जैन, बुद्ध और आंबेडकर पर क्या कहते हैं आजीवक?
कैलाश दहियाविकिपीडिया के अनुसार आजीविक या ‘आजीवक’ , दुनिया की प्राचीन दर्शन परंपरा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी या भौतिकवादी सम्प्रदाय था। भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्येताओं के अनुसार आजीवक संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी ईसापूर्व 5वीं सदी में 24वें जैन तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार के पहले यह भारतीय भू-भाग पर प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था। विद्वानों ने आजीवक संप्रदाय के दर्शन को ‘नियतिवाद’ के रूप में चिन्हित किया है। ऐसा माना जाता है कि आजीविक श्रमण नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्म यानी कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। आजीवक संप्रदाय का तत्कालीन जनमानस और राज्यसत्ता पर कितना प्रभाव था, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि अशोक और उसके पोते दशरथ ने बिहार के जहानाबाद (पुराना गया जिला) दशरथ ने स्थित बराबर की पहाड़ियों में सात गुफाओं का निर्माण कर उन्हें आजीवकों को समर्पित किया था। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में किसी भारतीय राजा द्वारा धर्मविशेष के लिए निर्मित किए गए ऐसे किसी दृष्टांत का विवरण इतिहास में नहीं मिलता। विचारधारा तर्कों पर आधारित है विद्वान पाठकों से गुजारिश है कि वे इस बहस को आगे बढ़ाये। तर्कसंगत आलेखों और रिपोर्टों का स्वागत है-सम्पादक

इस देश के इतिहास में दो क्षत्रिय, जो महावीर और बुद्ध के नाम प्रसिद्ध हैं। इन्होंने क्रमशः जैन और बौद्ध धर्म की स्थापना की थी। इस के लिए बुद्ध ने राजसत्ताओं का सहारा लिया, इसलिए वे विलुप्त होने ही थे। महावीर श्रेष्ठियों यानी सेठियों या सेठों की वजह से आज तक बचे रह गए। महान मक्खलि गोसाल के चिंतन को इन के लोग ही संभाल नहीं पाए। उन के चिंतन को प्रक्षिप्त कर जैन और बौद्ध चिंतक बन बैठे। बताइए, दोनों क्षत्रियों (ठाकुरों) ने खुद को भगवान घोषित कर रखा है! ब्राह्मण तो मौके की इंतजार में दम साध कर बैठे रहा।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर बुद्ध को दलितों में स्थापित करना चाहते हैं। यह कैसे संभव है? दलित इस देश की सत्ता में अपना हिस्सा चाहते हैं। बुद्ध उन्हें जंगल का रास्ता दिखा रहे हैं। यह राजनीति के स्तर पर विरोधाभास है। यह भी ध्यान रहे, बुद्ध की उठ-बैठ सामंतों- राजाओं के बीच रही, कहने को भले वे अपने मठों में रहते रहे हों। पूछा जाए, किसी संन्यासी या भिक्षुक का सत्ताधीशों से क्या लेना-देना?
फिर, चिंतन के स्तर पर तो बुद्ध का दलितों से किसी भी तरह का संवाद संभव नहीं। वे वर्णवादी- पुनर्जन्मवादी संन्यासी हैं, जो घर छोड़ कर भागे फिर रहे हैं। लेकिन, ये अपने घर छोड़ने का रहस्य किसी को बता नहीं रहे। जानने वाले इस रहस्य को भली-भांति जानते हैं। जिन्हें नहीं पता वे डॉ. धर्मवीर की घरकथा 'मेरी पत्नी और भेड़िया' पढ़ सकते हैं। जैसे-जैसे इस देश में गोसाल का चिंतन फैलता चला जाएगा दलितों के बीच जबरन लाए गए बुद्ध विलुप्त होते चले जाएंगे।
एक अन्य बात, अक्सर वैशाली के लोकतंत्र की चर्चा की जाती है। लेकिन बताया जाए, वैशाली का लोकतंत्र कुलिकों अर्थात सामंतों का तंत्र था, जिस में लोक के लिए रत्तीभर भी जगह नहीं थी। आम्रपाली के यहां इन्हीं सामंतों का आना-जाना था। एक अन्य बात, एक जैन लेखक के अनुसार आम्रपाली महावीर को पाना चाहती थी, उपन्यासकार ने लिखा है, 'हां, मैं तुम्हारी एकमेव नारी, ओ मेरे एकमेव पुरुष, मैं केवल तुम्हें अपने गर्भ में धारण करना चाहती हूं।
आम्रपाली का गर्भाधान कर सके, ऐसा कोई पुरुष इस पृथ्वी तल पर आज विद्यमान नहीं। त्रैलोक्येश्वर का अजित वीर्य ही आम्रपाली झेल सकती है।'(४२) उधर, बुद्ध आम्रपाली को अपनी शरण में ले रहे हैं! यह कैसा जादू है? बताइए, पत्नी को छोड़ कर जा रहे हैं, लेकिन आम्रपाली की सुनी जा रही है! इसे क्या कहेंगे? यहां उपन्यासकार की कल्पना की बात नहीं की जा रही।
उन को यह कैसे सूझा? बताया जाए, किसी की कल्पना उस की परंपरा में ही पैदा होती हैं। फिर, यह भी ध्यान रहे, महावीर और बुद्ध में एक पीढ़ी से ज्यादा का अंतर है। यहां बताना प्रासंगिक होगा, मक्खलि गोसाल ने हालाहला से विवाह किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने हालाहला को आजीवक धर्म में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। हालाहला विश्व में पहली और आखरी स्त्री धर्मगुरु हैं। इस अंतर को सभी को ध्यान रखना चाहिए।
यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि श्रेष्ठियों और राजसत्ताओं को समर्थन देने वाले महावीर और बुद्ध जैसे सामंतों की वजह से इस देश में सामाजिक और आर्थिक क्रांति रूकी हुई है। इन सामंतवादी विचारकों ने मूल ज्वलंत मुद्दों गरीबी, जातिवाद, जारकर्म को छुपा कर उन्हें क्रमशः कर्मफल, पुनर्जन्म, मोक्ष जैसी झूठी शब्दावली से उलझा दिया। इस झूठी शब्दावली को ये अध्यात्म भी कहते हैं। इस में 'ब्राह्मण' विशेषज्ञ हो कर इन से आगे निकल गया है। वैसे पूछा जाए, इस अध्यात्म से व्यक्ति की गुलामी को खत्म करने में किस तरह की मदद मिलती है? ऐसे ही हजारों सालों से बलात्कार इस देश में ज्वलंत मुद्दा है, जो सीधे दलितों से जुड़ा है।
इस नृशंस अपराध पर ये सामंत 'क्षमा' की बात करते हैं। यह सोचने वाली बात है कि कोई बलात्कारी को माफी की बात कैसे कह और सोच सकता है? असल में, बलात्कारी के रक्त संबंधी ही उसे बचाने की सोच सकते हैं। इस रूप में पूरी द्विज परंपरा बलात्कारी के पक्षधर की ठहरती है। इसी द्विज परंपरा में यौन अपराधी जार को बचाया गया है। इसी जार से भयभीत लोग घर छोड़ कर जंगल का रास्ता पकड़ लेते हैं। ऐसे भगवान अगर डाकुओं, हत्यारों और अपराधियों को अपनी शरण में लेते हैं, तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। महान गोसाल ऐसे ही सामंतों से तो संग्राम कर रहे थे।
इन क्षत्रिय भगवानों के चिंतन को भी देखा जा सकता है। एक शाकाहारी-मांसाहारी की बहस में उलझा रहे हैं तो एक हिंसा-अहिंसा का नकली विवाद खड़ा कर रहे हैं। बताइए, दुनिया के सब से हिंसक लोग अहिंसा का पाठ पढ़ाने का नाटक कर रहे हैं। ध्यान रहे, वर्ण की बात करने में उतनी ही हिंसा छुपी है उतनी दो कबीलों के बीच होती है। यह कहने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए कि वर्णवादी दुनिया में सब से हिंसक लोग हैं।
ऐसे ही महावीर शाकाहार का पाठ पढ़ा रहे हैं! तत्कालीन समय में बड़ी संख्या में लोगों को 'मरे जानवर का मांस' खाने को मजबूर कर दिया गया, तब वे किसे समझाने की कोशिश कर रहे हैं? फिर, ओशो जैसे भगवान अपनी जैन परंपरा में कह उठते हैं 'महावीर या महाविनाश।' असल में, महावीर श्रेष्ठियों के भगवान थे, जिन का पेट आज भी सब से बड़ा देखा जा सकता है। आज इसी शाकाहार को 'वीगन' कहा जा रहा है। एक झूठी बहस दुनिया में चलाई जा रही है।
वैसे, इस 'शाकाहार' के माध्यम से तत्कालीन भारत को समझने में मदद मिलती है। अल्पसंख्यकों के पास बेशुमार संपत्ति इकट्ठी हो गई थी, जबकि बहुसंख्यक भूख से मर रहे थे। गोसाल की लड़ाई भूख फैलाने वाली व्यवस्था के ही खिलाफ थी। इसी लिए कहने वाले गोसाल को भौतिकवादी दार्शनिक भी कहते हैं, जिन के चिंतन से ही कार्ल मार्क्स पैदा होते हैं। ध्यान रहे, यह निरा भौतिकवाद नहीं है। इस में सहस्त्रवीणा और इकतार की झंकार शामिल है। उधर, इन तथाकथित भगवानों के चिंतन से कैसे लोग सामने पैदा होते हैं बताने की जरूरत नहीं।
यह सच है कि डॉ. अंबेडकर ने बुद्ध को समर्थन दे कर इस देश में संभावित क्रांति को रोका है। वे ब्राह्मण के समझाए में आ गए थे, जो अपनी ही लिखी किताब को जलाने का प्रपंच कर रहा था। पर इस से कुछ हुआ भी? वैसे भी किसी किताब को जलाने या दहन करने से क्या होता है? विचार को विचार से काटा जाता है। फिर, दलितों में कुछ लोग आरक्षण को ही क्रांति का पर्याय मान बैठे हैं।
लेकिन, आरक्षण से क्रांतियां नहीं होती। वैसे भी आरक्षण की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। इस में राजनीतिक आरक्षण तो बुरी तरह फेल हुआ है। यहां यह भी ध्यान रहे, डॉ. अंबेडकर ने किसी तरह के आरक्षण से यह मुकाम हासिल नहीं किया है।
कोई पूछ सकता है, डॉ. अंबेडकर एक क्षत्रिय को दलितों के बीच क्यों ले कर आए? इसे आप उन की चालाकी समझें या कुछ भी। वे जानते थे की दलित तो बुद्ध के बारे में कुछ जानते नहीं। वे जैसा कहेंगे उसे दलितों को मानना ही पड़ेगा। महार तो जाति की वजह से उन की बातों को आंखें मूंद कर मान ही रहे थे। आज भी महार 'रैदास कबीर' की कहां सुनते हैं? तो प्रक्षिप्त बुद्ध दलितों के बीच स्थापित कर दिए गए।
यह सभी जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने बुद्ध को अपने हिसाब से प्रस्तुत किया है। उन की जो बाईस प्रतिज्ञाएं हैं, वे खुद के लिए हैं बुद्ध के लिए नहीं। यानी, डॉ. अंबेडकर बुद्ध को अपने पीछे चलने के लिए कह रहे हैं। यह कैसे संभव है? एक धर्मगुरु अपने शिष्य के पीछे कैसे चल सकता है?
फिर, इधर तो बुद्ध किसी गिनती में ही नहीं हैं। हां, एक दादा अपने पोते की बात जरूर सुनता है। कबीर ने धर्मवीर की अक्षरशः मानी है। एक बात और, महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने अपने इस बालक की एक बात को भी इंकार नहीं किया। इसीलिए आजीवक परंपरा पीछे से आगे और आगे से पीछे एक समान चलती है।
एक बात और, आजीवक परंपरा लोक में विद्यमान है। यह परंपरा श्रम के साथ-साथ गीत, संगीत और नृत्य की है। यह परंपरा महान मक्खलि गोसाल से आई है, जो सहस्त्रवीणा बजाते थे, जिस पर पूरा लोक झूमता था। उत्सव इसी परंपरा की देन हैं।
संन्यासियों, भिक्षुओं और मुनियों के पास गीत, संगीत, नृत्य और उत्सव का क्या काम? तभी धम्म दिवाली और धम्म दशहरा जैसे पागलपन सामने आते हैं। और हां, श्रम से तो मुनियों, भिक्षुओं और संन्यासियों का कोई संबंध ही नहीं है।
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18/04/2021
Jai singh
आजीवक धर्म जिस दिन सार्वजनिक रूप से अपना विस्तार करेगा उस दिन सभी धर्म गौण नजर आएगी । आजीवक धर्म सबसे श्रेष्ठ और मानव कल्याणकारी धर्म के रूप में स्वीकार किया जाएगा।कैलाश दाहिया जी का लेख बहुत ही सारगर्भित और सामयिक है। बधाई ।
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