बसपा के अवसान से दलित राजनीति में पैदा हुए खालीपन
एसआर दारापुरीजैसा कि आप अवगत हैं कि पिछले कई साल से उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति सक्रिय रही है. जिसके परिणामस्वरूप यहाँ पर चार बार मायावती मुख्यमंत्री बनीं. इस दौरान यह देखा गया कि दलितों के हाथ में सत्ता तो आई पर कोई दलित एजेण्डा नहीं बना. इसके फलस्वरूप दलितों की किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ. वर्तमान में मायावती के अवसान से न तो राजनीतिक सत्ता ही रही और न ही राजनीतिक संगठन. आज हालत यह है कि मायावती की पार्टी बसपा से दलितों की कई उपजातियां अलग हो कर भाजपा के हिंदुत्व की छत्रछाया में चली गयी हैं.

मायावती की अपनी जाति जाटव/चमार का भी कुछ हिस्सा उससे अलग हो गया है. वर्तमान में मायावती की अस्मिता की राजनीति भाजपा को ही लाभ पहुंचा रही है. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियां जो एक समय बसपा के साथ जुडी थीं उससे अलग हो कर भाजपा के साथ जुड़ चुकी हैं.
बिहार की राजनीति में राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का जो उभार हुआ था वह अब लगभग ख़त्म हो चुका है. इस समय लोक जन शक्ति पार्टी स्वयं जीतने की बजाये दूसरों को हराने का काम कर रही है जिससे भाजपा को ही लाभ हो रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय से चंद्रशेखर के रूप में जो नया राजनीतिक नेतृत्व उभरा वह भी अपरिपक्व एवं एजेण्डा विहीन ही है.
चंद्रशेखर उसी पुरानी अस्मितावादी राजनीति को पुनर्स्थापित करने की बात कर रहा है जो कि मायावती एवं रामविलास पासवान के नेतृत्व में विफल हो चुकी है और जिससे दलितों के किसी भी हित की पूर्ति नहीं हुयी है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में कोई अन्य दलित राजनीतिक पार्टी सक्रिय दिखाई नहीं देती है.
इस दौरान भाजपा ने दलितों की जाटव्/चमार उपजाति को छोड़ कर खटीक, धोबी, पासी, बाल्मीकि जातियों को अपने साथ ले लिया है क्योंकि बसपा में उन्हें उचित स्थान न दिए जाने की शिकायत थी.
बसपा के अवसान से दलित राजनीति में पैदा हुए खालीपन को भरने की कोशिश जो भी राजनीतिक पार्टियाँ जैसे कांग्रेस या सपा कर रही हैं उनका भी कोई दलित एजेण्डा न पहले था और न अब है.
अतः इस बात की आवश्यकता है कि दलितों को अब उस राजनीति से जुड़ना चाहिए जो उनका भावनात्मक शोषण करने की बजाये उनके मुद्दों को ईमानदारी से उठा सकती हो. इसके लिए यह ज़रूरी है कि दलितों को समाज के उन वर्गों के साथ जुड़ना चाहिए जो कि उनसे सामाजिक एवं आर्थिक धरातल पर अधिक नजदीक हैं.
इन वर्गों में आदिवासी दलितों के सबसे नजदीक हैं क्योंकि उनकी सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थियाँ दलितों के समान हैं.
इसी प्रकार दूसरा वर्ग अति पिछड़ी जातियां हैं जो आर्थिक तौर पर दलितों के काफी नजदीक हैं. अतः यह कहा जा सकता है कि आदिवासी एवं अतिपिछड़ी जातियां दलितों की स्वाभाविक मित्र हैं जो आसानी से अपने वर्गहित के लिए राजनीतिक तौर पर आपस में जुड़ सकती हैं.
अतः दलित आदिवासियों को केवल वर्तमान किसान आन्दोलन का समर्थन ही नहीं बल्कि उसमें नेतृत्वकारी भूमिका में आना होगा तथा नयी किसान मजदूर आधारित राजनीतिक सत्ता की स्थापना भी करनी होगी.
हम लोग आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की और से उत्तर प्रदेश के दलित एवं आदिवासियों को अपने मुद्दों के आधार पर राजनीतिक तौर पर जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं. जिसमें हमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्ज़ापुर तथा चंदौली जिलों में संतोषजनक सफलता भी मिली है.
हम लोग काफी लम्बे समय से उस क्षेत्र के दलितों और आदिवासियों के लिए वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि आवंटन, ग्राम समाज की ज़मीन के पट्टे तथा मनरेगा के मुद्दे पर लड़ते आ रहे हैं. हम लोग अतिपिछड़ी जातियों के लिए पिछड़ी जातियों के आरक्षण में अलग कोटे के पक्ष में आवाज़ भी उठाते रहे हैं.
अतः दलितों, आदिवासियों एवं अतिपिछड़ी जातियों के मुद्दों को लेकर एक राजनीतिक मंच बनाने के ध्येय से लखनऊ में एक सम्मलेन बुलाया जा रहा है.
इसमें इन वर्गों के मुद्दों जैसे भूमि आवंटन, रोज़गार, मंनरेगा में काम व मजदूरी, कृषि कानूनों का खात्मा, गरीबों की चल रही खाद्यान्न वितरण प्रणाली का समापन, न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून, सहकारी खेती आदि मुद्दों को लेकर एक राजनीतिक मंच बनाने तथा जनराजनीति के निर्माण के बारे में विचार विमर्श किया जायेगा.
अतः आप से अनुरोध है कि इस सम्बन्ध में अपने विचार एवं सुझाव भेजें तथा इससे जुड़ें.
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