हिन्दी के कद्दावर समीक्षक यशवंत मेश्राम अब नहीं रहे
उत्तम कुमारअत्यंत दुखद समाचार है। छत्तीसगढ़ी गजल के शिल्पी, सुप्रसिद्ध कवि, गीतकार मुकुंद कौशल, प्रगतिशील लेखक, चिंतक और छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, छत्तीसगढ़ इकाई के संरक्षक महेंद्र मिश्र और अब हिन्दी के कद्दावर समीक्षक यशवंत मेश्राम का निधन हो गया है। हिन्दी साहित्य के समीक्षक, कवि, लेखक यशवंत मेश्राम का जन्म 21 नवम्बर 1960 को स्टेशनपारा, राजनांदगांव छत्तीसगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रभुलाल मेश्राम तथा माता का नाम रायवंतीबाई मेश्राम था। उन्होंने एम.ए. हिन्दी, एम.ए. भाषा विज्ञान तथा बी.टी.आई. की शिक्षा हासिल की थी। वे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें अपने माता और पिता से पठन पाठन के लिये प्रेरणा मिली। उनकी रूचि देश के नामी साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में थी। आलोचना, हंस, कथादेश, पहल वे बड़े चाव से पढ़ते थे। वर्तमान में शंकरनगर राजनांदगांव छत्तीसगढ़ में निवास करते थे।

साहित्यकार कुबेर सिंह साहू लिखते हैं कि भाई यशवंत मेश्राम एक सक्षम समालोचक होने के साथ समकालीन कविता के कवि भी थे। 2007 में उनकी एक कविता संग्रह ‘खो गया मिल गया’ प्रकाशित हुआ था। वर्तमान में वे शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला गोटाटोला में हिंदी विषय के व्याख्याता पद पर कार्यरत थे।
ओम प्रकाश साहू लिखते हैं कि बहुत ही दु:खद खबर है कि संस्कारधानी राजनांदगांव ने ‘खो गया मिल गया’ काव्य संग्रह के रचनाकार और एक प्रख्यात समीक्षक यशवन्त मेश्राम को खो दिया है। साकेत साहित्य परिषद् सुरगी जिला राजनांदगांव के वरिष्ठ सदस्य 61 वर्षीय मेश्राम शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला गोटाटोला में व्याख्याता थे। वे विगत दो दशक से साहित्य सेवा में संलग्न थे।
उनकी समीक्षा देश के प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। मेश्राम का निधन संस्कारधानी राजनांदगांव के लिए अपूर्णीय क्षति है। उन्होंने यहां की समृद्ध साहित्यिक विरासत को बखूबी आगे बढ़ाया। मेश्राम के निधन से साहित्य बिरादरी स्तब्ध है।
जाने माने साहित्यकार दादूलाल जोशी लिखते हैं कि पिछले एक सप्ताह से दुखद सूचनाओं का सिलसिला चल रहा है! दो दिन पहले मेरे परम मित्र डा सन्तराम देशमुख का फोन आया था! उन्होंने मार्मिक सूचना दी कि उनकी धर्म पत्नी, हमारी भाभी विमला देशमुख नही रही!
कल हमारे आदरणीय शीर्षस्थ साहित्यकार मुकुन्द कौशल के गुजर जाने का दुखद समाचार मिला और आज हताश करने वाली सूचना मिल रही है कि मेरे प्रिय साथी भाई यशवन्त मेश्राम हमेशा के लिए साथ छोड़ दिये! यह अविश्वसनीय पीड़ा का दौर चल रहा है! मेश्राम बहुत ही बढिय़ा समीक्षक थे! उनका चला जाना अपूर्णता क्षति है!
पथिक तारक लिखते हैं कि बहुत ही दुखद खबर है भाई यशवंत का जाना राजनांदगांव लेखक बिरादरी के लिए एक बड़ी क्षति है।
शिव ठाकुर लिखते हैं कि भाई यशवंत मेश्राम मेरे बैच मेट थे एक लम्बा समय हमने मानपुर विकासखंड में साथ बिताया था दूरस्थ पहुंच विहीन पहाडिय़ों के नीचे बसे गांव उरझे में उनकी पहली नियुक्ति हुई थी और उनके अल्हड़ मस्त मौला स्वभाव को मानो नये पंख मिल गए ऐसा मैंने देखा और महसूस किया था। यहीं से उनकी रचना धर्मिता का अविरल विकास हुआ जो एक उच्च शिखर तक पहुंचा।
देश के नामी कथाकार कैलाश वनवासी लिखते हैं कि विश्वास नहीं हो रहा। यह कैसा काल है जो लगातार हमारे प्रिय जनों को एक एक कर निगलता जा रहा है। बहुत क्रूर है ये सब। कल ही रायपुर के वामपंथी विचारक साथी महेंद्र मिश्र की और छत्तीसगढ़ी गीतों गज़़लों के सिरमौर मुकुंद कौशल के निधन की दुखद सूचना मिली, और अब यशवंत भाई भी...हमारे विचारवान साथी और सहृदय पाठक यशवंत मेश्राम के बिछुड़ जाने की आशंका अभी नहीं थी।
वे अपनी कविता ‘मरण’ में लिखते हैं कि - लाइट आफ/अप-डाउन बटन कसे/बिजली गुल होने पर/ अंधेर जैसे।/हमारी हत्या कर दी- जावेगी आज।/दो पैरों वाले खूँखार /कुत्ते भौंकते हैं।/तब रुह कॉप जाती है /शरीर में/करंट लगता है /शरीर का /जीवन निकलता है /हम असहाय/कर भी क्या सकते हैं /लडऩे के सिवा...।।/( खो गया मिल गया से)।
उन्होंने मेरे सम्पादन में कई रचनाये प्रकाशन के लिये दिये। ‘दक्षिण कोसल’ को छोड़ देने से उनका समीक्षा ‘सासाप के साप’ प्रकाशित नहीं हुआ था जिसमें उन्होंने लिखा था कि - साकेत साहित्य परिषद (सासाप) के अध्याक्ष एवं उसकी मित्र मंडली समय-चोरी से कुबेर-आलेख की कला, उसकी भाषा, उसके ज्ञान एवं सौंदर्य-शास्त्र समझ-ज्ञान-परख नहीं सके। सासाप ग्रुप के दो-एक साहित्यकार, कुबेर-आलेखों को परखने-समझने का आधा-अधूरा प्रयास किया। प्रश्न भी खड़े किए। सासाप अध्यक्ष लखन जी आलेख-सौंदर्य से अजनबी कैसे बन बैठे? लेखा-जोखा में लगने वाले मानव साहित्य-सौंदर्य को समझेगा भी कैसे?
कुबेर-आलेख के चर्चा योग्य अंश है- ‘जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!...गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआं दूर था! बार-बार जाना मुश्किल था।... गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोंटे करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊंच?...हिम्मत कर के वह ठाकुर के कुंए पर पानी लेने पहुँचती है। परंतु वह अच्छी तरह जानती है, इस भयावह अंधेरी रात में ठाकुर साहब के घर का दरवाजा खुल जाने का क्या मतलब होता है। शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।
‘दूसरे आलेख ‘छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य-परंपरा, दशा-दिशा अउ विकास का लेखांश- ‘‘दलित साहित्य के बात म कतको विद्वानमन ल अनपचक होय ल धरथे। दलितेच वर्ग के विद्वानमन के साहित्य ल लेके लिखे साहित्य ल घला दलित साहित्य माने जाए, यहू बात म मतभेद जग जाहिर हे। जउन विद्वान अउ विचारकमन ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. तुलसीराम, डॉ. सुशीला टाकभौरे जइसन विद्वानमन के आत्मकथा ला पढ़े होही वोमन अइसन विवाद म कभू नइ पडऩा चाही।
इकरमन के साहित्य म हमर सामाजिक संरचना के धिनाहीपन, हमर महान संस्कृति के कलमुहाँपन अउ हमर महान सभ्यता के अंधियारीपाख के जउन नंगा अउ भीम-सच्चाई मानव विज्ञान के जइसन मनोविज्ञान ये रचनामन म जाहिर हो सके हे वइसन दलित बाहिर रचनाकार के बस के बात कभू नइ हो सकय। आपबीती, परबीती अउ जगबीती म गजब अंतर होथे।
मय ह दलित साहित्य के ये चर्चा करेंव तेकर पीछू बात इही हरे के कइसन अउ कोन साहित्य ला बाल साहित्य मानेजाए- बालकमन के लिखे साहित्य ल कि बड़ेमन द्वारा बालकमन बर लिखे साहित्य ल?...दलित साहित्य के रचना ल लेके जउन बात करे जाथे कि एक सार्थक दलित साहित्य के रचना दलित के द्वारा की संभव हे, विही बात हर इहाँ घला लागू होथे। बाल-साहित्य के बारे में घला इही बात केहे जा सकथे कि एक सार्थक बाल-साहित्य के रचना एक बालक द्वारा ही संभव हो सकथें। बालकमन म बालसाहित्य रचे के क्षमता होथे? जरूरी होथे। कतकाहोथे, ये बात ऊपर गौर कना जरूरी हे।’
दलित साहित्य की आपबीती-परबीती-जगबीती में और वर्तमानित चलते समय में भारतीय सामाजिक संरचना में अनपचक है। इसी संरचना का हिस्सा बालक भी है। दलित साहित्य दलित ही लिख सकता है! तो बालक ही बाल साहित्य लिख सकता है! बालको-दलितों संग की परबीती-जगबीती-आपबीती की रचना-संरचना की संकल्पना में मूल अंतर है। बालक शून्य से अट्ठारह वर्ष है तथा दलित दशा दलित के समाज में जन्म से मृत्यु तक है।
आलेख के उपर्युक्त दोनोंअंश सामाजिक संरचना में दलित अनुभव-सहानुभूति संवेदन-अनूभूति-काल्पनिक अनुभूति संकल्पनात्मक अनुभूति की (यही बालक या बाल साहित्य पर भी लागू होती है) क्वान्टिटी और क्वालिटी को शोधने की कोशिश है। जहां जहां वर्णाश्रम-धर्म-जातियां जिसमें सूछूत-अछूत, अवर्ण-सवर्ण की घृणात्मक मानसिकता भी शामिल है। बालकमन में घिनाहीपन-कलमुहाँपन नहीं होता। ये सामाजिक संरचना की सत्ता में होता है। ऐसी सत्ता तथाकथित सवर्ण ही चला रहे हैं! जिसके सासाप वाले गुलाम है।
सासाप ने प्रेमचंद की कहानियों के वार्तालाप पर चर्चा नहीं की। सासाप को जाति सं जोड़ा देख बौखला उठे। राजकुमार चौधरी एवं महेंद्र बघेल मधुजी भी अपनी कलम को विराम दे गए। यशवंत के पास उनके लब खुले और ज्यादा कडक़ लिखना था। चौधरी-मधु कहानी-वार्तालाप अंश पर चर्चा कर सकते थे। ये तटस्थ क्यों रहे! जहां यशवंत चुक गए थे। तुम तुम्हारा हम हमारा का किस्सा किया! कुबेर को चेतावनी दी गई। यहां तक फतवा जारी कर दिया गया। अंतत: सासाप से कुबेर को मुक्त होना पड़ा। साहित्य, गुलामी की तमन्ना नहीं रखता। सासाप अवश्य रखता है।
इसके अन्य सदस्य भी ऐसा ही संबंध रखते है! जबकि साहित्य, गुलामी से मुक्ति का कोषालय है। कुबेर जी का बहस-प्रयोजन प्रश्न था बालकों में बाल-साहित्य रचने की क्षमता कितनी होती है? जैसा कि अदलितों में दलित-साहित्य रचना की क्षमता होती भी है? इस संबंध में दलित अनुभव पर जाहिर है ‘दलित अनुभव से जुड़ा प्रामाणिक लेखन केवल दलित ही कर सकते हैं तो कहा जा सकता है अनुभव दर्ज करने के लिए वर्ग और जाति कोई शर्त नहीं है।
लेकिन सिख या ईसाई या यहुदी या पारसी अनुभव की हिंदी साहित्य में अनुपस्थिति इस तर्क को खोखला साबित करती है। स्त्रियों द्वारा मजबूती से दर्ज किया जा रहा अनुभव भी यही बताता है।’ (आलोचना अंक 62 पृ. 132) सामाजिक संरचना में बाल साहित्य संग, देश-काल-परिस्थितिनुसार भी ऐसा होगा या नहीं होगा! लखन-ओमप्रकाश को शूद्रों का इतिहास ही नहीं मालूम है! दोनों जातीयता (कास्ट) में बूढक़र जातीयता (नेशन) की दुदुंभि बजा रहे हैं। सपेरे बन बीन बजा रहे है। ‘दलित साहित्य’ शब्दयुग्म से ही दोनों को अनपचक हो गई।
लगता है साहित्य को दोनों चारणगान की तलवार मान बैठे हैं। ऐसे लोग ही साहित्य का सरकलम करते है। बावजूद साहित्यालोचना में ‘हत्या’ मापदंड निर्धारित हुआ ही नहीं! सासाप को अनुदान मिलने से लेकर अब तक छत्तीसगढ़ के डॉ. विनय कुमार पाठक की दलित चिंतन पर लिखि पुस्तकों की एक भी प्रति संस्था के पास नहीं है। सारीर कम शोभ-उपयोग में खपा दी।
तभी तो लेखा-जोखा गु्रप-पटल पर वर्तमान तक प्रदर्शित नहीं हुआ। लखन ने पत्र में यशवंत को लिखा मिल बैठकर समस्या का हल कर लेंगे! आडिग पर लिपापोती होगी ही। खा-पी और गाना गा, मैं मेरे तू तेरे घर जा की परिदशा में सासाप चली गई। अब सासाप सतहीपन के चबूतरे पर खड़ी होकर फुहड़पन की किलकारी मार रही है। अपनी टीआरपी बढ़ाने जैसी सनसनी फैलाने में मदमस्त है। सासाप-नीति करोना के ना करो वाली जातीय तालाबंदी है? अपनी जातीयता में स्वयं की बिरादरी साहित्यकारों को प्रवासी बना डाला। कुबेरजी के अनुभूति सम्पन्न विचार, जो नवसृजन-नवाचार प्रयोजन में थे। इसकी हत्या कर डाला।
इससे पूर्व उन्होंने एक बेहतरीन समीक्षा भेजी थी जिसे मैंने ‘दक्षिण कोसल’ में प्रकाशित किया था। उन्होंने चर्चित अंग्रेजी लेखक क्रिस्तोफ जाफ्रलो की कालजयी रचना ‘भीमराव आंबेडकर एक जीवनी’ का विश्लेषण करते हुये लिखते हैं कि वर्तमान में 90 प्रतिशत उपभोग उत्पादन किसान माली कृषक मजदूरों द्वारा होता है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चौथाई समय में भी यही दशा थी। फिर भी आर्यसमाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने अपने सत्यार्थ प्रकाश (1883) में लिखा - ‘किसान और माली मूर्ख होते हैं ।’ मनुस्मृति कहती है, ‘इस जगत में जो कुछ है वह ब्राह्मणों का ही है।’ इन्हीं कारणों से आदिधर्म आंदोलन( पंजाब, महाराष्ट्र) आदि हिन्दू आंदोलन (पश्चिम, उत्तर प्रदेश) आदि द्रविड़ आंदोलन (तमिलनाडु ) नाम शूद्र (बंगाल) नारायण स्वामी गुरु आंदोलन (केरल ) आदिआंध्र आंदोलन (आंध्र) जो गैर ब्राह्मण आंदोलन थे , उभर कर आए। ये जाति- विरोधी आंदोलन भी थे। गैर ब्राह्मणों को पिछड़ा कहा गया।
समाजशास्त्रीय भाषा में इनका प्रयास ‘जाति और उसके साथ जुड़े हुए सामाजिक दमन, आर्थिक शोषण और राजनीतिक प्रभुत्व को समाप्त कर उसके स्थान पर एक समतावादी समाज स्थापित करना था’ वस्तुत: शूद्रों के मनोबल को गिराने के लिए दयानंद सरस्वती ने लिखा-किसान और माली मूर्ख होते हैं । ताकि शत्रु चिन्हांकित हो जाएगा। किसान और माली में बंट जाएगा। और झूठा प्रचार भी हो जाएगा। ‘सत्यशोधक समाज’ जिसकी स्थापना फूले ज्योतीबराव ने 1873 में की, यह उपर्युक्त सामाजिक आंदोलनों में अधिक आमूल परिवर्तनवादी था।
सरस्वती फुले की समकालीन अवधि का , क्रमश: स्वर्थवादी - मानवीय कल्याण विचार ‘दूध पानी’ की तरह विश्लेषित हो जाता है। दोनों का मूलभावबोध - कर्तव्य बोध अलगा देता है कि ‘दयानंद सस्वती विधवाओं के विवाह के रास्ते बंद करके उन्हें नियोग के अनाचार का रास्ता दिखा रहे थे। इस अनैतिक और अमानवीय व्यवस्था के समांतर ज्योतिबा फुले अपने ही अनाथालय के ( ब्राह्मणों के अवैध ) बच्चे गोद लेते हैं और उसके हक में वसीयत भी करते हैं।’
जाहिर है, ‘फुट डालो राज करो’ अंग्रेजो की कूटनीति नहीं ब्राह्मणों की कुटिल नीति भी रही है। भारतीयता की अजीब संस्कृतिकारण के तहत निम्न जातियों - अस्पृश्यों हेतु बनाए ‘सत्य शोधक समाज’ मंच ने अपने हितों की रक्षा में अपना विलीनीकरण 1930 में कर दिया। कोशिश रहेगी कि हम ‘द कोरस’ में उनकी अन्य रचनाओं के साथ क्रिस्तोफ जाफ्रलो की पुस्तक आम्बेडकर एक जीवनी जाति उन्मुलन का संघर्ष एवं विश्लेषण के समीक्षा को प्रकाशित करें।
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