मैंने सफदर को देखा था!
देवयानी भारद्वाजबीच के बरसों में जिन शहरों में रहा और जैसे-जैसे माता-पिता की छाया से बाहर अपने दोस्तियां शुरू हुई तो पढ़ने में रुचि रखने वाले दोस्त कम मिले, गर्ल्स स्कूल और कॉलेज में प्राथमिकताएं बदल गईं। सफदर हाशमी की हत्या की खबर मिली लेकिन तब भी पता नहीं था कि जिन सफदर के नाम के चर्चे हैं उन्हें मैंने देखा है, उनका लिखा पढ़ा है और उस पढ़े की छाप आज भी मन पर है।

यह शायद 1982-83 का कोई दिन था जब पापा हम बच्चों को अपने साथ मथुरा के एक इंटर कालेज में हो रहे किसी कार्यक्रम में ले गए थे। मैं तब ऐसी उम्र में थी कि दुनिया में होने वाली घटनाओं के अर्थ समझ में आने लगे थे। किस्से-कहानियां सुन कर अपने आसपास की दुनिया से उनके रिश्ते समझ आने लगे थे।
उस दिन उस कालेज के आंगन में जहां तक मुझे याद है हम लोगों के सब तरफ जमीन पर बैठने की व्यवस्था थी। दर्शकों के घेरे के बीचों-बीच एक युवाओं का समूह नाटक कर रहा था। कोई साज-श्रृंगार नहीं, मेकअप नहीं, सबकी पोशाक के रंग एक जैसे, जिसमें स्त्री पात्रों की नीली साड़ी याद है, पुरुषों ने शायद काले कुर्ते और जींस पहने थे।
औरत और मशीन यह दो नाटक उस दिन खेले गए थे, शायद कुछ और भी। यह नुक्कड़ नाटक के साथ पहला परिचय था। तब मुझे नहीं पता था कि मैं जिस व्यक्ति को यह नाटक करते देख रही हूं वह इतिहास में किस तरह दर्ज होने वाला है। मैं उस टीम में किसी का नाम नहीं जानती थी।
पढ़ने का शौक विकसित होने लगा था। सव्यसाची जी घर आते तो हम बच्चों में मुझे वे दोस्त बुलाते थे और छोटी बहन को गुप्ता जी कहते थे (गुप्ता जी दफ्तर में उनके बॉस हुआ करते थे)। बहरहाल दस-बारह बरस के उम्र में नहीं पता था कि जिन लोगों का सहज स्नेह हमें उपलब्ध है, वे कैसे कमाल के लोग थे।
उत्तरार्द्ध में उसके कुछ समय बाद कुछ नाटक छपे और मैंने वह अंक पढ़ने के लिए उठा लिया। मैं यह देख कर बहुत हैरान और उत्साहित थी कि वे सारे नाटक जो हमने देखे और उनके अलावा भी कुछ उस ही अंक में एक साथ छपे थे।
बीच के बरसों में जिन शहरों में रहा और जैसे-जैसे माता-पिता की छाया से बाहर अपने दोस्तियां शुरू हुई तो पढ़ने में रुचि रखने वाले दोस्त कम मिले, गर्ल्स स्कूल और कॉलेज में प्राथमिकताएं बदल गईं। सफदर हाशमी की हत्या की खबर मिली लेकिन तब भी पता नहीं था कि जिन सफदर के नाम के चर्चे हैं उन्हें मैंने देखा है, उनका लिखा पढ़ा है और उस पढ़े की छाप आज भी मन पर है।
बरसों बाद एम. ए. के दिनों में फिर एक ऐसा दोस्तों का समूह मिला जिसके साथ पढ़ने-लिखने का सिलसिला नए सिरे से शुरू हुआ। सफदर हाशमी का जिक्र होने लगा, दोस्त लोग नुक्कड़ नाटक करने की बातें करने लगे और पापा की लाइब्रेरी में उत्तरार्द्ध का वह अंक फिर से देखने को मिला और अचानक बचपन के यह सारे अनुभव जीवंत हो गए।
आज टेलीविजन और कंप्यूटर ने बच्चों के और बड़ों के लिए चीजें इस कदर बांट दी हैं कि दुनिया को जानने-समझने की उम्र में बच्चे तकनीक की बनाई एक झूठी दुनिया में उलझे हैं और हम बात-बात पर सोचते हैं यह बच्चों के लायक है कि नहीं।
सच तो यह है कि इस सारी दुनिया को बच्चों के लायक होने की जरूरत है। हर बच्चे के पास अपने बचपन की "मैंने सफदर को देखा था" जैसी याद का होना जरूरी है। यादों की यह पूंजी हमें बेहतर मनुष्य बनाने की ओर ले जाती है, एक बेहतर समाज बनाने का सपना देखना सिखाती है।
Add Comment