चुनाव पर एक किताब

प्रेमकुमार मणि

 

लेखक पेशेवर चुनाव परामर्शदाता हैं. यह एक नया धंधा है, जो धीरे -धीरे एक पेशे का रूप लेते जा रहा है. उन ने मिशिगन यूनिवर्सिटी से साइंस इन इकोनॉमिक्स में बैचलर किया है. प्रशांत किशोर की कंपनी IPAC (इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमिटी) से जुड़ कर पंजाब के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए काम किया है. मणिपुर त्रिपुरा में भाजपा केलिए भी काम किया है. वह अभी युवा हैं और लेखनी बतलाती है कि थोड़े जोशीले भी हैं.

किताब निसंदेह दिलचस्प है. यह सात अध्यायों में बँटी है, जिनमे तीन और चार :  जिनके शीर्षक टेक्नोलॉजी एंड डाटा और फेक न्यूज़ एंड प्रोपेगंडा हैं, मेरी दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है. यूँ पूरी किताब इसलिए पढ़ने लायक है कि इससे हमें अपने लोकतान्त्रिक ढाँचे का विद्रूप समझना कुछ आसान हो जाता है.

लोकतंत्र के लिए चुनाव एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. इससे गुजर कर ही हम किसी लोकतान्त्रिक प्रणाली में विधायिका अथवा धरा सभा का निर्माण करते हैं,चाहे वह संसद हो या विधानसभा. लेकिन इस प्रक्रिया को समाज के वर्चस्व-प्राप्त लोगों ने इतना खर्चीला और जटिल बना दिया है कि आम आदमी इसका हिस्सा बनने की बात सोच भी नहीं सकता. अधिक से अधिक उसकी भूमिका वोटर होने भर की है. उसमें भी जाने कितने पेचो - ख़म हैं. मतदाता वह नहीं है, जो भारत का अठारह वर्षीय नागरिक है, बल्कि वह है जिसका मतदाता रजिस्टर में नाम दर्ज है और जिसके पास कोई पहचान - पत्र है. यह पहचान पत्र लोकतंत्र का कंठी - जनेऊ बन गया है. चुनाव को प्रभावित करने के लिए जाने कितने हथकंडे अपनाये जाते हैं. धन की भूमिका सबसे बड़ी हो जाती है. इस किताब के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की केंद्रीय अभियान समिति ने 714. 28 और कांग्रेस की केंद्रीय अभियान समिति ने 516 करोड़ रुपये व्यय किये. इसमें उम्मीदवारों द्वारा खर्च किया धन शामिल नहीं है. वह धन भी शामिल नहीं है जो कालाधन है. यह चुनाव आयोग को दिया गया हिसाब है, जो वास्तविक खर्च का प्रायः बहुत ही छोटा अंश हुआ करता है. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों द्वारा खर्च किया गया धन 30 ,000 करोड़ रुपये है. यानी एक लोकसभा क्षेत्र पर औसतन 55 करोड़ से अधिक की धनराशि व्यय की गयी. इस बेहिसाब खर्चे से गठित पार्लियामेंट और असेंबली का चरित्र कैसा हो सकता है? इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है.

किताब के पहले ही अध्याय में क्वेश्चन स्कैम की विस्तृत चर्चा है. संसद में प्रश्न पूछने में भी घोटाले हैं. संसद में पूछे जाने केलिए सदस्यों द्वारा जो प्रश्न दिए जाते हैं उसकी लाटरी होती है. तमाम महत्वपूर्ण - अमहत्वपूर्ण प्रश्न मिला दिए जाते हैं और जब लाटरी निकलती है तब जरुरी नहीं होता कि महत्वपूर्ण प्रश्न उपेक्षित नहीं रह जाएँ. इन प्रश्नों को तय करने वाली कमिटी में ही घपलेबाज़ी होती है. इसमें विभिन्न दलों के संसद सदस्य होते हैं, लेकिन उनका स्वार्थ एक होता है. इस में महाराष्ट्रियन सदस्यों की लॉबी सक्रिय होती है. सदस्य प्रश्न पूछने के एवज में धनराशि लेते हैं. यह लोकतान्त्रिक लूट की पहली सीढ़ी होती है.

लेखक ने फेक न्यूज़ और प्रचार साधनों के विभिन्न स्तरों का विस्तार से विवेचन किया है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि किसान - मजदूरों और अन्य मिहनतक़श तबकों की राजनीति करना आज कितना मुश्किल हो गया है. संचार के नए संसाधनों यथा फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सप आदि ने प्रचार को खर्चीला और पेचीदा बना दिया है. अब कोई पार्टी जनसम्पर्क कम ही करती है. रोड शो, बड़ी -बड़ी रैलियां, बड़े - बड़े विज्ञापन, होर्डिंग्स और पत्रकारों - अखबारों को खरीद लेना आम बात हो गयी है. इसमें कमजोर तबकों की राजनीति को अभिव्यक्त करने वाली पार्टियां बहुत पिछड़ जाती हैं.

लेखक शिवम ने लोकतंत्र की अनेक कमजोरियों और समस्याओं की तरफ हमारा ध्यान दिलाया है, लेकिन वह इस बात को समझना भूल गए हैं कि प्रशांत किशोर और उनके जैसे लोग अंततः कर क्या रहे हैं? ये झूठे प्रचार यदि गलत हैं, पाप हैं, तो इसका आरम्भ न सही विस्तार तो प्रशांत और शिवम जैसे लोग ही कर रहे हैं. ये लोग आखिर हैं क्या? न कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता, न ही वैचारिक पृष्ठभूमि. प्रशांत ने भाजपा के लिए काम किया, फिर नीतीश केलिए, फिर कांग्रेस केलिए. इस बीच वह जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हो गए और इस हैसियत से मुक्त हुए बिना ही शिवसेना के लिए काम करने लगे. इसमें उन्हें कुछ भी अनैतिक नहीं लगा. शिवम ने भी कुछ ऐसा ही किया है. पंजाब में कांग्रेस के लिए काम किया, फिर मणिपुर त्रिपुरा में भाजपा केलिए और फिर बिहार में आरजेडी केलिए. यह तवायफगीरी के अलावे क्या है? किसी का भी बाजा बजाने वाली ऐसी प्रचारक कंपनियों पर चुनाव आयोग को रोक लगानी चाहिए. जैसे खेलों में ड्रग लिया जाना अनैतिक और अवैधानिक है, वैसे ही झूठ का प्रचार करने वाली ये कम्पनियाँ लोकतान्त्रिक रिवाजों को केवल कमजोर करेंगी.

शिवम ने इस किताब में बतलाया है कि कैसे प्रशांत के दल ने मुजफ्फरपुर में प्रधानमंत्री मोदी के डीएनए वाले प्रसंग को तिल का ताड़ बनाया था. उस प्रसंग को लेकर चलाया गया आंदोलन बेहद फूहड़ और अराजनैतिक था. इसने नीतीश को महागठबंधन के केंद्र में लाने की कोशिश थी. जो एक गलत राजनीति थी. दरअसल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी, जदयू और कांग्रेस के मिल जाने के बाद किसी के लिए कुछ करने केलिए रह ही नहीं जाता था. प्रशांत की परीक्षा तो उत्तरप्रदेश में होनी थी, जहाँ वह चारों खाने चित्त हो गए.

शिवम ने जब राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किये गए संसाधनों और चुनाव आयोग द्वारा ज़ब्त की गयी धनराशि का विस्तृत ब्यौरा दिया, तब उन्हें इन कंपनियों द्वारा उगाहे गए धन का भी ब्यौरा देना चाहिए था. बिहार में ऐसी बात चर्चा में थी कि प्रशांत किशोर को जदयू ने कोई तीन सौ करोड़ में अनुबंधित किया था. यदि यह सच है तब यह सवाल भी उठेगा कि जदयू के पास यह राशि कहाँ से आई. क्या उसने चुनाव आयोग को इसका हिसाब दिया? ऐसे कई सवाल उठेंगे. बहरहाल, हम एक बार फिर यह मांग करना चाहेंगे कि चुनाव आयोग इन एजेंसियों को प्रतिबंधित करे. क्योंकि मेरी समझ से हमारी लोकतान्त्रिक राजनीतिक संस्कृति को यह विकृत करती है. इन कंपनियों के आने से राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हैसियत कमजोर हो गयी है. सभी पार्टियों में राजनीतिक कार्यकर्त्ता उपेक्षित होते जा रहे हैं. यह गंभीर संकट है जिसे राजनीति - विज्ञान के पंडितों ने नहीं समझा तो भविष्य में मुश्किलें खड़ी होंगी.

मैं उम्मीद करूँगा, पुस्तक के अगले संस्करण में लेखक मुझ द्वारा उठाये प्रश्नों पर विचार करेंगे. यूँ, किताब सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पढ़नी चाहिए. इसे हिंदी में लाने की भी सिफारिश करूँगा.


यह पोस्ट दो वर्ष पहले लिखा गया था. संशोधित रूप से इसे पुनः प्रस्तुत किया गया है.

03 /04/ 2019


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