फिर चले गए रमाकांत
विनोद सावरमाकांत मध्यप्रदेश फिर बाद में छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे. हिन्दी के प्रगतिशील कथाकारों में उनकी गिनती है। राजनांदगॉव के मुक्तिबोध समारोह में बोलते हुए एक बार वे कोफ्त से भरकर कह उठे थे कि ’मुझे लोग इन्दिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय का प्राध्यापक, आलोचक, समीक्षक और अच्छे वक्ता और ना जाने क्या क्या कह डालते हैं पर मैं एक कथाकार भी हॅू इसका ख्याल लोग नहीं रख पाते हैं!’

खैरागढ़ में रहते हुए रमाकांत श्रीवास्तव ने अपना एक खूबसूरत आशियाना बनवा लिया था जिसमें सुन्दर बगीचा उन्होंने लगा रखा था। मैंने कहा कि ’आपका मकान अच्छा है।’
’लेकिन खैरागढ़ में मकान बनवाकर मुझसे गलती हो गई, मुझे भोपाल या रायपुर में मकान बनवा लेना था।’ वे अपना बगीचा दिखाते हुए बोले थे। भोपाल की खूबसूरती उन्हें बुला रही थी। वहॉ के प्रगतिशील मित्र उन्हें याद आ रहे थे और बेटे की नौकरी तो थी ही वहॉ। आखिर वहॉं उन्होंने मकान खरीद लिया। जीवन भर छत्तीसगढ़ में रहे इन्सान को कभी छत्तीसगढ़ से बाहर रहना पड़ जाए तो जो अनुभूति होनी चाहिए वह उन्हें हुई होगी। जब वे भोपाल जा रहे थे तब मैंने उन्हें कहा था कि ’अब आपको छत्तीसगढ़ की याद सताएगी ।’
उन्होंने बुझे ढंग से कहा था ’हॉ’... और फिर वही हुआ उनके छत्तीसगढ़ वापस होने की तैयारी। फोन पर बातें होती थीं तब वे कहते थे ’अब तो रायपुर आ रहा हूं। फिर शायद खैरागढ़ में ही मकान बनवा लूं।’ तब लगा कि अब वे अच्छे दिन भी जल्द आ जाएंगे जब लिखना पड़ेगा ’लौट आए रमाकांत।’
वे मध्यप्रदेश फिर बाद में छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे. हिन्दी के प्रगतिशील कथाकारों में उनकी गिनती है। राजनांदगॉव के मुक्तिबोध समारोह में बोलते हुए एक बार वे कोफ्त से भरकर कह उठे थे कि ’मुझे लोग इन्दिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय का प्राध्यापक, आलोचक, समीक्षक और अच्छे वक्ता और ना जाने क्या क्या कह डालते हैं पर मैं एक कथाकार भी हॅू इसका ख्याल लोग नहीं रख पाते हैं!’
जबकि उन्होंने कहानियॉ कोई कम नहीं लिखी हैं और ज्यादातर लम्बी कहानियॉ ही लिखी हैं इसलिए भी वे अखबारी कहानीकार नहीं बन पाए क्योंकि उनकी लम्बी कहानियों के लिए अखबारों में स्पेस निकाल पाना संभव नहीं था। वे ज्यादातर प्रगतिशील पत्रिकाओं के कथाकार रहे और ’सारिका’ जैसी लोकप्रिय स्तरीय पत्रिका में भी छपे।
मैंने उनकी लगभग दर्जन भर कहानियॉ इधर उधर पढ़ी थीं। इनमें उनकी कहानी ’पंडित और ड्रीम गर्ल’ अच्छी लगी थी। यह एक मामूली कस्बे की कहानी है जहॉ लोगों के बीच प्राथमिक सम्बंध होते हैं और रिश्तों में किसी भी प्रकार के बनाव दिखाव से दूर एक स्वाभाविक अपनापा होता है। ऐसे समय में सत्ता के कर्णधारों की सियासती चाल व्यवस्था के बीच कोई ऐसी हरकत कर बैठती है कि लोगों के इस स्वाभाविक अपनापने और विश्वास के बीच संदेह के बादल घर कर जाते हैं। आदमी आदमी से डरने और कतराने लगता है।
इस कहानी में तथाकथित अयोध्या काण्ड के घट जाने के बाद जो लोगों के रिश्तों में दरार पड़नी शुरु हुई थी उस मनोविज्ञान का बारीक चित्रण है। मैं इस कहानी को लेकरं बड़े दिनों तक उहापोह में रहा। इस कहानी को सही समझने की मेरी धारणा तब पुख्ता हुई जब प्रगतिशील लेखक संघ के रायपुर अधिवेशन में काशीनाथ सिंह ने इस कहानी की सराहना की।
रमाकांतजी के प्रति काशीनाथ सिंह जी का बड़ा स्नेह रहा। काशीनाथ सिंह उन बिरले लोगों में हैं जो अपनी अंतरंगता का लाभ सामने वाले को गाली देकर भी उठाते हैं। यह प्रेम करने का अक्खड़ बनारसी ढंग है। रमाकांत इस बात को भी बड़े खुलेपन के साथ बताते हैं कि ’काशीनाथ सिंह ने उन्हें अपना एक संग्रह भेंट किया है जिसे भेंट करते समय काशीनाथ के प्रेम का जलजला ’हर हर महादेव... के उद्घोष के साथ एक गाली देते हुए अपने अन्दाज में फूटा है।’
एक बार मैं सपरिवार बनारस गया तब रमाकांत जी ने काशीनाथ जी से कहकर वहॉ आवास की व्यवस्था करवाई थी ’मुमुक्षु भवन’ में जो तुलसी दास के ’असि घाट’ से लगा हुआ है। काशीनाथ सिंह प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम भी वहॉ करते रहे हैं। बाद में काशीनाथ जी ने अपने खैरागढ़ प्रवास के समय वहॉ से मुझे फोन किया ’विनोद... मैं ट्रेन पकड़ने के लिए दुर्ग आ रहा हूं... तुम महावीर अग्रवाल के घर मुझे मिलो और अपनी एक किताब जरुर लाना।’
मैंने वैसा ही किया और जाते जाते पान ठेले से चार पांच पान भी उनके लिए बॅधवाते गया था। उसके बाद वे ’पान खाएं सैंया हमारे’ हो गए थे। लगभग डेढ़ घण्टे उनसे चर्चा हुई थी जिसमें उनकी स्थानीयता के तहत उनके बनारसी प्रेम की झलक दिखाई दे जाती थी।
रमाकांत की एक कहानी ’सिविल लाइन में भूत’ का पाठ भिलाई में हम लोगों ने करवाया था। इस कहानी के शहर की टोपोग्राफी हमारे शहर दुर्ग से मिलती है और सिविल लाइन की ऐसी घटनायें भी, इसलिए मुझे व्यक्तिगत रुप से यह कहानी दिलचस्प लगी थी। रमाकांत की कहानियों में वैविध्य होता है पर एक खास बात जो मुझे दिखती है वह यह कि उनके लेखन में रोमान हर कहीं होता है।
स्थितियों और विद्रूपताओं का चित्रण करते समय उनकी यह रुमानी अदा हर कहीं मौजूद होती है। एक किसम की हौले हौले वाली जुबान और उसकी अदायगी। रुमानीपन की यह विशेषता लम्बी और नई कहानियॉ लिखने वाले कथाकार कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और निर्मल वर्मा में कूट कूटकर भरी थी।
बाद में रमाकांतजी ने अपने एक कथा संग्रह को मुझे भेंट किया ‘टोरकिल का शहर’। इस संग्रह की एक कहानी ’सद्दाम का सातवॉ महल’ को पढ़कर मैं चौंक उठा था। इस तरह की चौंकाने वाली कहानी के लिए हम लोग उदयप्रकाश को जानते हैं और जिनको लेकर एक किसम के जादुई यथार्थवाद का हल्ला किया करते हैं। यह कहानी एक नये रमाकांत को उद्घाटित करती है।
इस कहानी में एक तरह का ’हाइपोथेसिस’ है। एक ऐसी उपकल्पना कथाकार ने की है जिसमें युद्ध को भी पेशा माने जाने और इस धंधे में निवेश (इनवेस्टमेंट) किए जाने के कई तथ्य उद्घाटित होते हैं। जिस तरह ओलम्पिक जैसे विराट खेल समारोहों के पीछे अरबों खर्च करके भी मुनाफे की पूरी गुंजाइश रख ली जाती है उसी तरह से साम्राज्यवादी शक्तियों ने युद्ध को भी मुनाफा कमाने का एक बड़ा क्षेत्र मान लिया है।
इसमें पूंजीवादी देश अपनी सेना को इस हिदायत के साथ भेजते हैं कि दुश्मन देश के युद्ध क्षेत्र में खूब विध्वंस करो ताकि बाद में इनके निर्माण का ठेका भी हमारी कंपनियों को मिले. ये देश न केवल युद्धों के लिए विध्वंसक हथियार बेचते हैं बल्कि तबाही के बाद युद्धग्रस्त इलाकों में मरम्मत और निर्माण का ठेका भी लेते हैं. भयंकर युद्ध खेलने के लिए जितना अधिक निवेश किया जाएगा उतना अधिक मुनाफा होगा।
यह उपनिवेशवादियों का निवेशवाद है. दूसरी तरफ यह उपनिवेशवाद पर लिखी गई मुक्तिबोध की कहानी ’क्लॉड ईथरली’, उदय प्रकाश की ’वारेन हेस्टिंग्ज का सांड’ और तरुण भारद्वाज की ’एक अमरीकी मौत को श्रद्धांजलि’ की पंक्ति में खड़ी हुई कहानी है। रमाकांत की यह अन्य कहानियों की तुलना में आकार में भले ही छोटी है पर एक प्रयोगधर्मी कृति है।
हिन्दी के प्रगतिशील कथाकारों में उनकी गिनती है। साथ ही उनके पास सम्पूर्ण समीक्षा दृष्टि है। यद्यपि आलोचना पर उन्होंने ज्यादा काम नहीं किया है पर ’विजन’ उनके पास भरपूर है। वैसी ही ’विजन’ जिसके लिए नामवर सिंह जाने जाते हैं। उनकी इस व्यापक और गहन दृष्टि का पता बहुधा तब चलता है जब लोग रमाकांत श्रीवास्तव के वक्तव्यों को सुना करते हैं।
बड़े धीमे अन्दाज में पूरे विस्तार के साथ जब विषयों का वे निचोड़ प्रस्तुत करते हैं तब सुनने वालों को भी वे बिना किसी भटकाव के किसी मुकाम पर ले पहुंचते है। साहित्य और विचारधारा को लेकर हमारे कई संशय रमाकांत श्रीवास्तव दूर करते हैं।
फिर भी समीक्षा कर्म ज्यादा नहीं किए जाने की उनकी हठ बनी रही। शायद इसका कारण उनका किसी भी किस्म की हड़बड़ी और जल्दबाजी से बचकर हौले हौले चलने का अपना अन्दाज हो या फिर वे अपनी पहचान एक कथाकार के रुप में रखना ज्यादा पसंद करते हों। मुझे लगता है जब वे बोल रहे होते हैं तब एक अच्छे दृष्टि सम्पन्न समीक्षक लगते हैं और जब लिखते हैं तब उनकी कलम कहानियॉ अधिक कह रही होती हैं। तब मैं युवा था जब एक विमोचन कार्यक्रम में थोड़ा सा बोलने का अवसर मुझे भी दिया गया था।
बाद में अतिथि वक्ता के रुप में रमाकांत को सुनकर मैंने कहा कि ’सर! मैं भी आपकी तरह बोलना चाहता हॅू।’ उन्होंने हौले से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए आश्वस्त किया कि ’तुम अच्छा बोलते हो।’ एक लम्बे अन्तराल के बाद एक बार रायपुर में विश्वरंजन द्वारा आयोजित प्रमोद वर्मा स्मृति आयोजन में उन्होंने मेरे वक्तव्य की दाद दी थी। इस खुशी में हम दोनों ने मेरी कार में बैठकर अपना गला तर कर लिया था।
उनके भोपाल जाने से पहले जब भिलाई होटल में उनके सम्मान में हम सब एकत्रित हुए थे। भिलाई इस्पात संयंत्र के राजभाषा विभाग ने उन्हें बुलाया था एक आयोजन में उन्हें मुख्य अतिथि बनाकर। उस दिन भी भारतीय भाषाओं के अंतर-सम्बंध विषय पर उनके सारगर्भित भाषण को भिलाई के अधिकारियों और कार्मिकों ने गंभीरता से सुना था। फिर शाम को हम सब बैठ गए थे उनके साथ एक अपार्टमेन्ट में। इस तरह की बैठकी रखने में भिलाई के कवि अशोक सिंघई माहिर थे।
ऐसी बैठक में कहीं रमाकांत जी हों तो समझो कि और रंग आ गया। उस दिन भी रंग आ गया था। रमाकांत जी लेखक और प्राध्यापक तो हिन्दी के थे पर थे एक जाने माने संगीत विश्व-विद्यालय में। इसलिए संगीत और कला के महौल में वे रचे बसे थे। ऐसे मौकों पर वे शायर मुमताज की ओर मुखातिब हो उठते हैं - ’बोलो मुमताज मियॉ! क्या सुनाएं फैज कि मोमिन?’
’गुलों मे रंग भरे’ की एक गजल उन्होंने तरन्नुम में सुनाई फिर उसके बाद ’नावक अन्दाज’ वाली दूसरी गजल उन्होंने सुनाई। मेहदी हसन की गाई हुई दोनों ही प्रसिद्ध गजलें हैं जो पाकिस्तानी फिल्मों में भी ली गई थीं। इन गजलों को सुनाते हुए रमाकांत का दोस्तानापन अपने शबाब पर था। अपने कुछ ऐसे ही अन्दाजों के कारण दोस्तों के बीच वे दिलीपकुमार भी कहे जाते हैं।
फिर तो कर लो बात। एक बार खैरागढ़ में उनके साथ भोजन करने बैठा तो जब तक भाभी खाना लगातीं रहीं हम दोनों ’मुगले-आजम’ के धॉसू डॉयलाग सुनते सुनाते रहे थे। दिलीप वाले देवदास का इतना प्रभाव उन पर रहा कि शाहरुख खान के देवदास को भी पांच बार देख चुके थे। इस बीच भाभी बोल पड़ती हैं ’पर जो बात सुचित्रा सेन और वैजयन्ती माला में रही वो एश्वर्या राय और माधुरी दीक्षित’ में कहॉ ?’ तब रमाकांत जी माधुरी की तरफदारी करते हुए कह उठे थे ’पर चन्द्रमुखी के रोल में माधुरी में दम है !’
जाहिर है कि वे फिल्मों के बड़े शौकीन रहे और फिल्मों के दृश्यों और उनमें नायिका भेद की समझ भी उन्हें खूब है। एक बार मस्ती में वे बोल गए थे कि ’जो लेखक फिल्मों में दिलस्पी नहीं लेते मुझे तो चूतिया लगते हैं।’’
रमाकांत के साथ जीये हुए दिनों की याद करते हुए दोस्तों ने उस दिन अपनी अपनी बातें रखीं थीं तब मैंने भी कह दिया था कि ’कुछ कमजोरियां और शिकायतें हैं जो उनमें और मुझमें एक जैसी रहीं, और शायद यही हमारे बीच आत्मीयता का आधार बनी। उनके पिताजी दुर्ग के मल्टीपरपस स्कूल में प्रिंसिपल रहे और मेरे पिता भी। रमाकांत में भी रुमानी पन रहा और मुझमें भी, वे भी नक्शेबाज रहे और मैं भी। वे भी कहानीकार रहे और मैं भी अब कहानियां लिख रहा हूं।
मूलतः मैं व्यंग्य का लेखक रहा पर वो कहते हैं कि ’तुम चरित्रों को विस्तार देने में माहिर हो .. मैं तुमसे कहानी लिखवा कर रहूंगा.. और तुम्हें कहानी की दुनियॉ में लाकर रहूंगा .. देखना चार व्यंग्य संग्रहों में जो शोहरत तुम्हें मिली है वो तुम्हें चार कहानियों में दिलवाऊंगा।’ ये शायद उन्हीं की सोच का असर है कि ’वागर्थ’ के एक अंक में मेरी कहानी ’घूमती हुई छतरी के नीचे छपी’ तो बंगाल की लड़कियों के फोन आने लग गए। रमाकांत श्रीवास्तव को ऐसे फोन बहुत पहले आ चुके थे उनमें से एक था दीपा भाभी का यानी उनकी बंगालन जीवन संगिनी का।
आलेख खतम कर मैंने उन्हें फोन लगाया कि ’आप पर आलेख लिखा जा चुका है, इसे भेज रहा हॅू भोपाल का पता बताइए?’ उन्होंने हॅसते हुए कहा ’भोपाल का क्यो? अब तुम्हें रायपुर का पता देता हूं। बस अभी अभी ट्रेन से उतरा हूं। रायपुर में किराए के मकान में शिफ्ट हो रहा हूं. यहॉ रहूंगा नहीं बड़ा महंगा शहर है रायपुर... खैरागढ़ में ही कोई छोटा सा मकान देखूंगा।’
अब की बार उन्हें खैरागढ़ का उनका बचपन, कॉलेज जीवन के सहयात्री और छत्तीसगढ़ का निश्छल अपनापन बुला रहा था। फोन पर उनकी हॅसी सुनाई दी। इससे लग रहा था कि सचमुच लौट आए हैं रमाकांत, पर फिर बेटे-बहु और पोते के प्रेम ने उन्हें फिर से भोपाल बुला लिया था और तब फिर ‘चले गए रमाकांत.’
यह रचना राग-भोपाली के रमाकांत विशेषांक में वर्ष-2011 प्रकाशित हो चुकी है।
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