वो बातें जो खबरों का हिस्सा नहीं होती, राजधानी अस्पताल अग्निकांड जिसमें कोरोना मरीज जिंदा जल गए

सुमन पाण्डेय

 

दैनिक भास्कर के फोटो जर्नलिस्ट भूपेश केशरवानी मौके पर पहुंच गए। जहां आग लगी थी वहां 34 कोविड मरीज थे, उनके लाचार और तकरीबन बीमार परिजन थे जो खुद कोरोना के लक्षण से जूझ रहे थे। भूपेश जी के संक्रमित होने का खतरा था, मगर इन सब के बाद भी वो वहां थे। पुलिस और फायर डिपार्टमेंट की टीम भी थी।

अस्पताल के उपरी माले में आग लगी थी, नीचे औरतें चींख रहीं थीं- वो कह रही थी मेरे पति नहीं मिल रहे, मेरे पापा नहीं मिल रहे, कोई तो बाहर निकाल दो प्लीज, वो एंबुलेंस...एंबुलेंस चींख रहीं थीं। भूपेश केशरवानी का कैमरा ये तकलीफ कैद कर रहा था, उनकी आंखें नम थी, दिमाग सुन्न हो चुका था।

मैं लगातार फोन पर उनसे बात कर रहा था। वो बोले- भाई यहां हालत बहुत खराब है यार... अपडेट लेकर मैं भी मौके पर पहुंचा। बुजुर्ग और महिला मरीज खुद ही अधनंगी अवस्था में जान बचाकर भाग रहे थे, अस्पताल वाले भी ये सब देख रहे थे।

किसी के पैर झुलस गए थे तो कोई कुछ बिना कहे बस रो रहा था, वो मरीज कल दुनिया के सबसे बेबस और मजबूर लोगों में थे, उनके घर वालों की मनोदशा का अंदाजा लगाकर देखिए, कल्पना करिए कि कोविड वार्ड जो धधक रहा था, वहां आपका कोई अपना हो।

सड़क की दूसरी तरफ उम्मीद छोड़ चुके घर वाले बस एक कोने में बैठकर रो रहे थे, अपनों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी आसूं बनकर मिट्‌टी में मिल रही थी। जो जिंदा बच गए थे, उनके बदहवास घर वाले फोन लगा थे, एंबुलेंस के लिए, बेड के लिए, वेंटीलेटर के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए।

एक युवती अपनी बूढ़ी दादी को ले जाने की मिन्नतें कर रही थीं, एंबुलेंस वाले से बोली मेरी दादी को ले चलो भैया पैसे ले लेना, एंबुलेंस वाले कह दिया मुझे लाश ले जाने के लिए बुलाया गया है। महसूस किजिए इस जवाब को। काफी देर तक युवती परेशान रही फिर मदद मिली।

मैंने जब मृतकों परिजनों से बात की तो डी राव नाम के युवक ने कहा- मेरे पापा ऊपर जले पड़े हैं, उसकी मां का गला चींखकर रोकर बैठ चुका था। प्रिय प्रकाश नाम के युवक ने बताया मेरे भैया की ऊपर अधजली लाश पड़ी है।

ये लाइनें सुनकर मैं कुछ सेकंड के लिए रुक गया और वो लोग भी सेकंड्स की चुप्पी गुस्सा, और ऐसी मजबूरी से लिपटे थे, जिसमें साफ था कि हम कुछ नहीं कर पा रहे। रात भर रोने चींखने की आवाजें मेरे जहन में गूंजती रहीं, उनकी सोचिए जिनका सबकुछ इस हादसे ने छीन लिया।

इतना सब होने के बाद भी वो अस्पताल कौन सा बंद हो जाएगा कहां उसके मालिक जेल में सड़ेंगे ? क्योंकि पिछली घटनाओं में भी ऐसा नहीं हुआ, हम से बेहतर जंगली हाथी होते हैं, दूसरे हाथी की मौत पर शोक मनाते हैं, जानवरों से संवेदना की सीख लेने का वक्त सही है गूगल करिएगा।

त्रासदी का ये दौर मुश्किल है, मुझे और मेरे जैसों को हर रोज फोन आ रहे हैं, बेड, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर के लिए, मैं बहुत से लोगों के लिए कुछ नहीं कर पा रहा, फिर फोन आते हैं वो जो जिसके लिए दवा के भटक रहे थे वो आदमी मर गया।

साल 2011 से पत्रकारिता के प्रयास में कभी विचलित नहीं हुआ, मगर इस त्रासदी के माहौल ने सब बदल दिया है। सब अजीब है बहुत अजीब...


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