गमछा के छोर में बंधाए कानून
कथाकार डॉ. दादूलाल जोशी की कहानी
डॉ. दादूलाल जोशीयह झूठ है। सरपंच ने कोई सरकारी जमीन पर खेत नहीं बनाया है। इतना सुनकर अचानक पुनई का क्रोध उफान पर आ गया। उसने नायब तहसीलदार का कालर पकड़ लिया और हरामजादा... रोगहा... आदि गालियाँ उच्चारती हुई कहा - ले कब्जा.. धर...! और साथ ही चार - पाँच थप्पड़ नायब तहसीलदार के गाल में जड़ दिया। इस अप्रत्याशित हमले से नायब तहसीलदार हक्का-बक्का रह गया। उसने अपने जीवन में नहीं सोचा था कि एक अशिक्षित ग्रामीण महिला उसे तमाचे मार देगी! वहाँ पर मौजूद अन्य लोगों के जैसे होश उड़ गये थे। कोटवार ने दौडक़र पुनई को रोका और शांत करने का प्रयास करने लगा किन्तु पुनई शांत नहीं हुई। वह बड़बड़ाती हुई दौडक़र खेत में गई और सभी जानवरों को हाँक कर खेत से बाहर निकाल दी।

पुनई जब भी अपने खेत के मेड़ पर खड़ी होती, तब दूध से भरी हुई धान की बालियों को देखकर उसका हृदय खुशियों से भर जाता। हवा के झोकों में झूमने वाली धान की बालियों की तरह उसका मन भी झूमने लगता। झूमते हुए धान के पौधों के बीच-बीच में इक्के-दुक्के मकड़ी के गोल जाले भी दिखाई दे जाते थे जो कि सुबह की सुनहरी धूप में चमकने लगते। जाले के ठीक बीचों-बीच शिकार की घात में ताक लगाये बैठी मकड़ी भी झूलती हुई सी प्रतीत होती थी। मकड़ी के जाले को ध्यान से देखने पर पुनई को लगता था कि मकड़ी के जाले से उसकी जिन्दगी का कोई हिस्सा मेल खाता है।
उसे लगता था कि वह जाले के बारे में कुछ सोच सकती है। कुछ बोल सकती है। लेकिन क्या? कैसे? इसे वह ठीक से समझ नहीं पाती थी। वह समझना भी नहीं चाहती थी। यह तो उसके मन में एक पल के लिए उभरता और मिटता था। पुनई पढ़ी - लिखी नहीं थी लेकिन प्रकृति की भाषा से अनभिज्ञ भी नहीं थी। बावजूद इसके वह किसी खास विचार को किसी खास अन्दाज में व्यक्त नहीं कर पाती थी। उसे इन सबसे कोई मतलब भी तो नहीं था। वह तो बस इतना जानती है कि महीने भर में धान की फसल पक जायेगी और उसके बाद... उसके चार महीने की खुराक घर में होगी।
कुछ अनाज बेच कर अपनी बेटी मानबती को उसके ससुराल पहुँचा देगी। दामाद को समझायेगी, मनायेगी... बरी - बिहाई औरत से निभाओ। विध्न मत करो। जब वह मानबती को पहुँचाने जायेगी तब दामाद के लिए चार हाथ का गमछा जरूर ले जायेगी। उससे वह खुश हो जायेगा और उसकी बेटी को अपने साथ रखने के लिए तैयार हो जायेगा। मानबती को दो महीने पूर्व उसके पति ने बात-बात के झगड़े में घर से निकाल दिया था। मानबती अपनी माँ के पास आ गई और अब तक टिकी हुई है। इस बीच उसका दामाद उसकी बेटी को लेने नहीं आया। काहे को झगडऩा! चार दिन की जिन्दगी है। पति-पत्नी को मेल जोल से रहना चाहिए।
ऐसा ही कुछ अपने दामाद से बोलेगी। उसके हाथों में कुछ रूपये और गमछा धरा देगी। वह जरूर खुश हो जायेगा। साल दो साल में उसकी बेटी के एक दो बच्चे हो जायेंगे। फिर सब टंटे टूट जायेंगे। फिर किसे पड़ी है लडऩे-झगडऩे की? यदि ऐसा हुआ तो यह जमीन भी बेटी के नाम कर देगी। उसका क्या है? रोज कमाना, रोज खाना। बिना मेहनत खाने-पीने और जीने में कोई मजा नहीं है। दामाद- बेटी सुखी रहें... बस किसी तरह बाकी के दिन कट ही जायेंगे।
कुछ इसी तरह खेत के मेड़ पर खड़ी होकर पुनई सोचा करती थी। सोचती क्या थी? फसल के बीच-बीच में छाये हुए मकड़ी के जाले की तरह वह भी सपनों के जाले बुनती थी। इतनी सी बात तो थी, जिसे वह व्यक्त नहीं कर पाती थी।
पुनई विधवा है। बहुत साल पहले उसका पति बीमारी में चल बसा। बहुत उपचार करवाया। बीमारी में सारी पूँजी तो लुट गई मगर वह अपने पति को नहीं बचा पाई। तकलीफ क्या थी? महज सिर और गले का दर्द। एक दिन संध्या समय अचानक सिर दर्द उठा। फिर टप-टप करके गले में भी दर्द उठा। दर्द बढ़ता ही गया। उसके गाँव के डॉक्टर ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में ले जाने के लिए कहा। वहाँ ले जाने के लिए उसने गाँव के कुछ लोगों को इकट्ठा किया। अकेली जान कहाँ-कहाँ दौड़ती फिरती? फिर भी हिम्मत नहीं हारी।
सब तैयारी कर बैलगाड़ी में पति को लेकर अस्पताल की ओर चल पड़ी। इधर उसके पति के सिर और गले का दर्द बढ़ रहा था उधर रात भी आगे सरक रही थी। इस सरकने में उसका कालापन और अधिक काला हो जाता था। ठीक पुनई के दुख की तरह। पुनई अँधेरापन से बहुत चिढ़ती थी। यह अँधेरापन चाहे रात का हो या उसके जीवन के दुख का हो। उसे हमेशा घुटन सा अनुभव होता था। वह छटपटाने लगती थी, कालेपन की जद से बाहर निकलने के लिए। उसका जी होता था कि अपने दोनों हाथों से गला दबा दे, इस अँधेरे और उसके कालेपन का। या फिर अपनी दोनों हथेलियों को इतना रगड़े कि उससे चिन्गारियाँ छूटने लगे।
सहसा उसके कानों में हिचकी जैसी आवाज सुनाई दी। यह उसके पति चैतू के गले से निकली आवाज थी। वह तुरन्त पास आई और देखा। चैतू के मुँह से पानी जैसा कुछ निकल रहा है। चैतू बोल नहीं पा रहा था। इशारे से पुनई को बताया कि उसकी साँसों के आने - जाने में कठिनाई हो रही है। पुनई उसके गले की मालिश करने लगी। चैतू बड़ी कातर नजरों से पुनई की ओर देख रहा था। उसकी आँखों से दो बूँदे ढुलक पड़ी। बड़ी बेबस थी ये बूँदें। पुनई ने साथ चल रहे सेखवा के हाथ से कंदील छीनकर उसकी लौ को और तेज कर दिया। कंदील की पीली रोशनी में उसने देखा, उसके पति का सिर एक ओर लुढक़ गया है। काँपती हुई हथेलियों से पुनई ने चैतू के बदन को छूकर देखा। वह तो ठंडा होता जा रहा था।
अभी शहर की आधी दूरी तय नहीं हो पाई थी। एक घंटा और लगता शहर पहुँचने में। किन्तु अब रास्ता नापना फालतू था। सेखवा ने गाड़ी रूकवा दी। साथ चल रहे सभी लोगों ने वापस लौटना ही उचित समझा। बैलगाड़ी की दिशा बदल बई। साथ के सेखवा, परसा और मनसा के कदमों की चाल बदल गई। कंदील की रोशनी की रंगत तो कब की बदल चुकी थी। जब सभी लोगों और सभी वस्तुओं में परिवर्तन हो चुका था तब पुनई कैसे यथावत रह सकती थी? सबसे अधिक और स्थायी तौर पर वही बदल गई थी।
सब खामोश थे किन्तु उस अँधेरी रात में केवल पुनई की चित्कार ही सुनाई दे रही थी। चैतू को गुजरे हुए एक अर्सा बीत गया है। अब तो पुनई उस दुख को भूल गई है। भूलती क्यों नहीं? उसकी बेटी मानबती उसका सहारा जो बन गई है। उसकी वही एक अकेली संतान है। अठारह बरस की उम्र में पुनई ने उसका विवाह कर दिया था। एक साल बाद उसका यह सहारा भी उसे छोडक़र ससुराल चली गई। पुनई अकेली रह गई। दिन भर दूसरों के खेतों में मेहनत - मजदूरी करके कुछ रूपये लाती और उससे ही गुजारा करती। धीरे - धीरे दूसरों की मजदूरी से उसका जी ऊबने लगा था। वह सोचती कि यह रोज-रोज दूसरों के यहाँ मजदूरी करने के बजाय अपने ही खेत में मेहनत करती तो कितना अच्छा होता। कितना सुकून मिलता उसे। लेकिन उसके पास खेत कहाँ थे?
जो थोड़ी सी जमीन थी वह तो चैतू के इलाज में कब की बिक चुकी थी। केवल पचास डिसमिल का एक टुकड़ा ही बचा था। वह भी सेखवा के खेत से लगा हुआ था। इसलिए सेखवा को ही रेगहा में दे देती थी। वैसे भी इतनी छोटी जमीन पर खेती करना न करना एक बराबर था। अपनी जमीन पर अपना पसीना टपकाने के लिए पुनई का जी जब तब मचल उठता था। वह सोचती थी कि यदि कहीं से पैसा मिल जाता तो एक टुकड़ा जमीन खरीद लेती। लेकिन रोज कमाने खाने वालों के पास हजारों रूपये कहाँ से आयेंगे? वह मन मसोस कर रह जाती थी।
एक साल... दो साल... तीन साल... अनमोल समय के तीन गठ्ठर लुढक़ते हुए न जाने किस अनन्त में विलीन हो गये। पुनई की जमीन रखने की साध, साध ही रह गई थी।
यह साध उसके जीवन में एक ख्वाब बन कर रह गई होती, हमेशा के लिए लेकिन इन्हीं दिनों गाँव में खुसफुसाहट होने लगी। लोग दबी जुबान से कहते थे कि सरपंच ने परती जमीन (सरकारी जमीन) के दो एकड़ अपने खेत में मिला लिया है। यह बात तीन साल पहले की है। आज तक किसी को मालूम नहीं थी। मालूम भी नहीं होता यदि रमेसर कोटवार एक दिन सरपंच और पटचारी की गुफ्तगूँ नहीं सुनता। रमेसर कोटवार के जरिये ही यह बात सब को लोगों में फैल गयी।
फिर क्या था, कुछ दिन बाद कोटवार ने भी दस डिसमिल का एक टुकड़ा काटकर खेत बनाना शुरू कर दिया। कोटवार को देखकर दो - चार किसानों ने भी अपने - अपने खेत से लगी चरोखर भूमि को खोद - खोद कर खेत में मिलाना शुरू कर दिया। पुनई इन सब से बेखबर थी। एक दिन सेखवा ने आकर कहा - काकी, सबे झन परिया ला हथियावथें। तहूँ हा अपन टेपरी ला बढ़ा ले। बुढ़ापा के सहारा हो जाही।
- कते परिया के बात करथस बाबू? पुनई ने आश्चर्य से पूछा।
- अरे उही परिया काकी, जेन मा गाँ के जनावर चरथे।
- ओ हर तो सरकारी जमीन आय बाबू। कहूँ सरकार जान परही त ओखी के खोखी हो जाही। पुनई ने आशंका व्यक्त की।
- जम्मो झन तो इही बूता करत हवंय। सरपंच हा संवागे दू - तीन एकड़ जमीन ला दबोच लेये हवय। देखे हावस नहीं, कतेक बढिय़ा फसल होथे तेन ला? सरकार हमर ऊपर कुछू करही त सरपंच के ऊपर घलो कार्यवाही करही। सेखवा ने समझाते हुए कहा।
- सरपंच तो सरकार के आदमी आय बाबू! पइसा वाला घलो हे। कानून कछेरी ला गमछा के छोर मा गठिया के रेंगथे। वो हा बाँच जाही, अऊ हम फंस गेन त छूटना मुस्कुल हो जाही।
पुनई ने कहा - जब होही तब देखे जाही। अभी हम कतेक मार खुश हवन? हमर करा हवेच्च का? सेखवा ने मानो फैसला ही सुना दिया। इस बार पुनई चुप रही। वह सोचने लगी, उसके खेत से लगा हुआ विशाल मैदान है। वह धीरे -धीरे अपने खेत को खोद - खोद कर आगे की ओर बढ़ा सकती है। सेखवा वहाँ से चला गया। सेखवा पुनई का रिश्तेदार नहीं था। दोनों के मकान आसपास थे। इसलिए सुख-दुख में एक दूसरे के काम आते थे। रात भर पुनई सपने में लहलहाती फसलों वाला स्वयं का खेत देखती रही। उसे अपनी साध पूरी होती हुई दिखाई दी।
दूसरे दिन से पुनई ने भी अपने पचास डिसमिल के टुकड़े को खोद-खोद कर परिया की ओर बढ़ाना शुरू कर दिया। वह रोज मजदूरी करके लौटती और एक - दो घंटे उस टुकड़े पर कुदाल चलाती। चीड़े उखाडक़र मेड़ बनाती। बड़े धैर्य और लगन के साथ मेहनत करती रही। एक साल में ही उसका खेत डेढ़ गुना लम्बा हो गया था। फिर आया आषढ़ का महीना। वर्षा की बौछारे पडऩी शुरू हुई । गरमी से तपी हुई शुष्क धरती के सीने में तरलता पसर गई। इस तरलता को पुनई ने भी अपने हृदय में पहली बार महसूस किया। गाँव के एक किसान के पास अपनी पीतल की गुंडी और हाथ के चाँदी के कड़े गिरवी रखकर धान और खाद ले आई।
एक किसान से किराये पर हल चलवाया और बो दिया धान। उस वर्ष उसकी फसल अच्छी नहीं तो खराब भी नहीं थी। इतना लाभ जरूर हुआ कि उसने अपनी गिरवी रखी चीजें छुड़ा ली। दूसरे वर्ष की मेहनत से खेत और अच्छा बड़ा बन गया। प्रत्येक वर्ष फसल में बढ़ातरी होने लगी। तीन-चार साल बीत गये। खेत सज गया था। अन्य लोगों के खेत भी लम्बे-चौड़े और सुन्दर बन गये थे। यह सब देखकर सरपंच की नीयत डोल गयी। जिन सात-आठ लोगों ने सरकारी जमीन पर अपने खेत बढ़ाये थे, उन सबकी जमीनें एक ही स्थान पर थीं। इन उपजाऊ खेतों को देखकर सरपंच का जी कुलबुलाने लगा। उसने मन बनाया- यदि इन सबको बेदखल कर दिया जाये तो इन खेतों का वह मालिक बन सकता है।
एक विचार यह आया कि पंचायत में इस प्रकरण को रखकर निर्णय लिया जाय। लेकिन इसमें खतरा था। पंचायत के पंच ही उसके विरोधी बन सकते थे। उसके द्वारा हथियाये जमीन की भनक अधिकांश पंचों को लग चुकी थी। फिर आने वाले साल में चुनाव भी होने वाला था। अधिक बवाल होने से वह सरपंच का पद जीत नहीं पायेगा। अत: दूसरे उपाय पर वह विचारने लगा।
बरसात के दिन फिर आ गये थे। किसानों ने बीज बोये। परन्तु इस साल की बरसात दुखदाई साबित हुई। खेतों में बुवाई हुए अभी सप्ताह भर ही हुए थे कि बारिश शुरू हुई तो थमने का नाम ही न लिया। पाँच दिनों तक लगातार वर्षा होती रही। खेतों के अँकुरित बीज सड़ गये। किसानों को दोबारा बीज बोना पड़ा। इसी को कहा गया है- दुब्बर के लिए आसाढ़। किसानों को फिर बुवाई में आर्थिक नुकसान उठाना पड़ गया था। किसी तरह खेती सम्हल गई। दो महाने बीत गये। खेतों में धान की फसलें लहलहा उठी। पौधै दो-दो फुट के हो गये थे।
सभी किसानों के चेहरे में खुशी की लहरें दिखाई देती थी। लेकिन यह खुशी अधिक दिनों तक कायम न रह सकी। अचानक आसमान से बादल गायब हो गये और ऐसे गायब हुए कि महीने भर दिखाई नहीं दिये। अब हरी-भरी फसलें जलनी शुरू हो गयी थी। पुनई की रातों की नींद उड़ गई। बड़ी मुश्किल से दो बार खेत में बुवाई की थी। फसल अच्छी दिख रही थी। इस गाँव तथा अतराब में सिंचाई की सुविधा नहीं थी। कुछ बड़े किसान, जिन्होंने कुएँ एवं नलकूप बनवाये थे, वे तो सिंचाई कर लिये किन्तु छोटे एवं गरीब किसानो के पास किसी तरह के साधन नहीं थे। किसानों में हाहाकार मच गया। पुनई ने हिम्मत से काम लिया।
उसके खेत से कुछ दूरी पर एक मुरम खदान थी। वहाँ एक बड़ा सा गड्ढा बन गया था, जिसमें बरसात का पानी अब भी भरा हुआ था। पुनई रोज सुबह चार बजे उठती, मटका उठाती और चल देती उस गड्ढे की ओर। वह मटका में पानी भर कर लाती और अपने खेत के प्यासे पौधौं की जड़ों में उड़ेल देती। सूरज निकलने के पहले तक वह पानी सींचती थी। सप्ताह भर की मेहनत से उसके खेत की जमीन तर हो गई। उसके आसपास के खेतों में भी इसी तरह पानी डालकर फसलों की रक्षा की गई। खेतों में किसी तरह पानी डालकर सिंचाई करने वाले किसान खुश थे कि पूरी न सही कुछ तो फसल हाथ लगेगी। लेकिन उन किसानों का हाल बुरा था जिनके पास सिंचाई का कोई भी साधन नहीं था। उनकी फसलें आधे से अधिक नष्ट हो गई थीं।
अखबारों में दुकाल की चिन्ता छप रही थी। राजनीतिक पार्टियाँ पूरे इलाके को अकाल प्रभावित क्षेत्र घोषित करने की माँग कर रही थी। सरकार किसानों और अन्य ग्रामीण जनता के लिए अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाने और राहत कार्य प्रारंभ करने का वादा कर रही थी। इन सब चर्चाओं से बेखबर पुनई आज भी अपने खेत में पानी डालने गई थी। उसने सुबह के सात बजे तक पानी सींचा। उसके बाद खेत में उगे घास और करगा को उखाड़ कर खेत से बाहर करने में लग गई। सूरज कब सिर पर चढऩे का प्रयास कर रहा था, इसका उसे भान नहीं था। वह अपने काम में लगी रही।
अचानक बहुत से लोगों की आवाजें उसके कानों में पड़ी। उसका ध्यान भंग हो गया। उसने सिर उठाकर देखा। गाँव की ओर से आठ-दस आदमी आ रहे थे। उनके बीच में एक शहरी बाबू भी दिखाई दे रहा था। पुनई की समझ में कुछ नहीं आया। काफी पास आने पर पुनई ने पहचाना। सरपंच और पंचों के साथ कुछ अन्य किसान भी थे किन्तु शहरी बाबू को वह नहीं पहचान पाई। उसने उसे कभी देखा नहीं था। पहचानती कैसे? वो तो बाद में मालूम हुआ कि वह नायब तहसीलदार है। वह भी सरपंच के द्वारा बताये जाने पर। सभी लोग खेत के मेड़ पर आकर खड़े हो गये। नायब तहसीलदार ने वहीं से आवाज लगाई - ये बाई! तुम्हारा नाम क्या है?
- मोर नाव पुनई हे बाबू! पुनई ने बताया।
- ठीक है कोटवार, बाकी खेत वालों का क्या नाम है, जरा बताना? तहसीलदार ने कोटवार से कहा। कोटवार ने एक-एक करके सबका नाम गिना दिया। नायब तहसीलदार ने सबके बल्दियत, जाति और नाम लिखा। फिर खेतों का चक्कर लगाने लगा। पूरे खेतों को घूम कर देख लेने के पश्चात उसने सभी को इकट्ठा किया और आदेश दिया - देखो, तुम लोगों ने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किये हो। यह जुर्म है। तुम सब अभी जमीन खाली कर दो।
- महराज! ये जमीन ला हम चार साल ले जोतत- बोवत हन, फेर अइसन कभू नई होय रिहीस। परसा ने थोड़ा सा डरते हुए कहा।
- पहले जानकारी नहीं थी, सरकार से कोई आदेश नहीं आया था। इसलिए बच रहे थे। अब अवैध कब्जा हटाने, शासन ने मुहिम चलाया है, इसलिए कब्जा छोडऩा पड़ेगा।
- अभी तो फसल खड़ी है। कइसे छोड़ देबो? अड़बड़ मेहनत करे हन। इस बार मनसा ने कहा।
- तुम लोग यदि सीधी तरह नहीं मानोंगे तो तुम्हारी फसल को जानवरों से चरवा देंगे। नायब तहसीलदार ने कहा।
उसकी बातें सुनकर पुनई को फांसी की सजा सुनाने जैसी लगी। उसने अन्दर ही अन्दर दुख और क्रोध को पीते हुए अपनी जुबान को काफी दयनीय बनाकर कहा - महराज! अभी अकाल के समय हवय। फसल ला मत चरवाव। फसल ला काट लेवन दव, फेर जउन मन मा आय तऊन कर लहू।
- ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हें अभी इस जमीन को छोडऩा पड़ेगा। हम परसो फिर आयेंगे। तब तक यह जगह साफ मिलनी चाहिए। इतना कह कर नायब तहसीलदार, पंच, सरपंच के साथ लौट गया। सभी लोग दुखी थे। पुनई काफी बेचैन थी। उसे बार-बार याद आ रही थी - उसका पानी सींचना। रात में उठ कर गड्ढे का पानी सींचा था। तब कहीं फसल सही फसल कहलाने लायक बनी थी। दो बार बुवाई करने के बाद अब ऐसा अंजाम होने जा रहा था। अकाल के इस कीमती फसल को सरकार यूँ ही चरवा देगी! जैसे कोई आलतू-फालतू घास हो। पुनई तीन दिनों तक ठीक से खाना भी नहीं खा सकी थी। उस फसल से न केवल उसका बल्कि उसकी बेटी मानबती का सुखमय भविष्य आशान्वित था।
बेदखली की चपेट में आने वाले सभी दस लोगों ने एक बैठक ली और सरपंच के पास जाकर कुछ करने के लिए निवेदन किया। सरपंच ने कहा - अरे भइया, सरकारी चीज पर हाथ मारना कानूनन जुर्म है। तुम सब क्यों झंझट में पड़ते हो? छोड़ दो जमीन। उन लोगों को विश्वास हो गया कि सरपंच उनकी सहायता करने वाला नहीं है। वे मनमसोस कर लौट गये।
तीसरा दिन भी आ गया। पुनई अपने खेत के मेड़ पर बैठी हुई विचार कर रही थी। बस आठ-दस दिनों की बात है, फिर हँसिया गिरेगा फसल पर। फिर मिजाई होगी। उसके बाद उसकी बेटी अपना ससुराल चली जायेगी। वह भी कुछ दिन बेटी के पास रह कर आयेगी। पुनई स्वप्न लोक में खो गई थी। उधर तीन दिन पहले चेतावनी दे चुके नायब तहसीलदार का काफिला आया और मनसाराम के खेत में जानवरों को छोड़ दिया था। चर्र..चर्र.. दस-बीस जानवर मनसा के खेत को चर रहे थे। मेड़ पर बैठा मनसा फूट-फूट कर रो रहा था। पुनई का ध्यान भंग हुआ।
वह स्वप्न लोक से यथार्थ की धरातल पर आ गई। उसकी नजरें मनसा के खेत के मेड़ पर खड़े हुए नायब तहसीलदार पर पड़ी तो उसका दिल धकधक कर उठा। धीरे-धीरे एक खेत से दूसरे खेत की फसल को चराते हुए नायब तहसीलदार अपने काफिले के साथ आ रहे थें अब जानवर सेखवा के खेत की फसल को चर रहे थे। उसके बाद पुनई के खेत की बारी थी। पुनई का कलेजा मुँह को आने लगा। वह दौडक़र नायब तहसीलदार के पास गई और हाथ जोडक़र गिड़गिड़ाती हुई बोली - दया कर महराज! अड़बड़ तकलीफ मा धान ला बचाय हँव।
नानकुन लइका कस एला पाले - पोसे हँव। मत चरावव, ए बखत के फलल ला काटन दव, ताहने छोड़ देबो ये भुईयाँ ला।
- सभी ऐसा ही कहते हैं। तुम लोग मानने वाले तो हो नहीं। इसी तरह तुम लागों को सबक मिलनी चाहिए। नायब तहसीलदार ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया।
सेखवा की फसलें भी पूरी तरह चरवा दी गई। अब पुनई के खेत में जानवरों को हाँक दिया गया। जानवर पूरे खेत में फैल गये थे और पौधों को रौंद-रौंद कर चर रहे थे। पुनई ने आँसू भरी आँखों से देखा। उसके धान की अधपकी दूध भरी बालियों को जानवर कुतर - कुतर कर खा रहे थे। उसे लगा कि उसका खेत नहीं बल्कि उसका हृदय ही कुतर-कुतर कर खाया जा रहा है। वह पीन चुभाने जैसी पीड़ा से तिलमिलाने लगी। उसने कहा - साहेब! सरपंच हा घलो दू एकड़ सरकारी जमीन मा खेत बनाये हवय। ओकर खेत के फसल के का करहू?
- यह झूठ है। सरपंच ने कोई सरकारी जमीन पर खेत नहीं बनाया है। इतना सुनकर अचानक पुनई का क्रोध उफानन पर आ गया। उसने नायब तहसीलदार का कालर पकड़ लिया और हरामजादा... रोगहा... आदि गालियाँ उच्चारती हुई कहा - ले कब्जा.. धर...! और साथ ही चार - पाँच थप्पड़ नायब तहसीलदार के गाल में जड़ दिया। इस अप्रत्याशित हमले से नायब तहसीलदार हक्का-बक्का रह गया। उसने अपने जीवन में नहीं सोचा था कि एक अशिक्षित ग्रामीण महिला उसे तमाचे मार देगी! वहाँ पर मौजूद अन्य लोगों के जैसे होश उड़ गये थे। कोटवार ने दौडक़र पुनई को रोका और शांत करने का प्रयास करने लगा किन्तु पुनई शांत नहीं हुई। वह बड़बड़ाती हुई दौडक़र खेत में गई और सभी जानवरों को हाँक कर खेत से बाहर निकाल दी।
घंटे भर में पुलिस आ गई। थानेदार ने दस लोगों को मुजरिम बनाया। जिनमें पुनई प्रमुख थी। थानेदार आश्चर्य में डूबा सोच रहा था - आखिर एक सीधी-सादी ग्रामीण महिला ने नायब तहसीलदार को थप्पड़ क्यों और कैसे मारा? उसे विश्वास नहीं हो रहा था। उसने पुनई से पूछा - क्या सचमुच तुमने नायब तहसीलदार को तमाचा मारा है?
- हाँ साहब !
- क्यों मारा ?
- वो हा हमर खेत के ठाढ़े फसल ला चरावत रिहिस। साहेब! रात-दिन जाँगर टोर के खेत ला बनाये रहेंव।
इही बछर दू बेर धान बोयेंव। ओकर बाद मा पानी नई बरसिस। मँय एक - एक बूँद अपन खेत मा सींच के फसल ला बचाये हँव। कइसे देख सकहूँ, ओकर बरबदी ला..? साहेब! मोला जेल भेज दव चाहे फांसी मा चढ़ा दव। मैं अपने मेहनत के बरबादी ला नई देख सकँव। ऐसा बोलती हुई पुनई का क्रोध फिर से फनफना उठा। वह फिर नायब तहसीलदार की ओर दौड़ी। थानेदार ने देखा। उसे महसूस होने लगा - पुनई के शरीर से कई -कई पुनई रूपी आकृतियाँ बाहर निकल कर तेजी से दौड़ रही हैं।
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