स्मरण : भारत के व्हेनसांग राहुल सांकृत्यायन

पीयूष कुमार

 

इनका नाम केदार पांडे था। आरंभिक शिक्षा के दौरान बाल विवाह हुआ और इससे रुष्ट केदार ने यह पंक्तियाँ सुन लीं - 

सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ
जिंदगानी रह भी गई तो नौजवानी फिर कहाँ....!
ये घर से भाग निकले और फिर रुके नहीं। इस घटना ने विश्व को एक अद्भुत व्यक्ति दिया जो आज राहुल सांकृत्यायन कहलाता है।

1930 में श्रीलंका यात्रा के दौरान इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। वे 36 भाषाओं के जानकार थे। इनकी यात्रा लद्दाख, श्रीलंका, तिब्बत, एशिया, रूस, यूरोप, नेपाल, दार्जिलिंग, किन्नर देश, देहरादून, कुमाऊं, जौनसार आदि देशों प्रदेशों में जीवन भर होती रही।

जहाँ गए, वहां की भाषा बोली सीखी और अनुभवजन्य साहित्य रचा। एक यात्रा मन की, अवचेतन की भी चलती रही।

इन्होंने विपुल और विशद साहित्य रचा है। कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, यात्रा साहित्य, अनुवाद, भाषा विज्ञान, व्याकरण, कोश निर्माण, इतिहास दर्शन, लोक साहित्य, पुरातत्व, धर्म दर्शन आदि पर 150 से अधिक किताबें लिखी हैं।

राहुल का साहित्य शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है। एक बार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था.. " जिस सभा में महापंडित राहुल होते हैं, वहां बोलने में मैं सहमता हूँ "

राहुल अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। किसानो के साथ स्वाधीनता आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। उनका चिंतन बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद का मिला जुला रूप था। उन्होंने रूढ़ियों पर प्रहार किया था और कट्टरपंथियों की आलोचना झेली थी।

आज जब इंटरनेट में चुटकियों में सब मिल जाता है, इस दुस्साहसी, कर्मठ व्यक्ति ने तिब्बत और मध्य एशिया से खच्चरों पर नदियों पहाड़ों से खासतौर से पाली साहित्य को भारत भूमि लाकर नई जानकारियों से हिंदी जगत को समृद्ध कर दिया था।

अगर भारत से साहित्य का नोबेल नामांकित करने को कहा जाता तो व्यक्तिगत रूप से राहुल सांकृत्यायन मेरी पहली पसंद होते। 
 


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