“उन्होंने अलगुराम की भावनाओं को कैद कर रखा है”
नये समय की कहानी
निशांत आनंदउस किताब ने उसे अंदर तक हिला कर रख दिया था। इसी बीच कश्मीर के विशेष अधिकार को भारतीय राज्य द्वारा समाप्त कर दिया गया था और सारे अखबारों में वह सुर्खियों में था। कुछ लोगों ने मिलकर राष्ट्रीयता के मुद्दों को उठाते हुए एक डिस्कशन का आयोजन किया था और वह लड़का अलगु को फिर से मिल गया और उसने डिस्कशन को जॉइन करने को कहा। अलगु ने किताब के लिए धन्यवाद करते हुए खुद को उस कार्यक्रम में शामिल होने से नहीं रोक सका। उसे पहली बार खुद को रीस्ट्रिक्ट न करके खुशी मिली थी। उस पूरी चर्चा में राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भवन पर लोग अपनी बात रख रहे थे।

“जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता”। बचपन से शायद कितनी ही बार हमने इस गीत को सुनकर खुद को गर्व से चौड़ा कर लिया कि इस संप्रभु संपन्न ‘राष्ट्र’ में हम ही तो हैं भाग्य विधाता। पंजाब से लेकर गुजरात तक हम एक ही तो हैं। अनेक बोली भाषाओं, जातियों, वर्गों, मान्यताओं के परे जाकर भी हम एक हैं।
जब भारत की नीली जर्सी पहने सचिन तेंदुलकर शोएब की बाल पर चौका मारता है तो मानो विश्वविजय वाली अनुभूति उन्ही 5-7 सेकंड में हो जाती है। भारत की राष्ट्रीय एकता अचानक से हिलोड़े मारने लग गई। अमिताभ बच्चन की भारी आवाज और अदाकारिता के किस्से तो हम अपने पेट से ही सुनते आ रहे हैं। इसके अलावा उनके पिता की बड़ी लेगसी के किस्से कुछ इस तरह चर्चा-ए-मान हैं कि जो कभी मधुशाला नहीं भी गया हो वह अपने "ईमोशनल कोरोना" की remdesivir ढूंढ लेते हैं।
“बाप रे बाप जब फलाना बाबू बोलने लगते हैं तो धाराप्रवाह बोलते रह जाते है, किसी भी विषय पर बात करने को कह दीजिए, रुकते ही नहीं है भाई। प्रकांड विद्वान हैं”। ऐसी कहानियाँ सुनकर जब अलगुराम बचपन से आगे कदम बढ़ाते है तब तक उनकी भी मनोवृत्ति ऐसे प्रकार के छवि की कल्पना करने लगती है जैसे हमारे दिमाग में अवचेतन अवस्था में डाल दिया गया है। अर्थात हमे अभी तक उन सारे ‘सद्गुणों’ का कुछ भी चेतनशील स्तर पर नहीं पता है।
इसके बाद इसी सपने को सँजोए युवा अलगुराम निकाल पड़ता है उन सारी कहानियों को साकार करने जिसने उसके बालक होने से युवा अवस्था तक सपनों का आधा से ज्यादा जगह को खा लिया है। पर यहाँ पर ये बताना बहुत जरूरी है कि यहाँ वैसे युवा की बात हो रही है जिनकी ऐसी सामाजिक आर्थिक दशा है कि वह अपने अमूर्त स्वप्न को पूरा करने की स्थिति में हैं।
समाज का एक बहुत बाद धड़ा ऐसा है जिसे ऐसे स्वप्न कभी नहीं आए। शायद आप ये समझ पाएंगे कि उनके सपने की सीमा क्यों रही होगी। पर अलगुराम किसी दूसरे सपनों की जानकारी के आभाव और शायद उसके प्रति कोई सरोकार न होने के कारण निकाल पड़ता है अपने गाँव से दूर किसी शहर में जहां जरूरत से ज्यादा रौशनी है, पड़पड़ाते बुलेट, डूड फिगर वाले लड़के।
फिर अलगु फौरन खुद को एक कमरे में बंद करके उन सपनों को याद करता है जो वह गाँव में देख रहा था, जिससे उसके घर परिवार की इज्जत से लिए माँ की ममता, पिता का स्नेह सब जुड़ चुका है। फिर वह खुद को फैक्ट रटने में तल्लीन कर लेता है। अब वह उतना ही सुनता है, देखता है, जितना उसके सपनों को पूरा करने के लिए बड़ी - बड़ी संस्थाओं द्वारा सुझाया गया है।
अलगु के बारे में एक और खास बात ये है कि वह बचपन से शिक्षकों का दुलारा है और शिक्षक की भरपूर इज्जत करता है। और उसे इस बात का पता है कि ऐसा करने से शिक्षक बहुत मानते है और विशेष प्रकार से केयर भी मिलता है। अलगु वैसा ही यहाँ भी करता है। अलगु ने बचपन से यही देखा है कि जो पोस्ट पोज़िशन में ऊपर हों घर में दफ्तरों में खूब इज्जत करते है घर वाले भी और बाहर वाले भी।
अब अलगु धीमे धीमे कुछ गिने चुने किताबों की जानकारी के आधार पर समाज में कौन सही है और कौन गलत है इस पर तर्क करने योग्य खुद को मानने लगा है। उसने जो विद्वान की परिभाषा घर पर सुनी थी उस हिसाब से उसके पास भी विषयों के बहुत सारे फैक्ट थे और वह अब हर तरह की बात में प्रतियोगिता को सूंघ लेने की अद्भुत क्षमता प्राप्त कर चुका है। पर अलगु अभी भी अलगुराम ही है क्योंकि वह आज तक अपने गिने चुने लोगों की पार्टी वर्ल्ड से आगे की सच्चाई से अनजान था।
और जो उसने पार्टी वर्ल्ड के बारे में भी जाना था वह भी उसका जो अभी की समझ का विकास हुआ था उस आधार पर था, पर उस समय के लिए वह उसका पूरा सच था। अलगुराम उस नौकरी को लेके वह सब करना चाहते थे जो उन्हे लगता था की गलत है और उसे ठीक करना है। जैसे भ्रष्टाचार हटाना, पेड़ पौधे लगाना, जो उन्हे लगता था कि बिना वहाँ गए मिलना मुश्किल है।
खैर, अलगु अब चूंकि शहर में आ चुके थे तो शहरी संस्कृति के प्रभाव से बिल्कुल पृथक नहीं हो सकते थे, जो एक सामाजिक प्राणी होने के नाते बिल्कुल स्वभाविक था। इसी ऊपर नीचे के बीच,गर्मी का मौसम आ गया था। सुराही की पानी की तलब उन्हें कुम्हारों के बस्ती तक ले आई। वहाँ उन्होंने मोल भाव करके 120 रुपए तक मामले को सेट किया। उतने में बच्चे पर नजर पड़ी जो 10 साल का रहा होगा।
अलगु ने उसकी माँ से पूछा कि “यह किस क्लास में है, कहाँ पढ़ता है?” माँ ने जवाब दिया कि सरकारी स्कूल जाता है पर कुछ जानता है या नहीं मुझे कुछ पता नहीं”। अलगु ने छठी की एनसीईआरटी से 10 प्रश्न पूछ दिए, किसी का जवाब नहीं मिला। फिर दिमाग में आया कि यह पढ़ता ही नहीं होगा। नहीं तो इतने सरल सवाल इसे जरूर आते। अलगु ने राइट टू एजुकेशन, आर्टिकल 24 (a,b) सब पढ़ रखा था और ये भी जानते थे की 1986 में इसे लागू किया गया था।
फैक्ट मशीन ने थोड़ा अपने काले अक्षरों से बाहर आकर ‘फैक्ट फाइन्डिंग’ करने की ठानी। वैसे उसे यह बात भी सता रही थी कि कहीं उसके साथ वाले प्रतिभागी इन कुछ घंटों में ज्यादा न पढ़ लें। पर उसने अब पहली बार तो अपनी चेतन के दूसरे छोर से आ रहे अंतर्विरोध को सुना था तो इग्नोर नहीं कर सका। फैक्ट फाइन्डिंग का परिणाम आ गया था ज्यादातर छात्रों ने उसके 1986 वाले डाक्यमेन्ट के वादों के हिसाब से काफी पीछे प्रदर्शन किया था।
वह निराश था पर उसके दिमाग में तभी यह आया की टीचर भ्रष्ट हैं। फिर शाम में वह टहलने निकला तो कुछ बच्चे तख्ती पकड़े विश्वविद्यालय के आगे खड़े थे जिसपर लिखा था “विश्वविद्यालय प्रशासन मुर्दाबाद”, “कॉपी की री चेकिंग करनी होगी”। उन्होंने पूछा कि भाई क्या हो गया है सड़क जाम करके क्यों रखे हो? प्रोटेस्ट करना तो लोकतान्त्रिक अधिकार है आप कैम्पस के अंदर करिए प्रदर्शन, आर्टिकल 19 पढिए। “सिर्फ तख्ती लेके खड़े होने से क्या होगा”। उतने देर में पुलिस वालों ने लाठी चार्ज कर दी।
अलगु खुद को पहली बार अलग नहीं कर पाए और पुलिस वालों से पूछने गए कि आप ऐसे कैसे मार सकते हैं? हम FIR करवाएंगे आपके खिलाफ और न्यायालय आपको सजा देगी। “नहीं तो मूल अधिकार की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय सीधे जाया जा सकता है। खैर तमाम धाराओं और आर्टिकल की तालिम के बाद भी अलगु को 3 लाठी पड़ चुकी थी। “घर में तो सब पुलिस वालों से सही तालमेल है”। सब हो चुका था हाँ एक बात और FIR नहीं लिखा गया था और पुलिस वाला ज्यादा बोलने पर अंदर डालने की धमकी दे रहा था।
अब बेइज्जती भी लग रही थी कि पीट गए थे। फैक्ट के लिए ही सही गाँव में लोग इज्जत तो करते थे पर यहाँ तो सब बेकार हो गया। खैर हम अकेले नहीं पीटे थे लगभग सब पीटकर चाय पी रहे थे। वहाँ सिस्टम की बात हो रही थी। तमाम तरह के अलग अलग प्रकार की व्यवस्था से वर्तमान व्यवस्था की तुलना की जा रही थी। और बोल रहे थे कि विश्वविद्यालय अब कहीं से भी विचारों के आदान प्रदान का केंद्र नहीं रहा।
हम फासीवाद के दौर में हैं जहां राज्य पूरे तरीके से तानाशाही हथकंडों को अपना कर सभी प्रकार की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को समाप्त कर देगा। इन सारी बातों के बीच अलगु पहली बार बोल कम और सुन ज्यादा रहा था। आज पहली बार जो उसने पढ़ा था उसे याद कर रहा था। पहली बार वह लकीरों के पार जाकर सोच रहा था। और वह जहां था वह एक स्तर का सच था और वह ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। इतने में एक लड़का आता है और पूछता है कि ‘आपको ज्यादा चोट तो नहीं आई।
मैं आपके पीछे ही था तो मुझे लगा आपको ज्यादा पड़ गयी’। अलगु ने उससे पुछा आप तो सही डिमान्ड रख रहे थे फिर भी आप लोगों से बात करने के बजाए लाठी चलाया गया। यह पूछने के दौरान उसके कानों में बस एक गीत बज रही था “जन गण मन अधिनायक जय हे”। इतने में उसने अपने बैग से एक किताब निकली जिसपर लिखा था “आइडिया एण्ड इडिओलोजीकल ऐपरेटस ऑफ स्टेट” । उसने अलगु से कहा आप इसे रख लीजिए मेरे पास दूसरी है। उसे थैंक्स बोलकर वहाँ से अलगु चल गया और उस पूरी किताब को उसने रात भर में पढ़ लिया क्योंकि उसकी आंतरिक अंतर्विरोध उसी दिशा में मजबूत था।
उस किताब ने उसे अंदर तक हिला कर रख दिया था। इसी बीच कश्मीर के विशेष अधिकार को भारतीय राज्य द्वारा समाप्त कर दिया गया था और सारे अखबारों में वह सुर्खियों में था। कुछ लोगों ने मिलकर राष्ट्रीयता के मुद्दों को उठाते हुए एक डिस्कशन का आयोजन किया था और वह लड़का अलगु को फिर से मिल गया और उसने डिस्कशन को जॉइन करने को कहा। अलगु ने किताब के लिए धन्यवाद करते हुए खुद को उस कार्यक्रम में शामिल होने से नहीं रोक सका। उसे पहली बार खुद को रीस्ट्रिक्ट न करके खुशी मिली थी। उस पूरी चर्चा में राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भवन पर लोग अपनी बात रख रहे थे।
तभी अलगु के मोबाईल पर दो नॉटिफिकेसन आते हैं। “कश्मीर को ओपन जेल में तब्दील कर दिया गया है और सारे बाहरी संपर्क काट दिए गए हैं अनुमान लगाया जा रहा है कि सेना ने पूरी तरह से क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया है” दूसरे नॉटिफिकेसन में सचिन तेंदुलकर का बयान लिखा है जिसमे वह समस्त देश को कश्मीर मिलने की बधाई दे रहे थे और कश्मीर के लोगों के बारे में एक शब्द नहीं कहा। अलगु को फिर से सचिन के मैन ऑफ द मैच वाला इंटरव्यू याद आ रहा था जिसमे उसके शरीर के सारे रोएं उस राष्ट्र प्रेम से भर के खड़े हो गए थे।
अलगु के प्रस्थान का समय आ चुका था, जहां वह फैक्ट से अनैलिसिस की ओर जा रहा था, आदर्शवाद और आध्यात्मवाद से भौतिकवाद की तरफ, ठहराव से गतिशीलता की तरफ, स्ट्रक्चर को डिस्ट्रक्चर करने की तरफ, राज्य से जनता की तरफ बढ़ रहा था। आज अलगुराम खुद को पहचानने से बिलकुल अलग नही है। आज अलगु, अलगु नहीं है।
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