लगा कि अपने बड़े भाई से मिल रहा हूं
निकष परमार, पत्रकारडा. सुभाष पांडे नहीं रहे। कोरोना ने उनको हमसे छीन लिया। कोरोना के खिलाफ सबके हिस्से की लड़ाई लड़ते हुए वे खुद हमसे बहुत दूर चले गए। उनसे बहुत पुराना परिचय था।

91 में मैं नया नया रायपुर आया था। स्वभाव से बहुत संकोची। दफ्तर के काम के अलावा और कोई काम नहीं। किसी से मिलना जुलना नहीं। ऐसे में एक मित्र के जरिए डा. सुभाष पांडे से परिचय हुआ। पहली ही मुलाकात में लगा कि अपने बड़े भाई से मिल रहा हूं।
उम्र और योग्यता में बहुत बड़े होने के बावजूद उन्होंने बहुत मित्रवत व्यवहार किया। फिर जब तब मुलाकातें होती रहीं। तब से लेकर अब तक उनके प्रति आदर और कृतज्ञता के भाव से भरा रहा।
डा. साहब को फिल्मों का बड़ा शौक था। उनके पास फिल्मों के पोस्टरों का खजाना था। फिल्मों के बारे में उनकी जानकारियां भी किसी खजाने से कम न थीं।
वे चाहते थे कि फिल्मों को लेकर उनका कॉलम छपे। उस बारे में हमारी बात हुई। मैं जिस अखबार में काम करता था, उसमें उनका लिखा छपने लगा।
उनका लिखा बहुत कुछ मैंने पढ़ा। फिल्मों में न मेरी दिलचस्पी थी न इस विषय की जानकारी। डा. पांडे का लिखा पढ़कर मैं विस्मित होता था कि कोई किसी विषय के बारे में इतना कैसे जान सकता है।
संक्षिप्त मुलाकातों में उन्होंने अपने क्रांतिकारी पिता जयनारायण पांडे के बारे में बताया। सुभाषचंद्र बोस के बारे में बात हुई। हिंदू मुस्लिम जैसे विषय पर बहस हुई।
फिर उनसे संपर्क टूट सा गया। बरसों न कोई बात हुई न मुलाकात। कोरोना के पहले दौर में जब मैं पाजिटव होकर घर में था, किसी ने डा. सुभाष पांडे से बात करने की सलाह दी। उनका नंबर भी दिया। मैंने शाम को फोन लगाया।
उन्होंने कहा- यार रात में दस बजे फोन लगाओ ना । मैंने रात में फोन लगाया। उन्होंने अपनी शाम की व्यस्तता का हवाला दिया। हालचाल पूछा। और जरूरी हिदायतें दीं। कहा कि जरूरी लगे तो फिर फोन लगा लेना।
इतनी व्यस्तता के बावजूद उन्होंने अच्छे से बात की। उनके प्रति मन में सम्मान और बढ़ गया। एक व्यस्त व्यक्ति से बगैर काम के मिलने का कोई अर्थ नहीं था। इसलिए ठीक होने के बाद मैं उनसे मिल नहीं पाया।
जो उनसे मिलकर जताना था, आभार का वह भाव मन में ही रह गया।
उनका जाना एक बड़े भाई का चले जाना है। वे एक बहुत अच्छी याद और मिसाल बन कर हमेशा दिल में रहेंगे।
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