'रिपब्लिक ऑफ़ हिन्दुत्वा : हाऊ द संघ इज रिशेपिंग इण्डियन डेमोक्रेसी’
रमाशंकर सिंहवर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आयी भाजपा सरकार ने सीटों की संख्या और अपने सांगठनिक विस्तार से सबको चौंका दिया था लेकिन यह सब कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता थे।

यह सब कैसे हुआ? किस तरह भारत की विभिन्न जातियों और श्रेणियों के लोगों को एक बड़े आख्यान के अंदर समाहित किया गया, इसे जानने का प्रयास इतिहासकार और मानवविज्ञानी बद्री नारायण एक लंबे समय से करते रहे हैं।
'रिपब्लिक ऑफ़ हिन्दुत्वा : हाऊ द संघ इज रिशेपिंग इण्डियन डेमोक्रेसी’ नामक अपनी नवीनतम क़िताब में उन्होंने जाति, धर्म, संस्कृति के ओवरलैपिंग दायरों के अंदर उस चुनावी राजनीति की गहन पड़ताल की है जिसमें भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सफलता निहित है।
यह क़िताब हमारी परंपरागत समझ और पूर्व निश्चित धारणाओं को तोड़ते हुए संगठन, विचार और उसके प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीतियों, दलितों, आदिवासियों और घुमंतू समुदायों के बीच उनके कार्य करने के तरीकों के बारे में आधारभूत जानकारियाँ देती है।
बद्री नारायण बताते हैं कि कांग्रेस सहित देश का एक बड़ा हिस्सा उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नूराकुश्ती करता रहता है जो बहुत पुराना है जबकि इसी बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आपको पुनर्सृजित करता रहता है।
इस प्रकार वास्तविकता एवं धारणा में बहुत अंतर आ जाता है। देश का बौद्धिक वर्ग इसे मानने को तैयार नहीं दिखता है और भाजपा की विरोधी पार्टियों के पास ऐसी कोई रणनीति नहीं है जो उसे चुनौती दे सके।
आज,15 मार्च 2021 को, जब मैं यह लिख रहा हूँ तो सोसल मीडिया का एक बड़ा हिस्सा मान्यवर कांसीराम का जन्मदिन मना रहा है।
कांसीराम की एक शानदार जीवनी लिख चुके बद्री नारायण यह बात लगातार बताते रहे हैं कि किस प्रकार कांसीराम ने संगठन खड़ा किया और राजनीतिक सफलता प्राप्त की लेकिन बसपा के लिए आज यह स्थितियाँ नहीं रह गयी हैं।
आज देश की झुग्गी बस्तियों में जहाँ उसकी 17 प्रतिशत आबादी रहती है, ‘बीएसपी ब्ल्यूज़’ ‘हिन्दुत्वा सैफ़्रॉन’ में तब्दील हो रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यहाँ हिन्दू देवी देवताओं के छोटे-छोटे मन्दिर बनाए हैं।
इसके अतिरिक्त संघ ने सेवा और समरसता कार्यक्रमों की मदद से देश के वंचित तबकों में न केवल अपनी जगह बना ली है, बल्कि उन्हें अपने सांगठनिक विस्तार में समाहित भी किया है।
पत्रकारों, राजनेताओं, विभिन्न पार्टियों के पदाधिकारियों के लिए यह जरूरी किताब तो है ही, यह उन शोध छात्रों एवं विद्वानों के लिए भी एक आवश्यक पाठ है जो टेक्स्ट और सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं को आधारभूत स्तर पर समझना चाहते हैं और यह देखना चाहते हैं कि पाठ्य पुस्तकों से बाहर समाज और राजनीति कैसे और किस प्रकार बदलती रहती है।
259 पृष्ठों की इस किताब को पेंगुइन ने प्रकाशित किया है और हार्डबाउंड में इसकी कीमत 499 रुपये है।
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