आपदा में एका की बजाय टकराव का खतरा झेलता हुआ देश
डॉ. दीपक पाचपोरकिसी भी देश में अच्छे और बुरे दिनों के आने-जाने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। विशेषकर उन देशों में जहां के समाज में विभिन्न विचारधाराएं और मान्यताएं अंतर्गुंफित होती हैं या काल चक्र के साथ उनमें बनती-बिगड़ती रहती हैं। प्रदीर्घ इतिहास वाले देशों में अनेक अपनी अंदरूनी विसंगतियों और अंतर्विरोधों को न्यूनतम करते हुए एक स्थायित्व को प्राप्त कर लेते हैं परन्तु जिस समाज या देश में परस्पर विपरित या विभिन्न गुण-धर्मों की सैद्धांतिकियों के बीच संघर्ष लम्बे खिंचते हैं वे अपने आप में कई-कई टकराहटों को जन्म देते रहते हैं।

इन परिस्थितियों के नफे-नुकसान दोनों ही होते हैं- निर्भर करता है कि समाज को नियंत्रित करने वाली शक्तियां समन्वयवादी होती हैं या विभाजनकारी। अगर काल विशेष की सत्ता समन्वय प्रधान है तो समाज के विभिन्न धड़ों में सामंजस्य और सौहार्द्र का स्वर मुखर होगा और सामूहिक विकास की भावना विकसित होगी; परन्तु यदि उसमें विभाजनकारी प्रवृत्ति बलवती है तो समाज और देश सामान्य दिनों में भी एक कमजोर और विघटित मानव समूह बन जाता है- जो आंतरिक या बाह्य चुनौतियों या आपदाओं के दौरान अधिक खंडित, हिंसक, विकास विरोधी और ज्यादा अमानवीय रूप धारण कर लेता है।
सम्पन्न, विकसित और लोकतांत्रिक रूप से वयस्क हो चुके देशों ने पिछले कुछ समय से अपने सामाजिक और आर्थिक आवरणों को इतना मजबूत बनाया है कि उन्हें एक तरह से सातत्य व टिकाऊपन प्राप्त हो चुका है, जो उनके नागरिकों के अधिकारों को न केवल संरक्षित करने की प्रणाली बन गयी है बल्कि उन्हें लगातार सशक्त भी बना रही है। ऐसा नहीं है कि वहां कोई आंतरिक टकराव आए ही न हों, पर उन्होंने अपनी शक्तिशाली शासन प्रणाली के बल पर इन संघर्षों पर काबू पाया है। लोकतंत्र के प्रति आस्थावान शासक वर्ग व सियासती दल, अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक नागरिक, स्वायत्त व शक्तिशाली संस्थाएं ऐसे राष्ट्रों की आदारभूत विशेषताएं हैं।
देश और समाज के रूप में; विशेषतः बतौर नागरिक सशक्त बने रहने का मंत्र उन्होंने पा लिया है। विभिन्न तरह के मानवीय समूहों एवं वैचारिक बहुलता को हजम करते हुए देश को बचाये रखने का गुर उन्होंने पा लिया है। दो विश्व युद्धों से गुजरकर यूरोप ने जो सबक पाये, उसी का परिणाम है कि उसके देशों ने दूसरे महासमर (1939'945) के बाद लड़ाइयों से तौबा कर ली, जिनका जन्म वैचारिक टकरावों से ही हुआ था। जो यूरोप कभी दुनिया में सबसे बड़ा ‘वॉर जोन’ था या अनेक महाद्वीपों में सैन्य संघर्षों का जनक था, उसने न केवल आपस में लड़ाइयां न करने का एक अघोषित शांति फार्मूला स्वीकार कर लिया है बल्कि यूरोपियन यूनियन जैसा संगठन बनाकर अपनी दशा सुधारने का खाका भी रच दिया है।
कहना न होगा कि ज्यादातर यूरोपीय देशों के इस तौर-तरीके ने उसके अधिकतर देशों के नागरिकों के जनजीवन को प्रशंसनीय ढंग से सुधारा है। वे गलतियों को ठीक करना भी जानते हैं। अमेरिका इसका उदाहरण है। डोनाल्ड ट्रम्प को चार साल आजमाने के बाद उन्हें दूसरा मौका नहीं दिया गया।
तृतीय विश्व कहे जाने वाले अधिकतर देशों में बाह्य के साथ अंदरूनी संघर्ष एक तरह से अनवरत प्रक्रिया है। इसका एक कारण शायद यह हो कि ऐसे मुल्कों का इतिहास बहुत पुराना है जहां विभिन्न विचारधाराएं और मान्यताएं लम्बे समय से उभरती या विलीन होती रही हैं। कभी धर्म या सामंतवाद प्रमुख शक्ति था पर विश्व में लोकतांत्रिक प्रणाली के उदय होने के बाद उसने सामाजिक और आर्थिक शक्तियों को अपने नियंत्रण में ले लिया है। यहां तक कि सांस्कृतिक शिकंजे को भी उसने ढीला कर यह नागरिकों के सोच-विचार और अमल का विषय बना दिया है।
यानी आचार-व्यवहार में राज्य ने अपना हस्तक्षेप लगभग समाप्त कर दिया। इस परिप्रेक्ष्य में अगर पिछला कम से कम ढाई हजार साल का भारत या इस उपमहाद्वीप का ही इतिहास देखें तो इसके विकास में अनेक आश्चर्यकारी घटनाक्रम हुए हैं। बाहरी धर्मों का भारत की मूल आस्थाओं के समानान्तर यहां चलते जाना व लोगों द्वारा उनकी उपस्थिति को उदारमना स्वीकारना या यहीं के सबसे बड़े धार्मिक विश्वास से निकलकर कई और मान्यताओं का उदय और उन्हें भी वैसा ही आदर दिया जाना शायद ही किसी और समाज में सम्भव होगा। इन विभिन्न वैचारिक अवधारणाओं के उदय और उसकी विकास यात्रा ने निश्चित ही कुछ लोगों को उद्वेलित किया है, लेकिन बहुसंख्य ने उन नयी या बाहर से आने वाली मान्यताओं को आदरपूर्वक अपनी पंगत में स्थान दिया है।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत की इसी महानता को रेखांकित करते हुए बतलाया है कि बाहरी विचारधाराओं का आगमन ही देश के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। शायद भारत की इस तासीर को ख्याल में रखते हुए इस उपमहाद्वीप की राजनैतिक शक्तियों ने लोगों की आस्थाओं का हमेशा ख्याल रखा है। हां, यह भी सच है कि हमारे राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक विचारों की विशाल पोटली में कई ऐसी वैचारिक पुड़िया भी निकली हैं जो टकराव को सामंजस्य के मुकाबले अहमियत देती रही हैं।
सौभाग्य से ये विचारधाराएं हमेशा पराजित होती रही हैं। इतिहास देखें तो भारत भी अनेक वैचारिक संकटों और तदजन्य आपदाओं से गुजरा है। इनके कारण कई बार अंतर्निहित रहे हैं या वे बाह्य कारकों के परिणाम थे। अपनी आंतरिक समन्वयवादी वैचारिक बुनावट के बल पर ही इस समाज की वह मानसिक संरचना अक्षुण्ण रही है जो टकराव की जगह पर एकीकरण को तरजीह देती है। एकता का आधार प्रेम है तो विभाजन को खुराक घृणा से मिलती है।
सहज व स्वतःस्फूर्त रूप से एक संगठित समाज का निर्माण उदारता से होता है तो वैचारिक कट्टरता शक्ति व दमन के बल पर जोड़ा गया समाज बनाती है, जहां शांति और सामूहिक विकास की कल्पना ही नहीं होती।
इतिहास में बहुत पीछे गये बगैर अगर आजाद भारत की ही बात की जाये तो पीड़ादायक विभाजन, उसके बाद मानव इतिहास के सबसे बड़ा व दर्दनाक विस्थापन-पुनर्वास, पड़ोसी मुल्कों से करीब आधा दर्जन युद्ध, अकाल, बाढ़ें, मंदी के दौर जैसे कई संकटों से भारत दो-चार हुआ है। इसके बावजूद भारत एक रहा। ऐसा नहीं कि इन आपदाओं में विभाजनकारी शक्तियां सक्रिय नहीं रहीं। सच तो यह है कि स्वतंत्र, आधुनिक, विकसित, समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की उसकी यात्रा में ये विचार हमेशा से अवरोध उत्पन्न करते रहे हैं।
बड़ी बात; और संतोष की भी यही रही कि सत्ता और समग्र समाज पर उस विचारधारा का प्रभावी नियंत्रण नहीं रहा। जो भारत संकटों में एक रहा वह आज आपदा में अधिक विभाजित, हिंसक और अमानवीय होता जा रहा है। पिछले कुछ समय के शासकीय निर्णय अगर हम देखें तो वे न केवल अविवेकपूर्ण और अदूरदर्शी रहे हैं बल्कि समाज के कमजोर वर्गों पर भीषण अत्याचार करने वाले भी साबित हुए है। गरीब, साधनहीन, निम्न व मध्य वर्ग, महिलाएं, अल्पसंख्यक, आदिवासी जैसे समूहों के लिये यह विशेष रूप से पीड़ादायी रहा है।
आज के राजनैतिक आकाओं ने मानव के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी आपदा यानी कोविड 19 के काल में निर्मम प्रशासन, परपीड़क जनसमूह और बेहद स्वार्थी कारोबारी वर्ग तैयार किया है, जो अपनी इन प्रवृत्तियों को सतत सघन और गाढ़ा कर रहा है। दुर्भाग्य से अपनी संकुचित आकांक्षाओं के चलते इन प्रवृत्तियों के समर्थक नहीं जानते कि वे अपने पीछे एक ऐसा समाज छोड़कर जायेंगे जिसमें उनकी भावी पीढ़ियों के पास खोखला श्रेष्ठीय दंभ, विभाजित समाज और अंतहीन टकरावों के सिवा कुछ भी नहीं होगा।
यह ऐसी स्थिति है जिसमें संघर्षो और टकरावों को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन का बोलबाला है। जो देश की ताकत थी, उसे कमजोरी मानकर सारी राजनैतिक ताकतें उसी मैदान में खेल रही हैं। भारत का अब तक का संघर्ष ‘विभाजन बनाम समन्वय’ था लेकिन अपना रास्ता भूले अधिकतर राजनैतिक धड़े इस संघर्ष को ‘विभाजन बनाम अधिक विभाजन’ बना रहे हैं।
एक तरह से यह विभाजनकारी राजनैतिक शक्तियों के बीच का संघर्ष है, जो अधिक खतरनाक है, क्योंकि स्वाभाविकतः इसमें ज्यादा बड़े विभाजनकारी गुट को जीत मिल रही है। शायद यह जीत तब तक जारी रहेगी जब तक कि स्वयं जनता का विवेक जाग्रत न हो जाये।
समाज में समन्वय-सौहार्द्र की अहमियत समझने वाले लोगों का यही कर्तव्य है कि वे समाज की उस शक्ति को पुनर्जागृत करने के प्रयास जारी रखें, जिसे कभी बुद्ध तो कभी कबीर या फिर हाल के वर्षों में महात्मा गांधी ने जगाया था। वर्तमान में सौहार्द्र व समन्वय को परिपोषित करने वाली छोटी सी ही सही पर उस विवेकपूर्ण, उदार और मानवीय विचारधारा को लुप्त होने से बचाना होगा जो इस महान देश के अस्तित्व व पहचान का आधार रही है।
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