, 1980 जैसे शासकीय प्रावधानों की असफलता को भी रेखांकित किया गया है।

यहां यह जोडऩा उचित होगा कि यदि 5 वीं अनुसूची को आदिवासी क्षेत्रों में लागू कर दिया जाए तो बहुत हद तक इस समस्या से निजाद पाया जा सकता है। लेकिन जानकारों का कहना है कि यह अनुसूची वास्तव में संविधान में बताए गए राज्यों में लागू ही नहीं है जो निश्चित रूप से भारतीय संविधान का उल्लंघन करता है। 

रपट में पड़ताल के प्रमुख मुद्दों में अशांत क्षेत्रों में जारी तनाव, विस्थापन की प्रक्रिया एवं बड़े पैमाने पर विस्थापन, वन संबंधी मामले, असुरक्षा की भावना और शोषण के अन्य तरीकों, कारणों की पहचान एवं पेसा को लागू करने के लिए विशेष प्रावधानों की आवश्यकता बताई गई है।

समिति के अन्य सदस्यों में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिर्देशक प्रकाश सिंह, सतर्कता ब्यूरो के पूर्व निर्देशक अजित डोवाल, सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी बीडी शर्मा, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोरात व मानव अधिकार अधिवक्ता के बालगोपाल शामिल थे।

अध्ययन सिर्फ आंतरिक सुरक्षा को लक्ष्य न करते हुए समस्या के प्रत्येक बिंदु पर अध्ययन के लिए लक्षित था। बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल व छत्तीसगढ़ जैसे अपेक्षाकृत कम सम्पन्न राज्य जहां अनुसूचित जाति व जनजाति की आबादी की बहुतायत है वहीं नक्सली आंदोलन के पनपने की ज्यादा संभावनाएं होती हैं।

रपट एक महत्वपूर्ण आवश्यकता की अनुशंसा करती है जिसके अनुसार एक ऐसी सर्वमान्य रपट तैयार की जाए जो अधिकारियों, समाज और आमजन हेतु वस्तुस्थिति को न सिफ ठीक ढंग से प्रस्तुत करती हो बल्कि विगत 5 दशकों से भारत के ग्रामीण इलाकों में जारी हिंसा से निपटने के तरीकों की सिफारिश भी करती हो।

रपट के अनुसार माओवाद के बढऩे के पीछे भूमि संबंधित असंतोष प्रमुख वजह है। यह एक और बात रेखांकित करती है कि नक्सलियों ने भी निजी भूमि पर गरीबों के स्वामित्व की दिशा में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की है।

हजारों एकड़ भूमि अब भी व्यर्थ पड़ी है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह कानूनी रूप से भूमिहीनों को ऐसी भूमि पर हक दिलाने के लिए कोई ठोस योजना तैयार करें।  इसके लिए वह विभिन्न कानूनों को सख्ती से लागू करें जिससे स्थानीय निवासियों को भूमि संबंधित और अन्य वाजिब हक मिल पाएं। 

समिति ने अनुसूचित जाति-जनजाति के हितार्थ गठित विभिन्न आयोगों के बीच समन्वय और निगरानी की अनुशंसा की है। वह इन निकायों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान और सहयोग से ऐसी कार्य योजना की सिफारिश की अनुशंसा भी करती है जिस पर अमल की बाध्यता राज्यों के मुख्य मंत्रियों पर भी हो।

कमजोर तबके के आर्थिक उत्थान के लिए समिति ऐसे ऋणों, जिसमें मूलधन के बराबर चुकारा हो चुका हो अथवा जिस उद्देश्य से ऋण लिया गया था उसमें सफलता प्राप्त न हुई हो, को माफ किए जाने की भी सिफारिश करती है।

रपट कहती है कि भूमिअर्जन कानून में सार्वजनिक प्रयोजन का तात्पर्य राष्ट्रीय सुरक्षा एवं जनहित मामलों तक ही सीमित कर दिया जाए एवं कम्पनियों, सहकारी संस्थाओं और पंजीकृत संस्थाओं के अर्जन मामलों को इससे पृथक रखा जाए।  

रपट भूमि अर्जन (संशोधन) विधेयक 2007 के संशोधनों पर भी प्रश्रचिह्न लगाती है। यानी की रपट वर्तमान भूमि अधिग्रहण कानून 2014 पर भी सवाल उठाती?

इन्सटीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एण्ड एनालिसिस के निहार नायक का कहना है कि अनुसूचित जातियों जनजातियों के द्वारा उपयोग में लाई जा रही कृषि भूमि के सर्वे का काम काफी समय से बाकी है, इसके सम्पन्न होने से उन्हें भूमि पर कानूनी हक दिलाया जा सकेगा।

समिति ने सुझाव दिया है कि पीसा द्वारा विस्थापन को रोकने के लिए ग्राम सभाओं को दिए गए अधिकारों को अनुसूचित जाति-जनजाति तक बढ़ाना चाहिए। क्योंकि राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में विभिन्न आयोगों ने इसके लिए अनुसूचित क्षेत्र का पैमाना निर्धारित किया है। 

आलोचकों का मत भिन्न है उनका कहना है कि रपट आतंकवाद की उचित व्याख्या नहीं करती है। यह सिर्फ वापमंथी आतंकवाद पर ही ध्यान दे रही है। जबकि उत्तरपूर्व और जम्मू कश्मीर में भी समस्या का स्वरूप यही है।

इन्सटीट्यूट फॉर कानफ्लिक्ट्स मैनेजमेंट दिल्ली के कार्यकारी निर्देशक अजय साहनी तो यहां तक कहते हैं कि इसमें सिर्फ पुराने समाधानों की पुनरावृत्ति है, जमीनी सच्चाई का इसमें भी ध्यान नहीं रखा गया है। लेकिन बंदोपाध्याय का कहना है कि माओवाद योजनाकारों की अदूरदर्शिता का परिणाम है। लगातार विस्थापन ने लोगों को हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया है।

मूलत: यह प्रशासनिक समस्या न होकर सामाजिक-आर्थिक समस्या है। 

सोसायटी फॉर स्ट्डी ऑफ पीस एण्ड कॉन्फ्लिक्ट्स के कार्यकारी निर्देशक अनिमेश राओल कहते हैं कि रपट उस तथाकथित वैचारिक आंदोलन के बढ़ते आपराधिक स्वरूप में नक्सलियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के दुरूपयोग और बलप्रयोग पर कोई टिप्पणी नहीं करती।

साथ ही यह स्थानीय कमजोर तबके की महिलाओं एवं बच्चों के शोषण की ओर ध्यान नहीं देती है।

समिति के सदस्यों का मानना है कि नक्सलियों के साथ बातचीत की जानी चाहिए। जब उल्फा और कश्मीरी आतंकवादियों के साथ सरकार बातचीत कर सकती है तो इनके साथ क्यों नहीं?

मई 2006 में गृह मंत्रालय द्वारा तैयार कराए गए दस्तावेज में स्पष्ट कहा गया है कि नक्सलवादियों से कोई बातचीत नहीं की जानी चाहिए। इस धारणा पर आज भी गृह मंत्रालय अडिग है। 

एकता परिषद के रमेश शर्मा का कहना है कि जनजातीय और पारम्परिक वनवासी कानून का उचित क्रियान्वयन हो जिससे आतंकवाद प्रभावितों के पुनरोत्थान का मार्ग सुगम हो सके। समिति का मानना है कि ऐसी परिस्थिति में सलवा जुडूम को तर्क संगत नहीं ठहराया गया था।

सलवा जुडूम के प्रवर्तक व कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा भी मृत्यु से पूर्व इस मामले को नियंत्रण से बाहर मानने लगे थे। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री एवं पुलिस प्रमुख अलबत्ता भिन्न राय रखते हैं।

उधर दूसरी ओर स्वतंत्र पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी के अनुसार शिविरों में परिस्थितयां न  सिर्फ अस्वास्थ्यकर हैं वरन उनके नैसर्गिक जीवन से काफी भिन्न भी हैं। एकता परिषद के शिवनारायण का मानना है कि सलवा जुडूम ने कुछ अच्छा करने के बजाए नुकसान ही ज्यादा किया है।

ग्रामवासी अब वनों की ओर लौट रहे हैं जहां उन्हें नक्सलियों से खतरा है। हालात ये हैं कि शिविर सूनसान पड़े हैं और जो आदिवासी गांवों को लौट रहे हैं उन्हें सुरक्षाबल अपना निशाना बना रहे हैं।

समिति ने सलवा जुडूम को खत्म करने की सिफारिश की थी क्योंकि इससे राजनीति में अपराधीकरण, लोगों में मानवीयता की कमी, सुरक्षाकर्मियों के मनोबल में कमी और सबसे महत्वपूर्ण राज्यसत्ता को चुनौती जैसी बुराईयां पनपी हैं। समिति का कहना है कि जबरिया विस्थापन की वजह से रिक्त हुई भूमि पर उद्योग कब्जा कर लेते हैं।

अत: रपट में लोगों के हितों की रक्षा एवं शिकायतों के निराकरण हेतु एक अधिकार सम्पन्न कार्यबल के स्थापना की सिफारिश की गई है और इसकी सहायता के लिए सरकारी स्तर पर ऐसे जनभागीदारी समूहों के गठन की अपेक्षा की गई है जो स्थानीय निवासियों से व्यक्तिगत रूप से परिचित हों और उनके साथ हमदर्दी रखता हो।

योजना आयोग ने उस समय आशा जताई थी कि चुनावी वर्ष होने से सरकार वार्ता शुरू करने की दिशा में कदम उठाएगी। वार्ता के समय इस बात का भी ख्याल रखा जाना होगा कि असंतोष की वजहें विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न हैं, जैसे आंध्र, बिहार और तमिलनाडु में भूमि से बेदखली और जातिगत वैमनस्य की समस्या है तो उड़ीसा व छत्तीसगढ़ में जनजातीय विस्थापन, जंगलों के घनत्व में कमी और वृहद स्तर का औद्योगिकरण समस्या है, वहीं महाराष्ट्र में कृषक आत्महत्या का मुद्दा प्रमुख है।

समिति के सदस्य तो माओवादियों को खनिज संपदा में हिस्सा देकर मुख्यधारा से जोडऩे की वकालत करते हैं। योजना आयोग के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है इससे वे अपनी भूमि की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो जाएंगे। हालांकि यह भी देखना होगा कि ऐसा होने पर वे भी ठेकेदारों की तरह भ्रष्ट न हो जाएं। 


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