‘तीजा’ और ‘तीजा के लुगरा’ में परम्परा - आधुनिक का अर्थ विन्यास

 संदर्भं- छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति


 

तीजा

सिव-सती के मया पिरित ल, बेद-पुरान ह गाथे।
सबे जनम म पारवती ह, सिवजी ल पति पाथे।
अमर पति पाए बर देवी, करिस तपसिया भारी।
तब ले अपन सुहाग के खातिर, तीजा रहिथें नारी।

तिजिहारिन मन करत रहिथें, तिजहारा के अगोरा।
पन्दरा दिन के अघुवाही, हो जाए रहिथे जोरा।
सुरता आथे ननपन के, सखी-सहेली के नांव।
नंदिया-तरिया, घाट-घठउंदा, बर-पीपर के छाँव।

ओरी-पारी आगू-पाछू सबके तिजहारा आ गें।
जम्मों तिजिहारिन मन ए दे, मइके म जुरिया गें।
दूज के रतिहा किंजर-किंजर के करू भात ल खाथें।
तीजा के निरजला बरत ल, हँसी-खुशी रहिजाथें।

चउथ मुंधेरहा चरबज्जी ले, चाबे लगे मुखारी।
नहाखोर नवा लुगरा पहिने, पूजा के करे तियारी।
पारबती अऊ सिव ल सुमर के, मन के साध पुराथे।
मया-दुलार मिले मइके ले, तीजा के चिनहा पाथे।

ठेठरी, खुरमी, सूजी, सिंघाड़ा, ले, भर जाथे थारी।
अरपन करके भोग लगाथें फेर करथें फरहारी।
तिजिहारिन दीदी-बहिनी के, दुएच् टप्पा बोल हे।
मइके के चेंदरा अऊ, पसिया घला अमोल हे।

नंदकुमार साहू ‘साकेत’ 
 



तीजा के के लुगरा

लुगरासावन निकलिस अउ बुलकिस हे, राखी के तिहार, 
तीजा लेबर आवत होही, मोर मइके के लेनहार।
भतीजा ला देखे बर, नयना हा तरसत हे,
भउजी संग गोठियाय बर, हिरदे हा हरसत हे।
गजब दिन मा मिलही, दाई के मया-दुलार...

गंगाजल अउ भोजली मन, नंगते के खिसियासी,
चिट्ठी-पाती काबर नई भेजे, कहिके वो ओरियाही।
घुना कीरा कस मँय हर होगेंव, आके मँय ससुरार...

कइसे मनाहूँ मोर धनी ला, रिसहा वोकर बानी,
निंदई-कोड़ई के दिन-बादर हे, करही आनाकानी।
अंगठी गीनत दिन काँटत हँव, पल हा लगे पहार....

थनवार निषाद  ‘सचिन’ 
 


लोक परंपरा में अर्थ विन्यास

तीजा, अंतरंग संवाद एवं साहचर्य के साथ सजगता का संवेदनशील पर्व है। इसकी जन-जोड़ कला असीम है। ये करवाचौथ की अर्थव्यंजना के उलट है। तीजा भीतर-बाहर देखता है। बाहर-भीतर का फर्क अवलोकित करता है। चिंतन करता है। आत्मचिंतन कराता है। स्मृतियों को संजोता है। ‘मिलन’ उक्ति को अलंकृत करता है।

छत्तीसगढ़ी ‘संस्कृति’ में ‘तीजा’ थका नहीं गतिशील है; जबकि ‘संस्कृति’ शब्द अब अपने अर्थ में दासता लिए हो गया है। अर्थात इस शब्द का अब चौथरफा मूल्य नहीं रहा। क्योंकि- ‘संस्कृति का अर्थ जन की दैनिक जीवनचर्या से लेकर लोक-कलाओं तक कुछ भी हो सकता है।’ अत: तीजा भी वर्ष भर की प्रतीक्षा और सप्ताह भर की संस्कृति को सीमित समय की अर्थव्यजंना के साथ लोकमिलन में उद्भाषित करता है। 
आज भी परिवार में बहू की अहमियत एक बनिहार से ज्यादा नहीं। ससुराल में उसे आराम-अवसर का अधिकार नहीं। तीजा-समय, कृषि-समय भी है, जहाँ निराई-गुड़ाई अपनी चरम सीमा पर रहती है। कृषि सेवा में जनमानस गुंथा रहता है। जीव ससुराल का, पर माया माँ-बाप की होती है, तब उसे विश्राम कहाँ? पिता-प्रधान समाज में और भी नहीं। फिर भी, यहाँ ‘मया’ को प्रधान मानकर प्रत्येक बेटी हेतु छूट का अवसर प्रदान किया गया है। सभी बेटियाँ हैं। ऐसा लगता है, आराम का मौका एक प्रतिशत के आसपास ही ठहरता है। पिता प्रधान समाज में गुलामी का मापदंड टूट रहा है?

बेटी-माई को आराम का अवसर देना तीजा का एक उद्देश्य रहा होगा। औरत को पाँव की जूती समझने वाले इस समाज व्यवस्था में, शारीरिक आयाम में, स्त्री को पति के घर आराम संभव नहीं। शारीरिक-मानसिक प्रताडऩा से आहत, नई-नवेली दुल्हन बन ससुराल आई बेटियों को, मायके की याद प्रतिक्षण सताती है। माँ-बाप के पल भर के दुलार और भाई-भतीजों के प्यार के दो शब्दों की अहमियत क्या होती है, केवल ये ही जान सकती हैं, समझ सकती हैं। 

वीरेन्द्र तिवारी द्वारा प्रस्तुत पौराणिक मिथक के अनुसार - पार्वती पति से आग्रह करती है कि चलो जी मेरे पिता दक्ष के यहाँ! चूँकि शंकर जी को आमंत्रित-निमंत्रित नहीं किया गया था, फलत: शंकर जी पार्वती के आग्रह को कोई तवज्जों नहीं दे रहे थे। बार-बार आग्रह करने पर शिव जी ने कहा - ‘ते जा’, ‘ते जा’, ‘ते जा’। छत्तीसगढ़ी उच्चारण में ’ते जा’ संबोधन बिगड़-सुधर कर तीजा में परिवर्तित हो गया होगा।
नंदकुमार साहू ‘साकेत’ का पौराणिक दृष्टिकोण है - श्रुति परम्परा में पार्वती प्रत्येक जनम में पार्वती, सदा शिव जी को ही पति पाती हैं। बेहतर तप-जप-व्रत से अपनी मनोकामनापूर्ण कर पति शिव को प्राप्त कर लेती है। दृष्टांत है - श्रमपूर्णता से सफलता मिलती है। शिव का अर्थ ही कल्याण से है।

कल्याणकारी पति श्रमशील पत्नी पाकर उसके साथ सहभागिता निभाता है। सुख-दुख में भेदभाव नहीं करता। पत्नी का सुहाग पति है। जुग-जोड़ी है। अत: मंगलकामना हेतु शिव के सत्य से सत्य, मिलाने तीजा उपवास व्रत रखा जाता है। पार्वती व्रत किया करती थी। उसी श्रुति परंपरा में स्त्रियाँ तीजा उपवास करती हैं। शिव-पार्वती समाज कल्याण के शांति कारण है। शिव शांति श्मशान में भी है और बैकुण्ठ में भी। दुर्भाग्य है, पत्नी-मंगलकामना हेतु पति व्रत छोड़ते नहीं?

सिव-सती के मया पिरित ल, बेद-पुरान ह गाथे।
सबे जनम म पारवती ह, सिवजी ल पति पाथे।
अमर पति पाए बर देवी, करिस तपसिया भारी।
तब ले अपन सुहाग के खातिर, तीजा रहिथें नारी।

तीजा पति के घर क्यों नहीं? कारण है, कामनाओं का अंत नहीं। कामभाव से मुक्त व्यक्ति प्रसन्न रहेगा। प्रसन्न चित ही संयमित होगा। मन को एकाग्र (आध्यात्मिक) करेगा। दुआ, सलाम, आराधना करेगा। ये सभी पति के घर नहीं निभते। क्या भरोसा घर में पति को देखते ही काम देवता आक्रमण कर दे! मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जीत ही उलट में तीजा है। 

तिजिहारिन मन करत रहिथें, तिजहारा के अगोरा।
पन्दरा दिन के अघुवाही, हो जाए रहिथे जोरा।

तीजा लेवाने आयेंगे! नारियों को एक पखवारे से इंतजार रहता है। यही सोच रहती है कि मायके वाले कोई-न-कोई आयेंगे ही! तीजहारिन की मानसिक दशाएँ भी कम नहीं है। माँ, बेटी, बहिन....., और इनका बचपन की सखियों-सहेलियों से मिलना, उनका एक साथ नदी-तालाब, घाट-घटौंदा का मिलन, पेड़ों के छाँव तले खेलना आदि, भूली-बिसरी यादें ताजा हो जाती हैं। संतोषानंद लहरें हिलोर मारने लगती हैं। कोई आगे, कोई पीछे, अपने-अपने मायके में पहुँचती हैं, तब तीजहारिनों का जुड़ाव हो जाता है। नारी मित्रों का नारी मित्रों से योग संभावित है।

सुरता आथे ननपन के, सखी-सहेली के नांव।
नंदिया-तरिया, घाट-घठउंदा, बर-पीपर के छांव।
ओरी-पारी आगू-पाछू सबके तिजहारा आ गें।
जम्मों तिजिहारिन मन ए दे, मइके म जुरियागें।

उपर्युक्त कविता का साम्य है -
सावन निकलिस अउ बुलकिस हे, राखी के तिहार, 
तीजा लेबर आवत होही, मोर मइके के लेनहार।
भतीजा ला देखे बर, नयना हा तरसत हे,
भउजी संग गोठियाय बर, हिरदे हा हरसत हे।
गजब दिन मा मिलही, दाई के मया-दुलार...

दोनों पदों में कोई विशेष अंतर नहीं। सचिन निषाद की कविता चौपाल में (रायपुर संस्करण) 21 अगस्त 2014 में प्रकाशित हुई। नंदकुमार साहू ’साकेत’ की कविता 24 अगस्त को दैनिक दावा राजनांदगाँव संस्करण में छपी। 

जनकविता का स्पष्ट मिथक होता है। उसकी भाषा का मूलाधार कैसा है? सामाजिक कार्य क्या है? भाषा उदाश्र उत्सर्ग क्या है? दोनों छश्रीसगढ़ी भाषा में है। इनके प्रेमात्मक (रागात्मक) संघर्ष का मैत्रीभाव करूणापरक है। ऐसे भाव दुनिया के बादशाह के लिए होते हैं। 

कबीर के शब्दों में -
कबिरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि करि, सौ पैसे घर माहि ।।

अर्थात घर, मौसी का नहीं, प्रेम का है। यहाँ रोने-धोने या अनुनय-विनय से काम नहीं चलेगा। प्रेमघर में वहीं प्रवेश करता है, जो सिर उतार कर अपने हाथ रख लेता हो। 2 इसीलिए तीजहारिन अपना अहम् पृथक कर परमेश्वर से पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। 

तिजहारिन का मायका, काल-दूरी पर निम्नलिखित दोहा भी साम्यता दिखाता है -
कमोदिनी जलहरि बसै, चंदा बसे अकासि।
जो जारी का भावता, सो ताही के पासि।।

कुमोदनी जल में रहती है और चंद्रमा आकाश में पर इस दूरी का अनुभव न करते हुए भी अपने प्रियतम के दर्शन से कुमुदिनी खिल जाती है। जो जिसे प्रिय है, वह उसके पास ही है, चाहे स्थान और काल की कितनी भी दूरी हो।3

रैदास ने भी इस धागे को प्रेम से गीला किया -
प्रेम पंथ की पालकी, दास बैठियो आय।
साँचे सामी मिलन कूँ, आनंद कहि न जाय।।

अर्थात ’’प्रेम-भाव की पालकी पर सवार होकर प्रभु से मिलने को उत्सुक हूँ। मिलन की उत्कंठा में जो आनंद छिपा है। वह सचमुच वर्णनातीत है।’’ दाम्पत्य में एक दूसरे के बगैर जीवन काटना मुश्किल है। प्रभु के आनंद में पति की दीर्घायु तीजा से जुड़ी है। यह परम्परा अद्भुत है। लौकिक-अलौकिकता में परिवार और रिश्तों के महामिलन का अद्भुत मिश्रण है, तीजा। तिजहारिन के लिए मायके में मन चंगा ही चंगा है, तब तो कठौती कैसी भी हो (मायका जैसा भी हो...), गंगा ही गंगा है।5 यहाँ तीजाव्रत की उदाश्रता, रूपाकार हो जाता है। 

नंदकुमार और निषाद ने अपनी कलम से तीजा को साहित्य-कला में जिस प्रकार संजोया है वह नैतिक-सामाजिक संस्कृति संदेशा प्रदान करता है, क्योंकि ‘‘श्रेष्ठ कलाएँ और उदार शिक्षा, हमारे अंदर ऐसे संस्कार डालते हैं कि हमारा मानसिक परिवेश अधिक विस्तृत सहिष्णु और समावेशी बन सके।’’

सचिन निषाद ने इसे आगे की पंक्तियों में स्पष्ट किया है -
गंगाजल अउ भोजली मन, नंगते के खिसियासी,
चिट्ठी-पाती काबर नई भेजे, कहिके वो ओरियाही।
घुना कीरा मँय हर होगेंव, आ के मँय ससुरार...

अपवाद छोड़ दें तो ऐसा कम होता कि दाम्पत्य जीवन ‘घुना कीरा कस’ होता है। नारी जीवन कठिन-कठिनाईयों भरा होता है। दाम्पत्य जीवन उतार-चढ़ावयुक्त रहता है। ऐसा दुनियादारी में होगा ही! गाँव में तिजहारिनों का संगी सहेलियों से मुलाकात होने से विस्मृतियाँ, स्मृतियों में तब्दील हो ताजी हो जाती हैं। मान-मनौवल भी होता है। तिजहारिनों की वास्तविक चिंता, मायके के वातावरण से जुड़ती है। मायके-ससुराल दोनों पक्षों को स्मृतियाँं-विस्मृतियाँ देते हैं। आनंद को प्रफुल्लित करते हैं। इसका कारण है - जिस ससुराल से तिजहारिन मायके रवाना होती हैं उसी मायके में अन्य तिजहारिनों का ससुराल होता है।

वे भी अपने मायके में तीजा मनाने जाती हैं। आदान-प्रदान का सौंदर्य उभरता है। यह सौंदर्य मनुष्य-मनुष्य को जोड़ता है। सामूहिकता को और श्लेष कर देता है। विलगाव नही! ’’मनुष्य को केवल स्मृति ही नहीं विस्मृति भी दी गई है और दोनों का ही जीवन को स्वस्थ रखने में आत्यन्तिक महत्व है। ’क्या भूलें क्या याद रखें’, यह विवेक की बात है, जिसका संबंध मनुष्य की बुद्धिमता में है।’’7  तब तिजहारिनें प्रेम जोडक़र मया का विस्तार कर रही हैं। 

नंद कुमार साहू तिजहारिनों के उपवास का प्रारंभ से अंत तक छश्रीसगढ़ी में सुंदर चित्रात्मक वर्णन करते हैं -

दूज के रतिहा किंजर-किंजर के करू भात ल खाथें।
तीज के निरजला बरत ल, हँसी-खुशी रहिजाथें।

चउथ मुंधेरहा चरबज्जी ले, चाबे लगे मुखारी।
नहाखोर नवा लुगरा पहिने, पूजा के करे तियारी।

पारबती अऊ सिव ल सुमर के, मन के साध पुराथे।
मया-दुलार मिले मइके ले, तीजा के चिनहा पाथे।

ठेठरी, खुरमी, सूजी, सिंघाड़ा, ले, भर जाथे थारी।
अरपन करके भोग लगाथें फेर करथें फरहारी।

तिजिहारिन दीदी-बहिनी के, दुएच् टप्पा बोल हे।
मइके के चेंदरा अऊ, पसिया घला अमोल हे।

अंतिम कवितांश में मूल तथ्य मायके वालों से बेटी, माई बहिनी को चार हाथ लुगरा, प्रेम-वाणी सुघ्घर भोजन की ही आशा ज्यादा रहती है। भारतीय संवैधानिकता सभी को बराबरी का दर्जा देती है। जमीन-जायदाद में भी हकदारी बताती है। परन्तु बहुलांश में स्त्रियाँ मायके से बांटा नहीं लेती, अब अपवाद स्वरूप शुरू हो चुका है। यह तिजहारिनों का मया-प्रेम संबंधी तीजा-दर्शन है। यह परम्परा अटूट है। चाहे इसके लिए पति की नाराजगी ही क्यों न हो। संविधान प्रयोग से अनेक परम्पराएँ टूट पायी? (यहाँ स्वस्थ परंपरा से अर्थ है) संविधान अनेक प्रथाओं को तोड़ नहीं पाया। संविधान का पुनर्निमाण नहीं होना चाहिए? या संसोधनों से काम चल जायेगा!

अब सचिन निषाद की कविता की अंतिम पंक्तियों पर आते हैं -
कइसे मनाहूँ मोर धनी ला, रिसहा वोकर बानी,
निंदई-कोड़ई के दिन-बादर हे, कर ही आनाकानी।
अंगठी गीनत दिन काँटत हँव, पल हा लगे पहार...

नंदकुमार साहू का अंतिम कवितांश ‘अर्थ’ की पारिवारिक समर्थता दर्शाता है - क्या हम पारिवारिक जिम्मेदारी निभाते हुए, सामाजिकता को अर्थ की उच्चकोटि की ओर अग्रसर कर पाये हैं? नैतिकता पूर्ण कर्तव्य वहन कराया जा रहा है। ‘मइके के चेंदरी और पसिया’ से संतुष्टि है। अग्रजीवन उठा? मुल्ला मस्जिद से घातक और इसके विपरीत दौड़ लगाकर थम जाए। लाख मैराथन हो वहीं का वहीं! अग्रचिंतन जिसे साहित्य में प्रगति-विकास कहते हैं, उपस्थित है। नहीं तो कुंवर नारायण के शब्दों में- ‘‘अधिकांश साहित्यिक समीक्षाओं का अर्थशास्त्र का ज्ञान कार्लमाक्र्स से शुरू होकर कार्ल-माक्र्स पर ही समाप्त हो जाता है।’’8 चेंदरा अउ पसिया में उच्च क्वालिटी-क्वांटिटी छिपी है? अथवा चलताउ कपड़ा का काम चलाए कामन? पेट को अघाना है, आम नहीं मिला तो टोरआम (महुँए के फूल पश्चात फलने वाला फल) ही सही। यहाँ साहू जी की कविता के बिंब-चित्र बहुपक्षीय परत खोलते हैं। पारिवारिक समाज के अर्थव्यवस्था को तोलते हैं। जहाँ विकास का ढिढ़ोरा पीटा जा रहा और खाद्यान्न सड़ाकर धान को दारू ठेकेदारों को सस्ते में उपलब्ध कराया जा रहा है। पूंजीवादी प्रकृति का रौंदता चेहरा ऐसा ही होता है। साहू जी साहित्य से साहित्य, नैतिकता से नैतिकता संस्कृति से संस्कृति तक ही सोच पेश नहीं करते बल्कि मानसिक मनोविश्लेषण में प्रस्तुत कर रहे हैं।

इसी तरह सचिन निषाद, आर्थिक मनोविश्लेषण कि ‘अर्थ’ नहीं तो विकास नहीं; मात्र औद्योगिकीकरण अर्थ नहीं है, का सच समक्ष करता है। तिजहारिन का धनी (पति) रिसहा बानी (नाराजगी) पूर्ण है? क्यों? खेती-किसानी में समय चूक गया तो धान कमतर होगा, जबकि पूरा जीवन अर्थतंत्र पर निर्भर है। ग्रामों में कृषि ही मजबूत धन है। निषाद ने अपनी कविता में तीजहारिनों का दिन गिनते हुए पीड़ा, माया चित्रित किया है। पति के अर्थ में पत्नी शीघ्र लौटेगी! और धनी की पीड़ा खेती कार्य पूरा कैसे हो? श्रम हेतु पीड़ा कारण कि भारतीय मानसून एक बराबर नहीं है, न ही रहता है। तीजा से शीघ्र लौटन की बात जोहना धनी की कर्तव्यशील नैतिकता-सामाजिकता में है। मौलिक सोच भी है। ऐसे ही सोच तिजहारिन की भी है। यहाँ काव्य सौंदर्य का अद्भुत कथन है। लोक जीवन का सुंदर चित्रण दृष्टांत है।

‘‘साहित्य की उपयोगिता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि वह हमें कितनी बड़ी जीवन दृष्टि दे पाता है- हमारे समय को कितने विविध जानदार और मौलिक तरीकों से हमारे लिए सोच समझ पाता है।’’9 तो तीजा एक सामयिक मौलिक चिंतन-कर्तव्य व्यवहार की नैतिकता का सामाजिक प्रसाधन है जिसमें टयलेट की बू नहीं है। निषाद और साहू की आधुनिक छश्रीसगढ़ी कविता, तीजा, परंपरा के संदर्भ में अनेकानेक समय-चक्र के साथ, वर्तमान पूर्णिमा बसंत को दर्शाती है और अमावस की बरसात को भी कविता शिद्दत से समय-समाज को देख रही है। इस उत्प्रेक्षा को स्वीकारना पड़ेगा। कविता अपने विकास में परंपरागत रिवाज लेकर तीजा में समरसता को प्रेम-करूणा की उच्चतम उत्कर्ष प्रदान कर रही है। जाहिर है लोक परंपरा का मौखिक आख्यान, लोक साहित्य से छनकर ही साहित्य में सजधज कर, सौंदर्य बसंत की बांसुरी में तान, लय के साथ गुंजित है। जिसमें सजग संवाद, उन्मुक्त विचरण ध्वनि, साहचर्य नाविका प्रवाहमान है।

अर्थात् शब्द-रस रहित रचना साहित्य नहीं है। शब्द साहित्य में गुणात्मक ‘मानवीय’, ‘आत्मीय’ पक्ष को प्रतिबिंबित करते हैं। ये शब्द युक्त भाषा, सौहार्द अनुभूति-सहानुभूति-स्वानुभूति, सौजन्य सहिष्णुता देती है। भाषा के शब्दों से सचिन निषाद, नंदकुमार जी सूत्रबद्धता से तालमेल, जीवन से योग कराकर करते है। जहाँ मुहावरे (हाना) अर्थविस्तार के भावसागर की गहराई अभिन्नता से मापते हैं, जहाँ भावाभिव्यजंना में लक्षण की छटा साफ-साफ देख सकते हैं -

नंदकुमार की कविता में (हाना) मुहावरे हैं - अमर पति पाये, तपस्या भारी, अगोरा (अगोरत रहिथें), ननपन के सुरता आथें, ओरी-पारी आ गें, आघू-पाछू आ गें, जुरिया गें, किंजर-किंजर के करू भात खाथें, निरजला बरत रहि जाथें, मन के साध पुराथे, चिन्नहा पाथे, मया-दुलार मिले, फरहारी करथे, दुएच टप्पा के बोल हे, पसिया अमोल हे, चेंदरा अमोल हे। 

निषाद की कविता के हाने-मुहावरे आते हैं - निकलिस अउ बुलकिस, नयना तरसत हे, हिरदे हा हरसत हे, नंगते के खिसयाय, घुना कीरा होगेंव, रिसहा बानी, आना-कानी, अंगठी मा दिन गीन के काहय, दिन पहार लागे।

उपर्युक्त हानों मुहावरों में जीवन संबंध का लगाव है। विचार-विमर्श है। दर्शन, तर्क-वितर्क है। कवित्त भी है, क्योंकि लय बद्धता है। अत: गेय है। कविता ‘तीजा के लुगरा’ और ’तीजा’ से कविता में सौंदर्य बोध उत्पन्न कर नैतिकता बोध कायम करती है। यह समरसता साव की फुहार प्रदान करती है। जनभाषा में कविता गेयबद्ध है। ये कविताएँ वड्र्सवर्थ के शब्द - ‘‘साधारण बोलचाल और दैनिक व्यवहार की भाषा में कविता रची जानी चाहिए। वह भाषा काव्य रहित नहीं, उसमें काव्य खोज सकने की क्षमता होनी चाहिए।’’10 को तोड़ती नहीं।

उपर्युक्त दोनों कवियों की कविता साधारण श्रृँंगार लिए असाधारण रूप से आलोकित और झंकृत है। इस तरह छश्रीसगढ़ी भाषा की कविताएँ अग्रसर हैं जहाँ लोकपक्षीयता में लचीलेपन की ताकत रखते है जीवन के बदलाव को स्वीकार करती हैं। 


संदर्भं

1. शब्द और देशकाल- कुंवर नारायण, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली- 110002, 2013 पृ. 80
2. कबीर ग्रंथावली- डॉ. भागवत स्वरूप मिश्र, मई 1969 पृ. 175
3. वही पृ. 169
4. रैदास वाणी जीवनी व साहित्य- रचना भोला यामिनी- अंकुर पब्लिकेशन 231, सेक्टर 15 ए नोएडा पृ. 67
5. वही पृ. 21
6. शब्द और देश काल - कुंवर नारायण- राजकमल
  प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 67
7. वही पृ. 65
8. वही पृ. 11
9. वही पृ. 30
10. वही पृ. 81
 


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