पुस्तक समीक्षा : पुस्तक - संस्कृति की अर्थव्यंजना

लोक संस्कृति में लोकोत्सव उत्सव की दानवीय भुजाएँ प्रतिरोध- अतिप्रतिरोध

लेखक - डॉक्टर गोरे लाल चंदेल, समीक्षक - यशवंत मेश्राम

 

डॉ. चंदेल प्रगतिशील हिंदी जगत में किसी परिचय के मोहताज नहीं थे परंतु 'झेंझरी' ने उनकी प्रतिष्ठा को राष्ट्रीय स्तर पर एक नया आयाम दिया है। इसके पहले छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति और लोक परंपराओं पर्वो पर आधारित आलेखों का संग्रह संस्कृति की अर्थव्यंजना' 2013 में प्रकाशित होकर चर्चित हुआ था। यहाँ श्री चंदेल जी को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी इसी कृति की श्री यशवंत द्वारा पूर्व में की गई समीक्षा प्रस्तुत है। यह विडंबना ही है कि श्री यशवंत भी 3 और 4 अप्रैल की दरमियानी रात को हमसे बिछड़ चुके हैं। नियति अपने अनुशासन के प्रति प्रतिबद्ध ही नहीं निष्ठुर भी होता है। स्मृति शेष डॉ. गोरेलाल चंदेल और यशवंत को विनम्र श्रद्धांजलि - कुबेर

आलोचना पद्धति पर डॉ. नीरू मेहता का मंतव्य है "आलोचना की किसी पूर्व निर्धारित सरणी का अनुमान करना व्यर्थ है। आलोचक को रचनाकार की समझदारी का बोध ज्यादा होता है। रचना में विविध संदर्भ दृष्टिगोचर होते हैं। एक ओर रचनाकार का संदर्भ कवि और उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा से होता है और दूसरी ओर उसका संदर्भ पाठक का संस्कार और भावजगत रहता है।

इसी प्रकार एक ओर सामामजिक परिवेश और नैतिक मूल्य, उसके अ ययन का संदर्भ बनते हैं तो दूसरी ओर जातीय परंपरा और सांस्कृतिक चेतना आलोचना की पद्धतियों में मनोवैज्ञानिक, मार्क्सवादी, समाजशास्त्रीय अस्तित्ववादी तथा मिथकीय आलोचना बहिर्लक्षी हैं तो शैलीवैज्ञानिक संरचनावादी, नई समीक्षा, विसंरचनावादी आलोचना अंतर्लक्षी हैं। साहित्य की वास्तविक परख विश्लेषणकर्म से ही संभव है। आलोचना रचनाकार को रचनाकार से और रचनाकार के द्वारा उसे संसार से जोड़ने वाले नाभीसूत्र को काटती है। '

कृति के लिए पाठक के तर्क होते हैं। समझ होती है। बोध होता है। नजर होती है। परंतु पूर्वग्रसित विचार बेमानी होती है। समीक्षक भी पाठक श्रेणी में है। वह स्वतंत्र विश्लेषक होता है। समीक्षा में उपरोक्त सभी या कुछ आलोचना पद्धतियाँ तो आयेंगी ही पाठक, उसकी नजरिया, झुकाव जिस ओर होगा उसको अपनी पद्धति से जोड़ेगा। ऐसे उचित-अनुचित को संकीर्णता सरिता कहते हैं? जानेमाने आलोचक डॉ. गोरेलाल चंदेल की कृति संस्कृति की अर्थव्यंजना में आधुनिकता उत्तर आधुनिकता से पल्लवित हो रहे, लोकसंस्कृति पर संकट का चिंतन किया गया है।

चिंता जाहिर किया गया है, दोनों आधुनिकता को रौंदती भैंस की संज्ञा से अभिहित किया गया है। डबरे के उज्ज्वल पानी को भैंस गंदा कर देती है। औपनिवेशिक मासकल्चर में लोकसंस्कृति पतन के कगार पर है। हम हैं कि अंधों के सामने हँस रहे हैं? अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं? चकाचौंध वाली मासकल्चर हमें भा गई? सुस्थापित संस्कृति लोक को छोड़ रहा है? घुटने टेक रहा है? प्रश्न निरंतर रहेंगे। लोकसंस्कृति मिथकों से जुड़ी रहती हैं। "यथार्थ को व्यक्त करना जहाँ कठिन हो जाता है, वहाँ रचनाकार की मदद करता है मिथक मिथक ही वह तत्व हैं, जो यथार्थ को सशक्त एवं रोचक ढंग से व्यक्त करता है। 

यह हमारी अमूल्य धरोहर है, विचारधन है। लोक का उल्टा है परलोक लोक कमेला है, परलोक परजीवी लोक-परलोक मध्य बिचौलिया चलायमान रहता है। परबुधियाओं वाला लोक परलोक संस्कृति की ओर आकर्षित रहता है, क्यों? लोक श्रमकर्ता, परलोक शोषणकर्ता और महापरलोक औपनिवेशक है। लोक संस्कृति काव्य में गुणात्मक परिवर्तन करती है। इसका प्रत्यक्ष सादा, सरल और सीधा उदाहरण है ददरिया का यह पद

राम धरे वंशी, लखन धरे बान, सीतामाई के खोजन बर

निकल गे हनुमान।

लोक काव्य ने राम लखन के हाथ में क्रमश: बंशी और बाण घरा दिया बदलाव कर दिया। तब विजेन्द्र उचित ही कहते हैं- "मिथक काव्य सत्य के रूप में चिरंतर सौन्दर्य तथा मानवीय आकांक्षाओं को भी कहते दिखते हैं। लोक शास्त्र सम्मत नहीं होता। गाँवदेवी (डिहवारिन) हेतु तेल, हरदी, चिलारोटी से काम चल जाता है, शास्त्र मुक्त है। खर्चीले साज-श्रृंगार, हवन-यज्ञ से आजाद है। "लोक का तो अपना शास्त्र और अपना साहित्य होता है। उनकी अपनी मान्यताएँ होती हैं। उनके अपने मूल्य एवं मूल्यगत चेतना होती है।” (पृ.19)

मड़ई को मराठी भाषी 'मंडई' से संबोधित करते हैं। लोकोत्सव मड़ई परंपरा में निषाद (धीवर) यादव और गौड़ सहित सर्व लोकसमुदाय सम्मिलित होते हैं निर्मित मड़ई प्रकृति की पूजा है, न कि इन्द्र उत्सव याद करें देवासुर संग्राम (पृ.19 और पृ.14 का मिलान करें।) मड़ई पर शास्त्रवादी चालाकियाँ काम नहीं आई दूर ही पसर गई। इसकी पुष्टि के लिए डॉ. चंदेल जी का दिगर आलेख पढ़ा जा सकता है।

कला के मिथकीय सामाजिक संदर्भ में डॉ. चंदेल ने महिसासुर मर्दिनी को सामूहिक शक्ति का प्रतीक और महिसासुर को अन्याय का प्रतीक बताया है। इसमें विरोध आभाष है। मेरी तो असहमति है। लोक श्रमशक्ति वाला जब ताकतवर बनता है तो शास्त्र सम्मत लोक उसे असुर की श्रेणी में जमा करता है। लोक ताकतीय शक्ति को दबाने मटियामेट करने का षड़यंत्र रचता है। ऐसा कर उसकी लोकप्रियता समाप्त कर देता है। महिषासुर से देवताओं को ही सर्वाधिक कष्ट क्यों हुआ? लोक को नहीं हुआ? ऐसा ही तारकासुर कथा है। (पृष्ठ 39 40 का मिलान पृष्ठ 19, 20 से किया जाय)

लोकोत्सव सामूहिक चेतना से अनार्य, आर्य के अत्याचारों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाये? लगातार संघर्ष जारी है। अब औपनिवेशिक शक्तियों का चहुँ ओर से आक्रमण है संकट और गहरा हो गया है। लोक समाज ने अपने लोकोत्सव गीत नृत्य गान, कथा-कहानी का सविस्तार विश्लेषण नहीं कर पाया? कारण अशिक्षा रही। अब जब जानने लगे तो उत्तर आधुनिकता के अनेकानेक हमले जारी हो गए। लोकोत्सव संस्कृति को नष्ट करने के लिए परलोकी चतुराई

कब तक चलेगी! विद्रोह अवश्य फूटेगा

लोकसंस्कृति का विशेषीकृत स्वरूप साधारणीकृत होता है। आदिवासी अंचलों में कुम्हड़ा भोज्य स्वरूप दीपोत्सव से होता है। पहले गउरा गउरी को भोग (ग्राम देवी को भी), फिर आम लोगों को भरपेट ढेर सारा यह आस्था जबरदस्त साधारणीकृत है। सामूहिक सामाजिक लोकोत्सव पर कोई वीटो पावर नहीं; जैसे मंडई।

परंपरा तथा आधुनिक बाल कटवाने का संदर्भ, मंगलसूत्र का प्रसंग हो या करवा चौथ की ताजपोशी का सुंदर चित्रण डॉ. चंदेल जी ने किया है। इसमें विरोधाभाष तथा द्वन्द्व है। परन्तु पति की मंगलकामना पर करवा चौथ परंपरा में मुड़े! 'तीजा' को छोड़ दिया। आश्चर्य है। छत्तीसगढ़ की तीजा परंपरा लोकसंस्कृति में सार्वसामुदायिक है। करवा चौथ एकांगी है। 'तीजा' लाने का रिवाज सुहागिन महिलाओं के मायके से संबंधित है। महिलाएँ मायके में तीजा रहती हैं। यह स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक है। इसमें वियोग संयोग श्रृंगार नहीं है। अकामुकता का व्रत है।

मीडिया ने भूमण्डलीकरण-उत्तर आधुनिकता हेतु करवा चौथ में सेंधमारी की सामंती प्रतीक है। मेरा विश्वास है कि तीजा पर ऐसा नहीं हो पायेगा अनार्य संस्कृति में छत्तीसगढ़ तीजा पर ठोस जमीन है। डॉ. चंदेल जी ने हास होती सामूहिक संस्कृति पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। (पृ.52 ) विचारधारा (डेनियल नेल) और इतिहास का अंत (फ्रांसिस पुकोयामा) सिर्फ 'चिमग्या ची बोम फागावरी' जैसे है। अर्थात बसंत चार दिन का, फिर लंका जैसे की वैसी मनुष्य की सत्ता व्यक्ति में रूपांतरित होने लगी। (पृ. 55) ताजा उदाहरण वर्तमान 2014 के लोकसभा चुनाव है। डॉ. चंदेल का आदिवासी जनजाति समूह के लिए 'वनवासी' शब्द का प्रयोग अनुपयुक्त है।

तर्कसम्मत नहीं (पृ. 53 ) गोंड़ बहुल आदिवासी अंचल (मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आन्ध्रसीमा) में इनके प्रति घृणात्मक और अपमानजनक कहावतें और उक्तियाँ प्रचलित हैं, यथा- 'रोड सुधर गे फेर गौड़ नइ सुधरिन.' 'गॉड़ के बुध गांड़ में,' 'गोंडिन बर महुआ मीठ, आदि। विकसित सभ्य समूह उन्हीं के क्षेत्रों में पैर जमा रहे हैं। पैर पसार चुके हैं। आदिवासियों ने जंगलों और पहाड़ों में अपना निवास क्यों बनाया? आपको इसका उत्तर पृष्ठ 55-56) पर मिल जायेंगे। जनजातीय संस्कृति को नष्ट करने का कार्य नेताओं ने संवैधानिक कंडिकाओं पर पैर रखकर किया, तो डॉ. चंदेल की चिंता वाजिब है। वित्तीय पूँजी सांस्कृतिक पूंजी के संग गठजोड़ करके जनजातीय भीतर के मनुष्य को गायब करने में लगा है।

अधिसंरचनागत परिवर्तन समय- स्वाभाविक है। इसमें उपभोक्तावादी संस्कृति ज्यादा घातक (पातक और पाचक भी) है। अब जनजातीय संस्कृति का उपयोग व्यवसाय हेतु हो रहा है। (60) समूहवादी लोकसंस्कृति के प्रेरणासमूह दर्शाते हैं अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता। एक अकेला थक जायेगा, साथी हाथ बढ़ाना। औद्योगिक सूचनाक्रांति में अकेलापन, स्वार्थपन है।

डॉ. चंदेल का संभावनात्मक शब्द होगी समूह की चेतन और जीने की चेतना जागृत होने से हुई होगी। (पृ.80) इससे पाठक उत्प्रेक्षा अलंकार में उलझ जाता है। फिर मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है इतनी चेतना आने पर भी अशिक्षा और अशिक्षितों को कायम रखने वाली शास्त्रीय परंपरा से जूझे कैसे नहीं? लोकचेतना-नवजागरण का बिगुल फूंकने हेतु फूले अंबेडकर को 19वीं और 20वीं सदी में जिंदगी भर पापड़ बेलने पड़े थे।

डॉ. चंदेल का हरेली पर्व से जुड़े अनेक ग्रामीण खेलों का चित्रांकन प्रशंसनीय है। वे लोक संस्कृति का उदात्त रूप कृषि संस्कृति में देखते हैं। मेरा मानना है, आज कृषि को सब्सिडी नहीं के बराबर मिलती है। यानी कृषि संस्कृति कृषक को मृत्यु लोक ले जाती है। औद्योगिकों को जितनी सब्सिडी मिलती है उसका एक प्रतिशत भी कृषकों को मुनासिब नहीं है। गुजरात में टाटा को नैनो फैक्ट्री हेतु 29 हजार करोड़ रूपयों की सब्सिडी मिल गई। बेचारे किसान! डॉ. चंदेल ने बाजारवादी संस्कृति से व्याप्त संकट का विस्तारपूर्वक चिंतन किया है। (पृ. 68 69) उपभोग-बाजार पुनरोत्थानवादी संस्कृति के साथ मिडिया के शामिल हो जाने पर तीन पग जमीन नाप लेने के षडयंत्र में तीसरा पग अब मनुष्य के ही सिर रखा जायेगा।

"अनाज को सड़ाकर शराब बनाने वाली कंपनियों को सड़ा हुआ अनाज माटी के मोल बेचने का प्रबंध करके करोड़ों के कमीशन और पार्टीफण्ड का पुख्ता इंतजाम है। आधुनिक कलावादी संस्कृति ने मनुष्य के समूहवाद, सहिष्णुता, मानवता, संवेदनशीलता को समाप्त कर दिया है। इसे अन्य उदाहरण से समझा जा सकता है। परंजय गुहा ठाकुर की किताब गैसवार्स क्रोनी कैपिटलिज्म एण्ड द अंबानीज पर मिडिया ने चुप्पी साधी, पर पी. सी. पारख और संजय बारू की किताब पर तूफान खड़ा किया।"" लोक उदाहरण इप्टा रायगढ़ द्वारा प्रशिक्षित संस्कृतिकर्मी लोक समूह हेतु काम न कर राजनीतिक समूह का ध्वज फहराने लग जाते हैं।

राष्ट्रीय आर्थिक नीति (1992), राष्ट्रीय संस्कृति का मसौदा (1991), अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, शासकीय विदेशी अनुदान, भारत भवन, मानव संसाधन विकास विभाग मिडिया ने लोकसंस्कृति के सभी पहलुओं को संकटापन्न कर दिया। हवा निकाल दी आवज कौन उठाए? आवाज जनता को ही उठाना है। उदारीकरण ने लोक संस्कृति के सभी पहलुओं को उधारीकरण बुरके में फटेहाल महरूम कर दिया।

इतिहास का अंत क्यों हुआ? इसकी तत्ववादी व्याख्या करनी क्यों पड़ी? बाजारवाद का अर्थशास्त्र क्या है। भोलाराम हिन्दू क्यों बना? इमरान कैसे मुसलमान हो गया ? जान इसाई कब बन चुका ? चंदन-चुटिया हिंदू क्यों जान पड़ा? संस्कृति शब्दव्यंजना में कैसे हो रहा है? राम कृष्ण जाति-वंश-नस्लरंजक क्यों हो गए? महत्वपूर्ण प्रश्न मोदीवाद: और उसका सफलतावाद सुफल हो गया? झाँकियाँ लोक चेतना को कुंद करती हैं? संस्कृति की सुरक्षा और संरक्षण का नाश क्यों फलीभूत है? ददरिया कब, कहाँ और क्यों

गाया जाता है? बहुआयामी लोकसंस्कृति पर संकट आए प्रश्नों के उत्तर संस्कृति की अर्थव्यंजना में आप विस्तार से पायेंगे।

पुस्तक की उपादेयता सोचने पर मजबूर करती है। 'मंहगाई रोकने, नक्सलवाद-आतंकवाद समाप्त करने, सभी को रोजगार दिलाने विषयों पर शिष्ट संस्कृति राजसूय अश्वमेघ यज्ञ सहित सामान्य राजहवन क्यों नहीं करती? जैसे क्रिकेट जीतने, सत्ता में पहुँचने हेतु किये और दिखाये जाते हैं।' 'कर्मण्येवाधिकारस्ते की परिपाटी हो। कर्मकाण्ड की ओर मुड़ना नहीं चाहिए। 'अच्छे दिन आने वाले हैं यह सांस्कृतिक आधार लोकमानव विरोध में विकसित हो गया तो चिंता होगी ही। इसका खुलासा लोक परंपरा और आध निकताबोध अध्याय में विस्तारपूर्वक है। (पृष्ठ 7982)

सामाजिक परिवर्तन संग गोवर्धन पूजा प्रवर्तित प्रचलित हुई परजीवी इन्द्र देवता को नाराज होना ही था खिसियाने वाले खंभा नोचते ही हैं। कृष्ण ने अपने काल में बड़े-बड़ों को तलुए चटाये थे कृष्ण का मिथकीय रूप अनार्यों ने रच डाला और कृष्ण का लोकीकरण रूप ईश्वरीय स्वरूप में छा गया। परलोक लोकशक्ति मनुष्य से हारता है तो परलोकीय संस्कृति उसे असुरों के खाते में डाल देती है या ईश्वरीय सरग-नरक के खाने में निर्भयी सत्तापक्षी रचनाकार जुगाड़ संस्कृति से बेहतर पुरस्कार पा जाता है परंतु उसमें जनपक्षधर चेतना के स्वर दिखलाई नहीं पड़ते मूल जनपक्षधरता मुखरता वाले लोक रेखांकन करने वाले लेखकों पर षडयंत्र चल जाते हैं।

द्विजेत्तरों के प्रबंधगीतकाव्य में यही दर्शन हैं राजा-रानी को नायक बनकर प्रचलित समाज की पीड़ा व्यक्त की है। यह उनकी श्रमशक्ति, संघर्ष, निराशा की पीड़ा है। नारी दर्द का चंदेल जी ने संक्षिप्त परंतु अभेदीय विश्लेषण किया है। संघर्षशील प्रवृत्तियों को लोक-साहित्यकारों ने पहचाना। विविध लोक रचनाएँ दी। प्रतिरोध स्तर का उच्चकोटि का विवेचन सराहनीय है। लोक काव्य में प्रतिरोध की ध्वनि द्विजेत्तरों में ही क्यों है? चारण कवियों में नहीं निशाचर (गुप्तचर) राजा सामंतों (परलोक) के ही होते हैं।

बिचौलियों से मिलकर वज्रयानी बौद्धशाखा ने जादू-टोने में रूप परिवर्तन कर जनता को लूटने का काम किया। डॉ. चंदेलजी मानते हैं आधुनिक उपभोग साधन साधारणजन तक पहुँच रहे हैं। (पृष्ठ 100) नहीं पहुँचना चाहिए। अब हम आधुनिक साध नों के बीच लोकसाहित्य में व्यापक परिवर्तन कैसे करें कि हमारी लोकस्वस्थ परंपरा कायम रहे उसका परिष्कार हो सके। टकसाल बन सके। सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन एक दिन में होते नहीं। इस संबंध में सयाजीराव गायकवाड़ ने डॉ. अंबेडकर को हिदायत दी थी।

क्या देवार बंदर बंदरिया लेकर, रूंझू संगी से गीत गाकर अपना भरण-पोषण करें? जैसा आज तक कहीं - कहीं हो रहा है। सारे सांस्कृतिक पहलुओं को नष्ट होने से कैसे बचाएँ? हमें अभी से चिंतन-मनन करके प्रोजेक्ट शुरू कर देना चाहिए। (पृष्ठ 79 80) देरी क्यों? लोक संस्कृति के अनेक पहलू बेदर्दी से चंद पिछले वर्षों से नष्ट हो रहे हैं? एक पहलू तो देवार को हेय दृष्टि से देखना है। श्रम की सामाजिक सौन्दर्यता अ-भेदभाव हो ? द्विजेत्तर द्वारा गायित देवारगीत के प्रतिरोध स्वर में अप्रतिरोध भी है। द्विजेत्तर का अद्विजेत्तरों द्वारा ही हेयदृिष्टि संपन्न होना मेहतर, देवार को आज भी घृणात्मक नजरों से देखते हैं? तो वह अपनी पारंपरिक परंपरा को स्वस्थ बोझे में ढोयेंगे कैसे?

वह तो आधुनिकता-उत्तरआधुनिकता की औपनिवेशिकता को अपनायेगा ही। लोक रचना गीत कथा, गाथा में उसकी साभिप्रायिता, उसमें निहित अनुपस्थिति (प्रच्छन्न) अर्थ को उजागर करना ही अर्थव्यंजना है। उसका महत्व है। इसे अप्रतिरोध कहते हैं। इसकी अर्थव्यंजना को उजागर करने में डॉ. चंदेल जी कैसे चूक गए। खेद है या जानबूझकर अथवा चतुराई, किंवा शातिरता क्या कहें? भूल! डॉ. चंदेल के लेखन की अपनी सीमा देखते हैं, बकौल देरिदा, कहते हैं- "रचना में उपस्थित अर्थ महत्वपूर्ण नहीं है। वह सदैव अनुपस्थित या प्रच्छन्न अर्थ को ही महत्व देता है।

पचास वर्ष पहले नाचा गम्मत में सीताराम जनाना पात्र अभिनीत करते हुए गाता था "ऐ बागों में डेरा, वो बागों में डेरा वो।" (आगे की पंक्तियाँ मुझे स्मरण नहीं ) यह लोक संस्कृति में जबरदस्त अतिप्रतिरोध स्वर है। द्विजेत्तरों ने द्विजेत्तर देवारों के डेरों की फूलों को अपने बगीचों में नहीं रोपे फलने-फूलने नहीं दिया। लोककवि - कविता का समाजनीति से लेना-देना होता है। आज क्यों कहा जा रहा हैं- कविता का राजनीति से लेना-देना नहीं होता? यही समझ पाते हैं कि विचार इतिहास का अंत करने वाले बिचौलिए कौन हैं? तभी मुक्तिबोध को लिखना पड़ा था "तय करो, किस ओर हो तुम।"

कारपोरेट जगत ने जो टूटफूट मचायी उसको न दक्षिणपंथियों ने समझा और न मार्क्सवादी पूर्णतः किसान आंदोलन से छत्तीसगढ़ को जोड़ सके। न ही अंबेडकरवादियों ने लोकसांस्कृतिक टूटफूट पर अपनी ठोस अवधारणा कायम रख पाया। संविधानिकता की ओर ध्यान नहीं दिया। उक्त लोक की आपनी लूट ने चुनाव हराकर उनको मजा चखा दिया।

यहाँ मुझे कनक तिवारी की टिप्पणी गलत नहीं लगती - संविधानिक अधिकारी सुप्रीम कोर्ट, सूचना आयोग, चुनाव आयोग तथा राष्ट्रीय अंकेक्षक बनकर न्यायपूर्ण टिप्पणी करे तो मिडिया मुगलों के बगलगीर उनका मखौल उड़ाए। व्यवस्था यही तो चाहती है कि हर चरित्रवान व्यक्ति आत्महत्या कर ले। यह तो प्रणम्य महान भारतीय मतदाता हैं जो टिटहरी बनकर गिरते हुए आकाश को अब भी थामना चाहता है। वह झांसे में है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। "

लोक की हीनता- दीनता दूर कैसे हो? 2 रूपये किलो के घटिया राशन के बजाय 100 रूपये किलो वाला बासमती चावल की मांग सामूहिक चेतना संपन्न 'लोक' ने क्यों नहीं किया? समाजवादियों, साम्यवादियों ने उच्च क्वालिटी रसद पर कोई अल्टीमेटम प्रबंधन को क्यों नहीं दिया? (अपनी कल्पना में राजा-रानियों को महलों में ऐश्वर्य का आनंद लेते हुए, और छप्पनभोगों का स्वाद लेते हुए देखकर स्वयं

स्वर्ग सुख भोग का आनंद लेने वाले लोक और लोक के लिए जिनकी लड़ाई केवल किताबों, भाषणों और लोकलुभावन नारों तक ही सीमित हो, ऐसे समाजवादियों से और कितनी अपेक्षाएँ की जा सकती है?) स्वतंत्रता, समानता, भातृत्व और हक हेतु अंबेडकरी कहाँ गायब हो गए? पता ही नहीं चलता, ब्राह्मणवाद पर कहना ऊँट के मुँह में जीरा और हाथी के मुँह में सोहारी परोसना है।

लोकसाहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पक्की है। लोककाव्य छनकर कलात्मक कल्पनात्मकता से कलम बनकर शब्दों में उगता है, तब लोककाव्य का कच्चा मसौदा मजबूत आकार ग्रहण कर लेता है, तो लोकसाहित्य का 'ऋणी' साहित्य रूपांतरित हो जाता है।

औपनिवेशिक बाजार की चोटी से लोकसंस्कृति और उसके लोकोत्सव के पतन हेतु जो दानवीय भुजाएँ लटक रही हैं, बचना है, बचने के लिए किसी गोवर्धन पर्वत की आवश्यकता है। लोकीकारक किसी कृष्ण की जरूरत है। बचाना तो है ही। काल करै सो आज कर, आज करे सो अब पृष्ठ 56 और 82 में पुनरुक्ति वर्णन के शब्द आ गए हैं। वर्तनी की त्रुटियों को छोड़ दें तो सरलीकृत भाषा में 'संस्कृति की अर्थव्यंजना' कलाकरों, कलमकारों हेतु उपयोगी है। डॉ गोरेलाल चंदेल जी को सादर बधाई।


संदर्भ :

  1. विभिन्न पूर्ववर्ती एवं समानान्तर आलोचना पद्धतियाँ मूल्यांकन की सीमाएँ, पंचशील शोध पत्रिका, अक्टूबर दिसंबर 2010, संपादक, हेतु भारद्वाज, पृ. 5863 64 |
  2. मिथक एवं परंपरागत विचार धन डॉ. अशोक - बाचुलकर, वही पृ. 12 ।
  3. काव्यसत्य और सौंदर्य - विजेन्द्र 'कृतिओर' अप्रेल- जून 2014 जोधपुर राजस्थान पृ. 05 |
  4. लोक साहित्य में इतिहास और समाजशास्त्र (सवनाही के संदर्भ में) - डॉ. गोरेलाल चंदेल, 'मड़ई' 2011. संपादक कालीचरण यादव, रावत महोत्सव समिति, बिलासपुर, पृ. 221 |
  5. समयान्तर अप्रैल 2014, दिल्ली, पृ. 07 1 6. धरती से जुड़ी मिली सर्जनाशक्ति, प्रो. रामदेव
  6. शुक्ल, 'कृतिओर' अप्रेल- जून 2014 पृ. 16 । 7. राज्यसत्ता से कौन लड़ेगा अभिषेक श्रीवास्तव, समयान्तर मई 2014 पृ. 14
  7. विसंरचनावादी आलोचना में रचना की सार्थकता और साभिप्राय सर्जना अरूणेश शुक्ल, अक्षरा मार्च-अप्रैल
  8. 2014, भोपाल, पृ. 38 । 9. कनक तिवारी का निष्कर्षात्मक कथन -जिरहनामा, अच्छे दिन आने वाले हैं?, हरिभूमि दैनिक, रायपुर, शनिवार

लेखक डौ. गोरे लाल चंदेल समीक्षक यशवंत,10 मई 2014

 


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