जाति व्यवस्था को समझना है तो धर्म के चश्मे से बाहर निकलकर ही देखना होगा
शरद कोकासहमें यह स्मरण में रखना आवश्यक होगा कि बाबा साहब ने यह दिन देखने के लिए संघर्ष नहीं किया था, केवल उनकी तस्वीर को गौतम बुद्ध की तस्वीर के साथ रखकर, उन्हें देवता बनाकर उनकी पूजा करना, उनकी जयन्ती पर नीले झंडे फहराकर, नीला गुलाल उड़ाकर और डी जे पर बाजा बजाते हुए रैली निकालना, गरीबों को खाना खिलाना काफी नहीं है. यह न तो अम्बेडकर की शिक्षाओं को समझना है न उनके धर्म को वे तो स्वयं ही पूजा के खिलाफ थे.

बाबासाहेब आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करते हुए बौद्ध धर्म को चुना था इसलिए कि वह उस समय का सबसे अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला धर्म था , एक ऐसा धर्म जिसमे ईश्वर के लिए और अंधश्रद्धा के लिए और व्यक्तिपूजा के लिए नकार था हालाँकि उनके सामने इस्लाम का,सिख धर्म का और इसाइयत का भी विकल्प था लेकिन वहाँ भी जातियों के बीच भेदभाव था और स्त्रियों के प्रति स्थिति सम्मानजनक नहीं थी इसलिए उन्होंने वहाँ जाना उचित नहीं समझा । यही बात सिख या इसाई समाज के सन्दर्भ में कही जा सकती है.
तात्कलिक स्थितियों में किसी एक धर्म को चुनना उनके लिए आवश्यक था इसलिए के वे अपने साथ उस समय की जनता जो हिन्दू धर्म की विडंबनाओं को ढोती आई थी एकाएक अधार्मिक या परमसत्ता में विशवास करने वाली नहीं बन सकती थे . इसका वर्तमान में विश्लेषण किया जाना चाहिए कि ऐसा क्यों नहीं हुआ ?
लेकिन यह सत्य है कि आज भी यदि हमें जाति व्यवस्था को समझना है तो धर्म के चश्मे से बाहर निकलकर ही देखना होगा । इसे केवल हिन्दू या किसी अन्य धर्म के समाज की एक बुराई मानना ऐतिहासिक और राजनीतिक दृष्टि से ग़लत होगा।
उस दौर में जब अन्य धर्मों के अंतर्गत भी जाति व्यवस्था के सामाजिक अध्ययन किये जा रहे हैं। इस बात को हमें अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि जातिव्यवस्था भारतीय समाज की सामाजिक नहीं अपितु एक राजनैतिक समस्या है और जिसकी तह में आर्थिक कारण भी हैं और धर्म इसका एकमात्र समाधान नहीं है ।
हो सकता है आज धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर पहले जैसी स्थितियाँ न हों लेकिन इतना ध्यान रखना होगा कि इसी देश के किसी कोने में आपके ही नाम और जाति का कोई किसान आत्महत्या कर रहा है, वह जो दिल्ली में संसद भवन के सामने कपड़े उतारकर गर्म दहकती हुई सड़क पर लोट रहा है, जो पंजाब हरियाणा या अकाल से पीड़ित तमिलनाडु कहीं का भी किसान हो सकता है ।
हो सकता है आपके ही जैसे किसी मजदूर को किसी छोटे मोटे कामगार को दुत्कार कर उसके घर से बेदखल किया जा रहा हो, आपके ही नाम की कोई बहन सवर्णों की किसी कोठी में या किसी बंगले में किसी की हवस का शिकार बन रही हो, आपकी बेटी की उम्र की कोई बच्ची अपने घर से मीलों दूर किसी ईट भठ्ठे पर किसी मालिक के शोषण का शिकार हो रही हो, आपके युवा बेटे की उम्र का कोई बेटा, नशे की लगाई हुई लत का शिकार होकर कहीं बंधुआ मजदूरी कर रहा हो ।
हो सकता है आज भी कहीं कोई हमारा ही भाई, अपने अतीत की धार्मिक बेड़ियों में जकड़ा हुआ हो वह पूजा पाठ कर रहा हो, धार्मिक कर्मकांड कर रहा हो, बाबाओं, बैगाओं और मांत्रिकों की शरण में पड़ा हुआ हो किसी राष्ट्रीय स्तर के ज्योतिषी से पूछ रहा हो महाराज मेरे अच्छे दिन कब आयेंगे?
हमें यह स्मरण में रखना आवश्यक होगा कि बाबा साहब ने यह दिन देखने के लिए संघर्ष नहीं किया था, केवल उनकी तस्वीर को गौतम बुद्ध की तस्वीर के साथ रखकर, उन्हें देवता बनाकर उनकी पूजा करना, उनकी जयन्ती पर नीले झंडे फहराकर, नीला गुलाल उड़ाकर और डी जे पर बाजा बजाते हुए रैली निकालना, गरीबों को खाना खिलाना काफी नहीं है. यह न तो अम्बेडकर की शिक्षाओं को समझना है न उनके धर्म को वे तो स्वयं ही पूजा के खिलाफ थे.
लेकिन आप कम से कम उनकी और अन्य सामाजिक विचारकों की किताबें पढ़िए, न केवल ज्योतिबा फुले, गाडगे महाराज, तुकाराम, जैसे संत बल्कि गांधी, भगतसिंह, सुभाष और विवेकानंद को भी उनके साथ पढ़ना जरुरी है, वे क्या सोचते थे और क्यों सोचते थे, उनके विचार की मशाल हाथ में नहीं बल्कि अपने दिमागों में जलाए रखिये और मरने से पहले आनेवाली पीढ़ी को सौंपते रहिये इस काली रात के बाद सुबह का सवेरा बहुत दूर नहीं है...
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14/04/2021
RAM KUMAR LAHARE
वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार बहुत ही अच्छा विचार है. इस लेख मे जो बातें कही गई है वह अनुकरणीय है.
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