क्या आपको भारतीय संविधान में समाहित सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकताओं का अहसास है?

डॉ. आर.पी. टंडन

 

आइये हम उनके जीवन से जुडे कुछ अनन्य अदभुत अनुकरणीय पहलूओं के बारे में जाने तथा उनके जीवन संघर्षो से हम प्रेरणा लें। बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा है कि स्वतंत्रता तथा बन्धुता के आधार पर आधारित सामाजिक जीवन ही लोंकतंत्र कहलाता हैं। भारत में समता का पुर्ण अभाव हैं। राजनीति में हमें समानता तो मिली है. परन्तु सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में विषमता का ही बोलबाला हैं। हमें इस विषमता को फौरन नष्ट करना होगा । और एक बात महत्वपूर्ण स्थान रखती है कि -राजनीतिक लोकतंत्र,सामाजिक लोकतंत्र के बिना कभी कामयाब नहीं हो सकता ।

सामाजिक लोकतंत्र के अभाव के कारण आज भी जाति के अधार पर लोंगों को आपस में लड़वाया जा रहा हैं। बाबा साहेब अम्बेडकर ने आज से 80 साल पहले 25 नव. 1949 को संविधान सभा में यह बात कहीं थी और आज भी हम देखते हैं कि भारत में सामाजिक लोकतंत्र का पूर्णत: अभाव हैं। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है जीवन में स्वतंत्रा,समानता और भाई चारे के सिंद्वात को मान्यता प्रदान करना। लेकिन क्या आज हम स्वतंत्रा के इतने वर्षो के बाद भी आर्थिक एवं समाजिक समानता हासिल कर सके हैं? क्या हम आर्थिक रूप से मजबूत हुये हैं?

क्या हमें इस स्वतंत्र भारत के लोंकतांत्रिक व्यवस्था के अर्तगत सविंधान प्रदत्त सामाजिक समानता या स्वतंत्रा मिल पाई हैं। मैं तो कहता हूँ कि हमें सविधान प्रदत इन सभी प्रकार की स्वतंत्रता एवं समानता अर्थात आर्थिक सामाजिक एवं शैक्षिक समानता नहीं मिल पाई हैं। इसका पूर्णत: अभाव हैं। तभी तो हमरा विशाल जनसमुदाय जिसमे मा.कांशीरामजी ने बहुजन समाज का नाम दिया हैं। हम आज भी शोषित,दलित, दमित, असहाय पीडि़त हैं। जो दर-दर ठोकरे खाता हुआ  रोटी, कपड़ा, और मकान के लिये तरस रहा हैं।

यदि आज हम यह कहते हैं कि हमारे शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सुधार आया हैं, तो ऐसा कहना भी हमारी नादानी ही होगी। यदि सचमुच में इन क्षेत्रों में हमारी स्थिति अच्छी हुई हैं, कहते हैं तो यह भी हमारी भूल होगी , भारतीय समाज व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा, समाज, अर्थ, राजनीतिक, क्षेत्रों में यदि हम स्वर्ण समाज से तुलना करते हैं, तो हम अपने को वहीं के वहीं पाते हैं। जिस जगह हम स्वतंत्रा के पहले थे आज भी वहीं हैं। लेकिन हमें इसका आभास नहीं हो पाता हैं और हम समझने लगते है कि हम बहुत आगे निकल गये हैं।

हमारे पास पद हैं, प्रतिष्ठा हैं, धन हैं, सामाजिक स्थिति अच्छी हैं, राजनीतिक स्थिति भी अच्छी हैं, और हम खुशहाल जीवन जी रहे हैं यही सोच हमको एक सीमित दायरे में रख दिया हैं और हम बाहरी दुनिया को और अपने बहुतयात भाईयों के बदहाल जीवन से अनभिज्ञ रहने लगे हैं।

यहीं वजह हैं कि आज भी स्वर्ण समाज हमारी आपकी इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठाते हुये आपको अपनी मिठी चिकनी चुपड़ी बातो से उलझाकर हमारे बहुजन समाज आर्थात शूद्र समाज का भरपूर फायदा उठा रहा है जिसे आज हमें समझने की आवश्यकता हैं उनकी चतुराई शोषण और चालाकी से आप सब अवगत भी होंगें कि स्वर्ण समाज शूद्र समाज को दरकिनार करते हुये  कैसे - कैसे चालों से आपकों परास्त करते हुये आज भी हमारे आपके उपर राज कर रहा हैं। इनसे हमें बचना होगा।

वास्तविकता तो यह हैं कि सदियों से कलुषित मनुवादी व्यवस्था शूद्र समाज (बहुजन समाज )के लिये अभिषाप सिद्व हुयी हैं। पुरोहित तथा धर्म के ठेकोदारों ने मानव धर्म एवं दया को अंधविश्वास का चोला पहना दिया। स्वर्ण व्वयस्था के रहते धर्म अधर्म में तथा दया हिंसा में बदलती गयी। नारी पूजा और तत्संबंधी सम्मान को व्याभिचार में डुबो दिया। भारत भूमि पर समाजिक भेद भाव स्वयं पैदा नही हुआ बल्कि मनुवादी व्यवस्था ने खुली छूट दी । मानव जाति को एक से अनेक टुकड़ों में बांटने का षड्यंत्र में मनुवादी व्यवस्था पूर्णत: सफल रही।

कालिख से पुती इस व्यवस्था ने दक्षिणी भारत में अपना विकराल रूप प्रदर्शित किया। इसके अन्तर्गत शिक्षा मानव जाति के लिये सार्वजिानिक न होकर आश्रम तथा गुरूकुलो तक सीमित रही , जहां वेद पुराण तथा शस्त्रों के अधार पर ब्राम्हण, क्षत्रीय,वैश्य, और शूद्र तथा अति शूद्र जातियों में बँटे भारतीय समाज में वर्णाश्रम को मजबूत बनाये रखने का पाठ़ पढ़ाया गया। देव आहुति के नाम पर पशुओं और नर बलि को महत्व  दिया गया।

यज्ञ हवन और उपवास बा्रम्हणों की नियति बन गयी। मंदिरो में मंत्रोचारण की कष्ट विनाशक कर्मकांड़ो ने दलित एवं शोषितो के वस्त्र और बाल तक उतरवा लियें। अछूत जनमानस को कंगाल बना दिया गया। ईश्वर अथवा देव दर्शन के नाम पर अछुतो के लिये रास्ते और गलियारो में काटें बिछा दिये गयें शिक्षा को तालो के भीतर बंद कर दी गयी ,नारी की समझ और स्वाभिमान का सूरज छिप गया। अशिक्षित और बेबस नारी को देवी से देवदासी बना दिया गया। धर्म के संरक्षकों ने शूद्रों को भाग्य भागवान तथा परलोक सुधारने की दहलीज पर लाकर पटक दिया।

स्वर्णो के घिनौने कृत्य तो बहुत सारे हैं जिनको मै बताना उचित नही समझता क्योंकि आज आप भी एक अच्छे पढ़े लिखे इन्सान हैं आपकों अपने हित-अहित की बाते मालूम होनी चाहिये। अत: साथियों मै आप सभी से निवेदन के साथ कहना चाहूँगा कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था  के अंतर्गत बहुजन समाज (शूुद्र समाज) के सभी लोगों के उन्नति और अवसर के रास्ते मनुवादियों ने अपनी स्मृतियों धर्मशस्त्रों पुराणों एवं वेदो के तहत बंदकर रखे थे।

जिस मनुवादी व्यवस्था  के द्वारा  किसी भी क्षेत्र में आप विकास के अवसर प्राप्त नहीं कर सकते लेकिन इस बंद रास्तो को तोडऩे वालो की पंक्ति में मानव मसीहा बाबा साहेब ड़ा. अम्बेडकर ने अपने जीवन जीने के सारे अवसर भारतीय संविधान की रचना कर आपकों खुले आसमान में, खुली साँसे लेने के लिये छूट दे दी हैं। यही वजह हैं आज हम आजाद पंक्षी की तरह स्वतंत्र विचरण कर  रहे हैं। लेकिन यह बात भी आप मत भूलिए कि आप आसमान की उंचाईयों में जैसे ही उड़ान भरने की कोषिष करते हैं तो आपके पर काटने में मनुवादी लोग जरा भी देर नहीं करते हैं।

वैसे ही जैसे पिंजरे में कैद पंछी के पर मालिक बीच-बीच में कुतर देता है ताकि वह पंछी आसमान में स्वतंत्र न उड़ सके। इस बात में सचचाई है, आप इसे गंभीरता से चिंतन कर के देखिए तो। और आज हम सामाजिक, राजनॅैतिक, आर्थिक एवं र्शैिक्षक क्षेत्र में विकास के अनेक आयामो को प्राप्त करने में सफल हुये हैं इसके पीछे बाबा साहेब का बहुत बड़ा योगदान है।

लेकिन यह भी सच हैं कि अपने कर्तब्यों से विमुख होकर मनुवादी व्वयस्था के जाल में पुन: फंस गये हैं, और फंसने भी लगे हैं। जिस जाल को हमारे महापुरूषों, संतो, गुरूओं यथा-कबीर, नानक, रैदास, गुरूधासीदास, महात्मा फूले, साहूजी महाराज,पेरियार जैसे स्वतंत्र चिंतन कर्ताओं ने तथा बाबा साहेब आम्बेउकर ने संविधान लिखकर स्वतंत्रता एवं समानता कि बात कहकर मनुवादी जाल को नष्ट कर दिया हैं।

अब भी हम सचेत हो जाये तो ड़ा. अम्बेडक़र का सामाजिक समानता व स्वतंत्रता सहिष्णुता लाने तथा गरीबी व पीछड़ेपन का सफाया करने का मिशन पूरा हो सकता हैं। एक शायर कैस राम पुरी ने अपनी कविता में क्या अच्छी बात कहीं हैं -
            
               ‘‘जरूरत हैं एक कायद हो , एक परचम हो, एक सफ हो 
                कभी बिखरी हुई कौमो को कुर्द - ओ - फर नहीं मिलता 
                समझते क्यों नहीं आखिर हमारी कौम यह नुकता 
                   कि लुट जाते हैं वह राही जिन्हे रहबर नहीं मिलता ।।’’

अर्थात शायर कहता हैं कि वक्त की जरूरत हैं कि बहुजन समाज का एक परखा हुआ लीडऱ हो, एक पार्टी का झंड़ा हो, तथा पूरा समाज एक राजनैतिक प्लैट फार्म (पार्टी) मेें हो क्योकि यह वास्ताविकता हैं जो कौमे बिखरी हुयी रहती हैं, एकजुट नहीं होती उन्हे स्वाभिमान या - शांन - शौकत कभी नहीं मिलती । यह बात पूरी तरह से बहुजन समाज के लोगों को दिल दिमाग में बैठा लेने की जरूरत हैं कि वह कारवाँ लूट जाता हैं ,वे राही लूट जाते हैं जिनका कोई रहबर (लीडर) नहीं होता।

अत: साथियों समाज के अत्यंत पिछड़े वर्गो के उत्थान और समृद्धि के बिना पूर्ण विकास सम्भव ही नही हैं। अभी भी समाज के अत्यंत पिछड़े वर्गो के लोग तथा वे सब जिन्हे ऐतिहासिक रूप से नजर अंदाज किया जाता रहा हैं। विश्व व्यापारीकरण (वैश्वीकरण) तथा आर्थिक उन्नति  व विकास के लाभों से वंचित हैं।

आर्थिक व राजनैतिक बराबरी के साथ-साथ सामाजिक लोकतंत्र का लक्ष्य भी हमे प्राप्त करना हैं। हमारा कार्य हिमालय पर चढऩे के समान हैं। उंचे शिखर हमें आकर्षित तो करते हैं पर उन तक पहुंचने वाली सीढिय़ों पर हमारा ध्यान नहीं जाता।

यह पंक्ति भी वास्तविक है कि-‘‘जो कौम अपने वास्तविक इतिहास को नहीं जानती, वह कौम कभी भी उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकती।’’ यह बात भी बहुजन समाज के लोगों को अपने दिलो-दिमाग में बैठा लेने की जरूरत है।


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