क्या जतिवाद के भंवर से निकल पायेगा सिरपुर का बौद्ध विरासत?
जातिवाद के कीचड़ से उठ रही सिरपुर विश्वविद्यालय की मांग पर जाने माने लेखक संजीव खुदशाह ने शुरू कर दी एक नई बहस
संजीव खुदशाहक्या यह विश्वविद्यालय जातिवाद की परछाई से बच पाएगा? एक बड़ा प्रश्न है। इस बीच एक मोहतरमा विश्वविद्यालय की कुलपति बनने का ख्वाब भी संजो चुकी है। लाखों तनख्वाह पाने वाले कई मेहमानों ने हवाई जहाज का फेयर लिया। लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि किस मुसीबत में इस कार्यक्रम को किया गया। समिति के अध्यक्ष के अनुसार कार्यक्रम में खर्च की गई दो लाख की राशि चुकाना बाकी है। जिसके लिए वे अभी तक चप्पले घिस रहे हैं।

डॉक्टर अंबेडकर ने जातिवाद / शोषणकारी हिंदू धर्म से छुटकारा पाने के लिए वंचित तबके को बौद्ध धर्म का रास्ता दिखाया और खुद उस रास्ते पर चले। लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि उन्हीं के अनुयाई इसे भी जातिवाद/शोषण का अड्डा बना देंगे।
इसकी बानगी आप रविवार के वैवाहकी पेज पर देख सकते हैं। बौद्ध लोग वर-वधू की तलाश में अपनी ही जाति का शर्त लगाना नहीं भूलते। बिल्कुल अपने पिछले हिंदू धर्म की तरह।
आंबेडकरी आंदोलन से विभिन्न वंचित समुदाय के लोग आकृष्ट हुए हैं। जाहिर है वे लोग बौद्ध धर्म अपनाते गए। लेकिन कतिपय दलित जाति इस पर अपना एकाधिकार समझती है। यदि कुछ लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग धर्म के स्थान पर हिंदू की जगह सिर्फ बौद्ध लिखने लगे हैं।
लेकिन जातीय अहंकार, ऊंच-नीच और भेद-भाव बिल्कुल हिंदुओं की तरह ही समाया हुआ है। बाकी दलित जातियों के सामने यह दलित बिल्कुल ब्राह्मण की तरह पेश आते हैं। यह करो, यह ना करो, अंबेडकर ने यह कहा था। खुद कुछ नहीं करेंगे, लेकिन ज्ञान पंडितों की तरह बघारेगे।
भारत में जितने भी बौद्ध विहार हैं, उनमें किसी ना किसी जाति विशेष का कब्जा है। ये जाति विशेष से कब्जा छुड़ाकर बौद्ध धम्म को कब्जा देने के लिए कतई तैयार नहीं है।
ऐसी अल्पसंख्यक दलित जातियां जो बाद में आंबेडकर के प्रभाव में आकर बौद्ध हुई। यह उनके लिए अछूत के बराबर हैं । वह बौद्ध महासभा से लेकर, बौद्ध विहार की कमेटी तक में प्रतिनिधित्व देने के लिए तैयार नहीं हैं।
यानी डॉक्टर आंबेडकर ने जिस जाति प्रथा को तोडऩे की बात हिंदू धर्म में रहते की थी। जाति से मुक्ति दिलाने के लिए जिस बौद्ध धर्म का रास्ता दिखाया था। वह ‘जाति’ बौद्ध धर्म में आकर और पुष्ट हो गई। समता समानता की मानो यहां कोई जरूरत नहीं है।
कुछ जाति अपने आप को दलितों का ब्राह्मण समझने लगी । वैसे ही अन्य दलित जातियों से भेदभाव करने लगी, जैसे ब्राह्मण करते थे । पहले पहल जिन दलित जातियों ने बौद्ध दीक्षा ली, वह बाद में आने वाले अन्य जाति के दलितों से रोटी बेटी का रिश्ता नहीं जोड़ा। रिश्ता जोडऩा तो दूर बौद्ध विहारों में प्रवेश तक नहीं करने दिया।
कई बार अन्य दलित जातियों को, जो आंबेडकरवादी हैं।
बौद्ध बनने के लिए प्रेरित किया जाता है। दीक्षा दिलाई जाती है। उनसे चंदे लिए जाते हैं। लेकिन जब प्रतिनिधित्व देने की बात आती है तो उन के पत्ते साफ कर दिए जाते हैं।
यही वह प्रतिनिधित्व की लड़ाई है जिसे डॉक्टर अंबेडकर ने लड़ी थी और आरक्षण के रूप में परिणित हुआ था। वह व्यक्ति जो अपनी जाति का विरोध करके बौद्ध हुआ।
उसकी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो जाती है। वह ना घर का रहता है, ना घाट का। ना जाति के लोग उसे स्वीकारते हैं ना दलितों के ब्राह्मण।
ऐसा ही जातिवाद का नंगा नाच आप सार्वजनिक आंबेडकर जयंती या बौद्ध कार्यक्रम में आसानी से देख सकते हैं। एक ओर बौद्धिष्ट पूरे भारत को बौद्धमय बनाने की बात कर रहे हैं। तो दूसरी ओर उन बुराई को छोडऩे के लिए तैयार नहीं है जिनके कारण बाबा साहब ने हिंदू धर्म छोडऩे की बात कही थी।
क्या आंबेडकरी आंदोलन का मतलब बौद्ध धर्म है?
कुछ बुद्धिष्ट ये मान के बैठे है कि जो लोग बौध्दत है वे ही सच्चें आंबेडकरवादी है। इसका मतलब मुस्लिम, सिक्ख, इसाई जो कि अंबेडकरी आंदोलन के लिए काम कर रहे है व्यिर्थ है। प्रेम, करूणा, भाई चारा का संदेश देने वाले ईसा मसीह और उनको मानने वाले बहुजन चिंतक कांचा इलैया इनके लिए कूड़ा है।
पंजाब के आंबेडकरवादी इन्हेल इसलिए स्वीकार्य नही है क्यो कि वे गुरूनानक को भी मानते है। तमाम मुस्लिम आंबेडकरवादी सिर्फ इसलिए दरकिनार कर दिये गये क्यो कि उन्होमने बौध्दर धर्म नही स्वी कारा।
जिस प्रकार आंबेडकर ने अपने जीते जी संविधान की दुदर्शा देखी और कहा मेरा बस चले तो मै संविधान को जला दूगां। उसी प्रकार वे आज के बौध्दो की कारगुजारियां देखते तो तुरंत बौद्ध धर्म का तिरस्कार कर देते ।
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में सिरपुर बौद्ध महोत्सव का आयोजन किया गया। बहुत मेहनत की गई। लक्ष्य था 50,000 ओबीसी को बौद्ध दीक्षा दिलवाएंगे। आयोजन समिति की अगुवाई एक ओबीसी सामाजिक कार्यकर्ता कर रहे थे।
सभी बिरादरी के अंबेडकरवादियों, बौद्धों से सहयोग लिया गया। लेकिन 3 दिन के इस कार्यक्रम में कब्जा जाति विशेष का था, या कहें किसी परिवार तक सीमित था।
वक्ताओं की तथा पुरस्कार की लिस्ट पर जातिवाद हावी था। यह भी दिखाई पड़ता है जिन ओबीसी ने सक्रियता दिखाई, जिन दिगर दलित, आदिवासियों ने अपनी जिंदगी आंबेडकर और बौद्ध आंदोलन के लिए लगा दिया। उनका प्रतिनिधित्व नगण्य था।
सिरपुर के इस आयोजन में सिरकत करने पहुंचे जाने माने दलित चिंतक एवं सामाजिक कार्यकता डॉ. गोल्डी एम जार्ज बताते है कि उन्होंने कार्यक्रम आयोजक से सोविनियर मांगा तो उस प्रतिष्ठित व्यक्ति ने यह कहकर देने से इनकार कर दिया की वे उनके बीच (बौद्ध) व्यक्ति नहीं है।
दावा किया जा रहा है कि सिरपुर को विश्वस्तरीय बौद्ध विरासत बनाएंगे। क्या इन्हीं स्थापनाओं के आधार पर विश्व विरासत बनाया जाएगा?
सिरपुर में बौद्ध विश्वविद्यालय बनाए जाने की मांग जोरों पर है। क्या यह विश्वविद्यालय इस जातिवाद की परछाई से बच पाएगा?
एक बड़ा प्रश्न है। इस बीच एक मोहतरमा विश्वविद्यालय की कुलपति बनने का ख्वाब भी संजो चुकी है।
लाखों तनख्वाह पाने वाले कई मेहमानों ने हवाई जहाज का फेयर लिया। लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि किस मुसीबत में इस कार्यक्रम को किया गया।
समिति के अध्यक्ष के अनुसार कार्यक्रम में खर्च की गई दो लाख की राशि चुकाना बाकी है। जिसके लिए वे अभी तक चप्पले घिस रहे हैं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या इस प्रकार आंबेडकरी आंदोलन से विमुख चलने वाले लोग। जो आंबेडकर की विरासत को ही नहीं समझते। वह सिरपुर बौद्ध विरासत को संभाल पाएंगे या इस तरह के लोगों से तंग होकर दलित पुन: हिंदू धर्म की ओर वापस लौट जाएगा।
यह भी देखना होगा कि कहीं ऐसे लोग रामदास आठवले, उदित राज की तरह आरएसएस के साथ गुप्त समझौता किए बैठे हो और अपनी दुकान चला रहे हो।
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