उठते समस्याओं के गर्भ में ही है निराकरण  

निशांत आनंद 

 

भारत आज जिस अत्याचार और समस्या से ग्रस्त है और आम आदमी जब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है  उस समय में यह रेखांकित करना बेहद जरूरी हो जाता है कि आखिर क्या कारण है कि इतनी समस्या के बाद भी एक बड़ी जनसंख्या विरोध पर उतर नहीं पा रही हैं।

जहां एक तरफ व्यापक बेरोजगारी की समस्या युवाओं को ग्रास रही है वही मध्यम वर्ग की हालत नौकरियों के जाने, महंगाई के बढ़ने और सरकारी नौकरियों के कम होने के कारण बदतर हालत में पहुंच गई है। देश की बड़ी आबादी आज एक सुर में बोल रहा है कि मोदी इस देश को पूंजीपतियों के हाथों में बेच रहा है और हमारे पास कुछ भी नही बचेगा। वहीं मजदूर किसान जो सत्ता हस्तानांतरण के बाद से ही इस दमनकारी राज्यनीति का शिकार रहे हैं, नए बदलाव के आने से खासा निराश और परेशान है।

किसान पिछले 137 दिनों से दिल्ली के बॉर्डर पर धरने पर बैठा है। मुस्लिमों के साथ लगातार दोयम दर्जे के नागरिक सा व्यवहार किया जा रहा है और ऐसा कोई भी स्पेस नही जहां उन्हें उनकी धार्मिक पहचान के कारण तानाशाही ताकतों द्वारा निशाना नही बनाया जा रहा है। हर तरफ एक रोष है परेशानी है पर सुनियोजित पहल की कमी दिखती है।  
 राजनीतिक विशेषज्ञों की माने तो जनता लीडर्स से ज्यादा तैयार नजर आई है। चाहे वह सीएए एनआरसी प्रोटेस्ट हो या किसान आंदोलन या हो छात्र आंदोलन। परंतु सब्जेक्टिव फोर्सेज ( जो आंदोलन को दिशा देने, अगुआई करने का काम करते हैं), कुछ उदहारण जो किसान आंदोलन में देखने को मिला, को छोड़ दें तो अपनी भूमिका निभाने में असफल रहे हैं।

इसका प्रमाण हमें 26 जनवरी के प्रोटेस्ट में भी देखने को मिला जहां जनता पिछले 3 महीने से धरने पर चुप चाप बैठी है और जब उसमें से कुछ लोग लाल किले पर पहुंच जाते हैं तो लीडरशिप का एक बड़ा धड़ा उन्हें गलत ठहराने में लग जाता है। हम जनता के गुस्से को राजकीय हिंसा के समानांतर रख के कैसे देख सकते हैं? इसके अलावा भी जब बीजेपी विधायक को पंजाब में पीटा गया तो उसी प्रकार की बयानबाजी फिर से दोहराई जाने लगी।

लेकिन कोई ऐसा दिन नहीं गुजर रहा जब हमें यह सुनने को ना मिलता हो कि किसी शहर या कस्बे या गांव में पुलिस के बेरहमी से आम आदमी जख्मी ना हुए हों। परंतु उससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि एक बड़ा धड़ा मोर्चे से अब भी काफी दूर खड़ा है। आंदोलन और उसका प्रसार पंजाब,ओडिसा,छत्तीसगढ़, तेलांगना, पश्चिम बंगाल, झारखंड और हरियाणा के क्षेत्रों को छोड़ दें तो ज्यादातर शहर केंद्रित है। परंतु यह भी सच है कि इस राज्यों की एक बड़ी आबादी आज रोजगार की तलाश में पलायन करने के लिए बाध्य है।

भारत के अंदर किसी भी प्रकार के बदलाव ने जहां देश के निम्न व भूमिहीन किसानों की चेतना को विकसित होने से रोका वहीं उनके मांग को "जमीन जोतने वालों" की मांग तक पहुंचने भी नहीं दिया गया। इसके अलावा देश का राष्ट्रीय पूंजीपति जिसके पास पहले ही पूंजी की व्यापक कमी थी, वह 1947 के बाद पूंजीपतियों की अगुआई के कारण कभी भी अपने लिए संघर्ष के लायक जमीन नहीं बना पाया। 

यूरोप के अंदर बदलाव  होने का एक बड़ा कारण पूंजीपतियों के खुले बाजार की मांग थी जो की सामंतवाद के कारण काफी हिस्सों में बांट हुआ था। साथ में कारखाने में जिस श्रमिक की आवश्यकता थी वह  जमीन से बंधा हुआ था। इसलिए सामंतवादी विरोधी हिंसक संघर्ष में पूंजीपतियों का साथ गरीब व भूमिहीन किसान ने भी दिया था। लोगों की चेतना के विकास के लिए पूंजीपतियों ने पर्चे बांटे, रेडिकल भाषण दिए और संघर्ष के लिए लोगों को तैयार किया। चाहे वह ब्रिटेन हो या फ्रांस या अमेरिका।

सभी क्षेत्रों में पूंजीपतियों की अगुआई में किसानों ने व्यापक संघर्ष के बाद उत्पादन संबंध को बदलने का कार्य किया था। इस व्यापक संघर्ष का यह परिणाम था कि जब महनेतकशों ने फ्रांस के राज्य के चरित्र को पहचान कर  बराबरी के संघर्ष को जारी रखा। परंतु सवाल यह है कि फ्रांस की क्रांति तो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नाम पर लड़ी गई थी फिर फ्रांस की सर्वहारा जनता को समानता के लिए लड़ाई क्यों जारी रखनी पड़ी?

इसका जवाब इतिहास में स्पष्ट है। फ्रांस में एक जिस लोकतंत्र का गठन किया गया था, उस तानाशाही को मूर्त रूप प्रदान किया गया था। सत्ता  में आये लोकतंत्र का यह अंतर्निहित चरित्र होता है कि इसमें दी गई समानता व्यवहारिक रूप से पूंजीपति वर्ग को प्राप्त हुई समानता , स्वतंत्रता है इसके अलावा राज्य का संपूर्ण तंत्र पूंजीपतियों के सेवा हेतु लोगों को नियंत्रित करने का कार्य करता है। भारत में भी कुछ इसी प्रकार का झूठा आश्वासन संविधान के नाम दिया गया।

वहीं दूसरी तरफ राज्य की समस्त मशीनरी बड़े पूंजीपतियों, नौकरशाही और बड़े जमींदारों की जीहुजूरी करती नजर आती है। 
फिर से हम भारत के दशा की तरफ वापस आते हैं जहां पर आज हर तरफ मौत का भय है मीडिया में इस मौत के बाजार का जम कर प्रचार किया जा रहा है।

घटता हुआ हर एक दिन कोविड महामारी से मरने वालों की संख्या में इजाफा कर रहा है, न्यूनतम रूप से मीडिया तो यह प्रचार कर ही रही है। परंतु ऐसे विपत्ति के समय में देश का प्रधानमंत्री पूरे बंगाल में भ्रमण करते हुए चुनाव प्रचार में व्यस्त है, जहां वह हजारों की भीड़ का संबोधन करता है और लोगों को देख कर बेहद खुश हो रहा है। वही उसी दिन यह सूचना भी आती है कि पुलिस वाले सड़क, चौराहे,घर के अंदर घुस के लोगों को पीट रही है और लोगों को शारीरिक दूरी बनाए रखने का कार्य कर रही है।

किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए सरकार पैरामिलिट्री उतरने की तैयार है क्योंकि वहां कोरोना फैल रहा है। जनता को तो वही चेत जाना चाहिए कि यह सरकार कितना झूठा है और साथ ही समस्त अलग अलग देशों के राज्य प्रधान जो अपने देश के मेहनतकश लोगों को बेचने के लिए वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं से पैसे खा चुके हैं। आज दुनिया का शासक वर्ग एक होकर लोगों को लूटने के कार्य में लगा हुआ है। वह हमे आर्थिक चंगुल में इस तरह से फांस देना चाहते हैं कि ना हम विरोध कर पाएं और न ही मौजूदा दशा को सुधारने के लिए कुछ कर पाएं। सिर्फ हाथ पर हाथ धरे जो हो रहा है उसमें अपने जिंदा रहने के तरीके तलाशें। 
 

यह जीवन जीने के लिए या सांस लेने के लिए जिन तरकीबों का विकास होता है और राज्य जो तरीके हमे मुहैया करवाती है वह ही हमारे "कॉमन सेंस" का विकास करता है। जिसमे अपने अस्तित्व की रक्षा कर पाना हमारे जीवन को सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। आज देश के कुछ गिने चुने शासक वर्ग के लोगों को छोड़ दें तो प्रत्येक व्यक्ति एक गहरी असुरक्षा में जी रहा है और जिस सरकार को लोगों ने यह समझ के चुना की वह उनके हितों की रक्षा करेगा वह विदेशी पूंजीपतियों की दलाली में मगन है। परंतु यह सिर्फ इस राज्य के साथ ऐसा नहीं है।

भारत की जनता को म्यांमार से सिख लेने की जरूरत है और यह समझने की जरूरत हैमां अपने 3 महीने के बच्चे की लाश को लिए गोद में खुद के मारने की राह देख रही होगी। राष्ट्र के मनगढ़ंत रूप के समझ को किताबों, विद्यालयों, विश्विद्यालयों,और तमाम प्रकार के स्पेस से इतनी सहजता से हमारे मनोविज्ञान में डाल दिया गया है।

देश का मेहनतकश वर्ग, भूमिहीन किसान, राष्ट्रीय पूंजीपति और राज्य नौकरी व प्राइवेट कंपनी में काम करने वाली जनता यह भूल जाती है कि उनके मध्य एक गहरा वर्गीय भिन्नता है और यह भिन्नता ही राज्य को पुनरुत्पादित करने का कार्य करती है। 

हमारे मनोविज्ञान में ऐसे सहज ज्ञान का विकास बहुत प्राकृतिक नहीं की मुसलमान हमारा दुश्मन है,या ज्यादा जनसंख्या हमारे अल्पविकास का कारण है या वैश्विक रूप से समस्या है तो हमारे यहां भी होगी। बल्कि यह प्रायोजित रूप से राज्य के मौजूदा विचार लोगों के मध्य  मजबूत करने का कार्य करते हैं।

जब बीच बीच में सर्वोच्च न्यायालय रेगिस्तान में बारिश की तरह एक निर्णय किसी के पक्ष में दे दिया जाता है तब हमारा पुनः विश्वास ऐसी संस्थाओं पर कायम हो जाता है परंतु हम यह सवाल करना भूल जाते हैं कि यह प्रोग्रेसिव एटीट्यूड पिछले 2 साल से कहां गायब था। किसी भी मनोविज्ञान का विकास भौतिक परिस्थितियों का समायोजित वैचारिक परावर्तन होता है जो तथ्यों को गूंथ कर अपना आकार लेता है। वह मनोविज्ञान बनाने के सारे अस्त्र राज्य के पास हैं। 

परंतु यह सवाल है क्या यह असुरक्षा हमेशा बनी रहेगी? क्या हम ऐसे ही ओहापोह में जीवन के हर सांस को एहसान की तरह लेकर जीते रहेंगे? क्या यह व्यवस्था अजेय है? क्या इससे पहले के बने राज्य भी अपने समय के लोगों के लिए अजेय रहे होंगे? 

हममें जितना उपभोग करने की क्षमता होती है उसके हिसाब से हमारे वर्गीय चरित्र का विकास होता है और वह वर्गीय चरित्र हमें एक खास वर्गीय नैतिकता की तरफ ले जाता है। परंतु मनुष्य अपने वर्गीय सुखों का केवल गुलाम नहीं समझा जाना चाहिए। वह इतिहास में कोई निष्क्रिय रूप से भाग लेने वाला सब्जेक्ट नही है। वह व्यापक जनता की चेतना से जुड़ते हुए लक्ष्य समाज को बराबरी और सही मायनों में प्रेम पर आधारित बनने के लिए कार्य करना है।

आज के समय में यह आवश्यकता है कि जनता खुद को असहाय समझने के बजाए अपने एकता के बल को पहचाने और संगठित होने का कार्य करे।  


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