दाग अच्छे हैं
कैलाश वनवासीकथाकार व उपन्यासकार कैलाश वनवासी नवें दशक के उत्तरार्द्ध से आते हैं और समकालीन कथा साहित्य में एक जरूरी हस्तक्षेप के साथ अपनी मुकाम सुनिश्चित करते हैं। हिन्दी लेखन की दुनिया में उनका आगाज़ न केवल कथा साहित्य व उपन्यास तक में ही सीमित रहा बल्कि उससे पार जाकर कई महत्वपूर्ण समसामयिक विषयों व ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर लेखन के रुप में भी है। अलावा इसके हिंदी के कई जरूरी कवियों की कविताओं के साथ अनेक बहुचर्चित फिल्मों की समीक्षा में भी उनका अविस्मरणीय काम है। अब तक उनका ‘लक्ष्य और अन्य कहानियां’- (सापेक्ष प्रकाशन ) ‘बाज़ार में रामधन’ (भारतीय ज्ञानपीठ ) ‘पीले कागज़ की ऊजली इबारत’ (अंतिका प्रकाशन ) प्रकोप व अन्य कहानियां, ‘जादू टूटता है’ (राजपाल संस) से व एक उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ प्रकाशित है और इस समय उनकी कहानी ‘द़ाग अच्छे हैं’ चर्चा में है।

भिलाई से जब साहू जी निकले थे रायपुर के लिए तो अपनी बाइक की चाल में उन्हें कोई खराबी या खामी नहीं लगी थी. वह दुरुस्त थी...इंजन की आवाज़ भी उनकी स्मूथ, जानी-पहचानी सुर में निकल रही थी. वैसे भी घनश्याम साहू अपने घर-मुहल्ले और स्टाफ में अपनी बाइक की साफ-सफ़ाई और मेंटेनेंस के लिए कुछ ज्यादा ही ख्यात है. लोग उनकी पंद्रह साल पुरानी बाइक की अद्यतन चमक देख के हैरान हो जाते हैं--हमेशा एकदम चकाचक! और यही बात उसके कपड़ों के बारे में भी उतना ही सच है. बिलकुल सफेद, चमकते हुए. कभी किसी ने उसके पेटेंट सफेद कमीज़ सफ़ेद पेंट की क्रीज़ मुड़ी या खराब नहीं देखी. इतने सलीके से रहते हैं कि लगता है भाई साहब अभी पार्टी के लिए निकले हैं.
उनके कपड़ों को देखकर सर्फ़ का पुराना विज्ञापन याद आ जाता है--दाग ढूंढते रह जाओगे! उनका स्वभाव भी ऐसा है कि किसी भी जगह—बेंच या पटरे-पर वे यों ही औरों की तरह बैठ नहीं जाते. बैठना भी हुआ तो रूमाल से पहले अच्छी तरह झाड़-फटकार कर ही उस जगह में बैठेंगे. स्टाफ ने उनका नाम ही रख दिया है-मिस्टर क्लीन. कभी किसी ने उन्हें एक दिन के लिए भी अनशेव्ड नहीं देखा है. घनश्याम साहू एक निजी बीमा कम्पनी में विकास अधिकारी हैं. अपनी बातों से,मीठे बोल से, स्मार्टनेस से क्लाइंट को प्रभावित करना उनका प्रोफेशन है, जिसे वह बखूबी निभा रहे हैं.
भिलाई से सिरसा गेट तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें ज़रा आभास हुआ कि उनकी बाइक पिकअप कम ले रही है. फिर एक फाल्ट और पाया कि सिग्नल पर गाड़ी बंद होने के बाद स्टार्ट भी जल्दी नहीं ले रही है. इसी के चलते खुर्सीपार सिग्नल पर उनके पीछे का कारवाला अपनी नाराजगी जताते उन्हें नफरत से घूरता बाजू से निकल गया. उन्हें लग रहा था कि गाड़ी चलते-चलते खुद को ‘रिकवर’ कर लेगी. कभी-कभी ऐसा हो जाता है और उनके साथ पहले भी हुआ है.
उधर उनके क्लाइंट का फोन आ चुका था दो मर्तबा और उन्होंने उससे ’बस सर, पहुंच रहा हूँ...सिरसा तक आ गया हूँ’...झूठ कहकर बहलाया था. लेकिन गाड़ी अब तंगा रही थी. स्पीड पकड़ नहीं रही थी.जितना वे एक्सिलेटर बढाते,गाड़ी,भर्रsss भर्रsss करके आवाज तो करती, पर स्पीड नहीं पकड़ती. अपनी गाड़ी पर उन्हें खुद अपने जितना ही भरोसा था. क्योंकि आज तक लम्बी यात्रा में भी इसने कभी नहीं तंगाया.
सिरसा गेट जब क्रॉस कर लिया, उसके बाद भी गाड़ी की वही दशा रही तो उनका माथा ठनका.इसके यों घरघराने की कोई और वजह तो नहीं? उनका ध्यान सबसे पहले पेट्रोल पर गया. पेट्रोल मीटर बता रहा था अभी पेट्रोल है, जिसमें आसानी से रायपुर पहुंचा जा सकता है. ’रिजर्व’ भी नहीं लगा था. फिर क्यों ये साली घुर्र-घुर्र? उन्हें खीज हुई. ध्यान किया कि कहीं बाइक उनका क्लास टेंथ पढ़ता बेटा तो रात में कहीं नहीं ले गया था? अपने फ्रेंड्स के बीच होशियारी मारने?
क्योंकि उसने हाल-फिलहाल गाड़ी चलाना सीख लिया है, तो कुछ ज्यादा ही जोश से भरा रहता है,वो छत्तीसगढ़ी लोकोक्ति है न,-- नवा बइला के नवा सींग, चल रे बइला टींगे-टींग! फिर ध्यान आया कि कहीं पेट्रोल में मिलावट का शिकार तो नहीं हो गए? तत्काल याद किया कि आख़िरी बार उन्होंने पेट्रोल कहाँ भरवाया था? और याद आते ही उनके मुँह से निकला –ओ तेरी...!
कल शाम उन्हें अपने एक क्लाइंट के पास गुन्डरदेही जाना पड़ा था- 28 किलोमीटर दूर और ‘रिजर्व’ लगने पर रास्ते के किसी पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवा लिया था. अब उन्हें यही सच लगने लगा,कि देहात के उस पेट्रोलपंप वालों ने पेट्रोल में पक्का मिटटी तेल मिला दिया है. बस, गलत तेल की वजह से उनकी बाइक की इंजन स्टीम इंजन वाले रेल के भांति भुकभुका रही है. साइलेंसर से इतना धुआँ भी साला इसी कारण निकल रहा है.
उन्होंने अपने शहर के शोहदों को महंगाई के चलते अपनी बाइक मिटटी तेल से चलाते देखा है, जिनका साइलेंसर ऐसा ही गहरा काला, मिट्टी तेल से गंधाता धुआँ छोड़ता रहता है...साहू जी का पारा चढ़ गया और लगे मन ही मन पेट्रोल पम्प मालिक की माँ-बहन एक करने.फिर उन्हें जिले के फ़ूड कारपोरेशन और सतर्कता विभाग पर भी बेतरह गुस्सा आया, स्साले..,भैन के...घूस खा-खा के सब अनीति अपने नाक के नीचे होने देते हैं! उन्होंने अपना कोई पत्रकार क्लाइंट याद करना चाहा, जो इस भ्रष्ट्राचार का भंडाफोड़ कर सके, लेकिन तुरंत कोई ध्यान में नही आया.
इसका फौरी उपचार उन्हें ये समझ आया कि रास्ते के किसी पेट्रोल पम्प से एकाध लीटर पेट्रोल और भरा लें, जिससे कम से कम उसकी खराबी को ये ‘मेकअप और बैलेंस कर देगा.
कुछ आगे जाने पर उन्हें बायीं और एक पेट्रोल पम्प नजर आया. तो उन्होंने पेट्रोल डलवा लिया. यह सोचकर उन्हें अब आराम मिल रहा था की गाड़ी की बीमारी का तोड़ उनको मिल गया. अब आगे का सफ़र चैन से कटेगा.
गाड़ी चल पड़ी. और अच्छे से चल पड़ी. साहू जी प्रसन्न हो कर निश्चिन्त हो गए..और खुद को हल्का महसूसते हुए वह ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’ टाइप कोई गीत गुनगुनाना चाह रहे थे. हालांकि ऊपर फ़रवरी के दोपहर दो बजे की धूप थी,बहुत तेज नहीं थी. दरअसल कल रात हालकी बारिश हो गई थी इसलिए मौसम में ज़रा बदली थी.
वह अपने इसी इत्मीनान में बमुश्किल तीन किलोमीटर आगे गए होंगे,कि उनकी बाइक भुक-भुक करते अचानक बंद हो गई. आगे बढ़ने से इनकार करने लगी. वह गाड़ी कड़ी कर फिर एक्सिलेटर बढ़ाकर उसे लाइन में लाने की कोशिश करने लगे. बाइक पिकअप ही नहीं ले रही थी. चार कदम बढ़ने के बाद फिर बंद हो जाती. उन्हें समझ नहीं आया.अब क्या माजरा है?
लगा, प्लग में कचरा आ गया होगा. लेकिन उन्हें यह मिस्त्री का काम आता कहाँ था. दूसरी और बड़ी बात, कि उनकी बाइक में ‘टूल बॉक्स’ नहीं है जिससे किसी किस्म की मरम्मत की जा सके. गाड़ी की ‘टूल बॉक्स’ अरसा हुआ,जब उन्होंने गाड़ी सर्विसिंग में दी थी और गाड़ी लेकर आने के कुछ दिनों बाद उनको इस बात का पता चला था कि टूलबॉक्स गायब है.
उन्होंने बाइक खड़ी की. स्टार्ट किया. तो फिर वही ढाक के तीन पात! पिकअप नहीं. साइलेंसर से बेतहाशा धुआँ...काला और गंधाता.जो पाया कि इंजन बंद होने के बाद भी देर तक धुआँ फेंक रहा है.गोया उनके साफ़-सफाई और सफेदी का मजाक उड़ा रहा हो. और सचमुच साहूजी अपनी गाड़ी के इस कृत्य पर कुछ ऐसे शर्मिंदा हुए कि बाइक जानबूझकर ऐसा काम कर रहा हो. वे फोरलेन सड़क के सर्विस रोड पर थे. आगे के लेन से गाड़ियों का सर्र-सर्र आना-जाना जारी था. कोई-कोई उन पर उचटती सी नजर डालता और अपनी राह निकल जाता.
उन्हें मैकेनिक की तलाश थी. वे अभी चरोदा बस्ती से आगे आ चुके थे. और आसपास अपने लेन में बायीं तरफ कोई ऑटो मेकेनिक की दुकान तलाश रहे थे. लेकिन यहाँ दूर-दूर तक न आगे न पीछे कोई ऑटो मेकेनिक की दुकान नहीं थी. बस एक ढाबा था. इसके आगे बाँयीं तरफ पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन की बाउंड्री वाल उनके लगभग दो किलोमीटर आगे तक चली गयी थी, प्रतिबंधित क्षेत्र, जिसमें किसी चाय-पानी के गुमटी-ठेले की भी संभावना नहीं थी,ऑटो मैकेनिक की तो बात ही दूर थी. साहू जी ने सोचा,यार बुरे फंसे. उन्होंने अंदाजा लगाया, कुम्हारी बस्ती यहाँ से कुछ नहीं तो चार किलोमीटर दूर है.
उसके पहले कोई जुगाड़ हो तो हो. और अभी अपनी बाइक को पैदल धकेलते हुए ले जाने के अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं था.अपने दुर्भाग्य पर उन्होंने आह भरी. अपने हाल उन्हें एक सस्ता फ़िल्मी शेर याद आ गया --हमें तो गैरों ने लूटा अपनों में कहाँ दम था,मेरी किश्ती वहाँ डूबी जहां पानी कम था. अपने इस मौजूं शेर पर दाद देने वाला तो फिलहाल कोई और तो था नहीं, सो उन्होंने इसकी दाद खुद को दे दी—सांत्वनास्वरूप. उन्हें भी आधा घंटे तक पैदल चलना था.जो इसी तरह के टाइम पास के सहारे कुछ कम कष्टकारी हो सकता था.
इतनी दूरी तक गाड़ी घसीटने के ख़याल से ही उन्हें थकान सी होने लगी.पर कर क्या सकते थे. वे बढ़ चले. हेलमेट को मिरर से लटका दिया और चलने लगे. अपनी असहायता पर खीझने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था.
धीरे-धीरे वे पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन का आरक्षित एरिया पार कर आए. इस बीच वे पसीना-पसीना हो चुके थे. भीतर उनकी कमीज भीग चुकी थी.निरंतर प्रगति और शहरीकरण के बावजूद दुर्ग और रायपुर के बीच में जो सबसे बड़ा एरिया जहां बस्ती नहीं है,वह यही है. यहाँ दोनों तरफ दूर-दूर तक फैला हुआ या तो सपाट भांठा जमीन है या फिर खेत, बाड़ी फ़ार्म हाउस. इसके आगे की जमीन पर रियल स्टेट वालों का कब्ज़ा है. जहां लोगों की रिहाइश के लिए बिल्डिंग बनानेवाली कई कम्पनियां थीं जो 2 BHK या 3 BHK वाले अपार्टमेन्ट, हाइट्स, विहार या ग्रीन सिटी बना रही थी.
साहू जी ने यहाँ जिधर भी नजर दौड़ाई,चारों तरफ अपने निर्माण एजेंसी का चित्र सहित आकर्षक प्रचार करते होर्डिंग्स लगे थे, जिसमें ग्राहकों को लुभाने कई तरह के ऑफर भी थे. एक का स्लोगन था—‘टच्स रायपुर फील भिलाई’! आगे खारून नदी बहती है,तो उसके किनारे बन रहे हाऊसिंग बोर्ड ने अपने रिहाइश का नाम रख लिया है—खारून ग्रीन्स! पढ़ते हुए उन्होंने महसूस किया, कि ये विज्ञापन चाहे और कुछ करे न करे,पढनेवाले के मन में एक उत्साह,आनंद तो भर ही दे रहे हैं. उन्हें इसी समय अपना पेशा भी ध्यान आया, जिसमें लोगों को उनके सुरक्षित, सुखी भविष्य का सुन्दर सपना दिखाकर ही ग्राहकों को अपनी ओर आकृष्ट किया जाता है.
दोनों ही इन्वेस्टमेंट से जुड़े काम हैं, जिसमें ग्राहक को पहली नजर में विश्वास दिलाना पड़ता है अपनी कम्पनी का.आगे चाहे जो हो, बाजार का पहला काम तो चीजों की मांग पैदा करना है.इसके लिए चाहे जो जतन करो.
अपने काम का ध्यान आते ही साहू जी ने रुक कर अपने रायपुर वाले क्लाइंट को फोन लगाया, और बहुत विनम्रता से बताने लगे, ‘सॉरी सर, मेरी गाड़ी रास्ते में खराब हो गई है, आसपास कोई मैकेनिक भी नही है, कुम्हारी में कोई मिल जाए तो बनवा के आपको रिंग करता हूँ. इसलिए सॉरी...आपसे मिलने में कुछ समय लग जाएगा...’
चलो एक जिम्मेदारी से तो मुक्त हुए. क्लाइंट अच्छा है, भला आदमी है,जो मान गया,नहीं तो कई ऐसे हैं जो बहुत भाव खाते हैं—थोथा चना बाजे घना! खैर.
अब उन्हें बाइक पैदल खींचते-खींचते बहुत कोफ़्त होने लगी थी. आगे कुम्हारी आ रहा है. इस सडक पर ओवर-ब्रिज निर्माण का काम चल रहा है. पिछले कई महीने से. इसलिए गाड़ियों के आने-जाने के लिए उसकी बगल से सर्विस रोड बनाकर काम चलाया जा रहा है. साहू जी लगातार अपने साइड की दुकानों को निरखते जा रहे थे,की कोई ऑटो मैकेनिक की दुकान नजर आ जाए या उनकी नजर से यह चूक न जाए. इसी चक्कर में जब वह सर्विस रोड में थे, साइड में ही देखते हुए, एक कार बहुत तेजी से लगभग उनको छूटी हुई बहुत तेजी से निकल गयी.
उनका जी धक् से रह गया. एक इंच भी गाड़ी इधर होती तो कुछ भी हादसा हो सकता था. उन्हें गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन तब तक गाड़ी आगे निकल चुकी थी. फिर इधर पीछे से आ रही मोटर-गाड़ियों के हॉर्न का तेज शोर भर गया था. पों-पों—पीं—पीं और वे खुद को ट्रैफिक में फंसे किसी निरीह जानवर की तरह महसूस करने लगे; जिन बेचारों को तेज हॉर्न के कारण समझ नहीं आता कि, दाएँ मुड़ें कि बाएँ...?
वे सावधान होकर एक किनारे चलने लगे. सहसा अपने बीवी-बच्चों का ध्यान आ गया था,और वे बहुत सावधान हो चलने लगे ...
इसी के साथ एक खीझ उनको होने लगी थी, कुम्हारी में भी,बस्ती आ जाने के बावजूद अभी तक उन्हें एक भी ऑटो मैकेनिक की दुकान नजर नहीं आई थी. यहाँ दुकानें थीं,किराना,मोबाइल रिचार्ज, होटल, पानठेले या फलफूल की, यहाँ तक कि एक ज्वेलरी की और एक हार्ड वेयर की. लेकिन उन्हें जिसकी तलाश थी,बस वही नहीं थी. हद है! वे झल्लाने लगे. लोग खाली किराना दुकान या मोबाइल दुकान खोल के बैठे हैं. इसलिए कि इसे कर पाना ज्यादा आसान है.
जबकि गाड़ी सुधारना हुनर का काम है, जिसको समय देकर सीखना पड़ता है. अब तो आलम ये है कि सड़क पर के तकरीबन हर घर ने दुकान खोल ली है. कुछ नहीं तो पाउच वाले नमकीन इत्यादि ही बेच रहे हैं... जबकि अब तक एक भी दुकान गाड़ी रिपेयरिंग की नहीं मिली थी जिससे उन्हें लग रहा था, जैसे मैकेनिक जैसे पूरी धरती से ही गायब हो चुके हैं...
धूल-धक्कड़ से भरे कुम्हारी चौक को निर्माणाधीन ओवर ब्रिज के किनारे-किनारे वे बड़े बेमन से पार कर रहे थे, धीरे-धीरे, एक क्षीण विश्वास के सहारे कि इस बस्ती में एक न एक मैकेनिक तो होगा ही.
और आखिरकार एक ऑटो सेंटर उन्हें मिल गया. चौक से आठ-दस दुकानों के बाद.
वे किसी अंधे को आँख और प्यासे को पानी मिल जाने की खुशी से भर गए.
जैसा कि ये दुकानें होती हैं,वैसा ही था..मटमैला सा, किसी भी चमक से परे. सामने प्लास्टिक कुर्सी पर वह बैठा था. उम्र चालीस के आसपास की. गहरा सांवला आदमी. मैले-कुचैले ग्रीस के दाग-धब्बों वाली बदरंग हो चुकी आसमानी नीली कमीज पहने. उसकी दुकान के बाजू में आठ-दस पुरानी बिगड़ी पड़ी कबाड़ होती गाड़ियां खड़ी थीं.
मिस्त्री खाली बैठा था. ग्राहक के इन्तजार में.साहू जी को रुकते देखा तो उसकी आँखों में सहसा एक चमक उभर आई. लगा वह काफी देर से यों ही खाली बैठा है,ऊबता-ऊंघता सा.
साहू जी ने अपने बाइक की समस्या पूरे डिटेल के साथ कुछ वैसे ही बताई जैसे डॉक्टर को मरीज बताता है, ताकि इलाज आधा-अधूरा नहीं, पूरा हो.
‘देखते हैं’ कहकर वह पहले तो गाड़ी को कुछ भीतर खड़ा किया,फिर पाना-पेंचिस लाकर प्लग खोलने लगा. उसके काम करने के ढंग से अंदाजा हो गया, अपने काम की जानकारी गहरी रखता है. फिर भी साहू जी उसपे नजर बनाए हुए थे, और इस इन्तजार में थे कि वो कहेगा, इसका ये खराब है, इसका वो बदलना पड़ेगा...
प्लग खोल के उसने इंजन स्टार्ट करके प्लग का करेंट चेक किया. प्लग में करेंट नहीं आ रहा था,ये साहू जी ने भी देखा.कोई चिंगारी नहीं पैदा हो रही थी. इस बीच साहू जी ने पाया मिस्त्री कम बोलने वाला और नम्रता से बोलने वाला अनुभवी आदमी है. अन्यथा उसने कम उम्र के लड़के मिस्त्रियों को देखा है, जितना जानते नहीं उससे ज्यादा बोलते हैं, मुँह में गुटका भरे हुए..
उसने दो-तीन मर्तबा प्लग का करेंट चेक किया हर बार वही नतीजा. तब उसने कहा, ‘प्लग शॉट हो गया है. नया लगाना पड़ेगा.’
साहू जी ने बाइक के प्लग रिकॉर्ड पर गौर किया. उन्हें ध्यान नहीं आया कि पिछली बार कब प्लग बदला गया था.
‘ बदल दो.’ निशंक भाव से साहू जी बोले. असल में उनका ध्यान फिर अपने क्लाइंट पर चला गया था, जो इन्तजार कर रहा था.उसे और इन्तजार न करना पड़े.
“आपके पास नया प्लग है?”
मिस्त्री ने सिर हिलाया.और उठाकर भीतर दाहिने कोने के किसी डिब्बे से ढूंढकर नया प्लग ले आया. साहू जी को शक न हो, इसलिए वह प्लग की डिब्बी उसके सामने ही खोला जिसमें से नया प्लग निकाला—नयेपन से चमकता हुआ.
“कितने का है?”
“‘सौ रुपया.’
सुनकर उन्हें विश्वास हुआ. अंदाज लगाया, मार्केट में साठ -सत्तर का होगा. अपने रिप्रिंग चार्ज के साथ उसने रेट लगाया है. कोई बात नहीं.
नये प्लग को चेक करके उसने फिट कर दिया. साहू जी की गाड़ी स्टार्ट.इंजन का स्वर फिर स्मूथ होकर अपने पुराने सामान्य रिदम में आ गया था. और साइलेंसर से वैसा धुआँ भी अब नहीं निकल रहा है. इस बात से साहू जी को बड़ी खुशी हुई.
“प्राब्लम प्लग का ही था. पेट्रोल का नहीं.” वह धीमे से मुस्कुराया है,उसके मिलावटी पेट्रोल वाली बात को लेकर.
उसने आगे कहा, ऑइल चेक कर लेते हैं. जो धुआँ निकल रहा था वो ऑइल के खराब हो जाने के कारण ही है. उन्होंने ऑइल चेक करने की इजाजत दे दी. क्योंकि साहू जी वापसी में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे.देर हो गई तो यों ही फंसने का डर था. वैसे भी वे दूध के जले थे, इसलिए छांछ भी फूंक-फूंककर पी रहे थे...
मिस्त्री ने ऑइल बॉक्स का ढक्कन खोलकर पतले तार से को डुबाकर उसकी क्वालिटी चेक किया और हाथ से छूकर नकारात्मक भाव से सर हिलाया, ये तो बिलकुल पानी हो गया है. यानि बिलकुल बेकार.
अब लगा,मिस्त्री उसे अपने मेकेनिक वाले जाल में फांस रहा है. कहेगा कि ऑइल खराब है. जबकि चार महीने पहले उसने नया ऑइल भरवाया था. भला इतनी जल्दी कैसे खराब हो सकता है? साला अपना बजट बढ़ा रहा है. ऐसे ही तो लूटते हैं ये.
साहू जी ने मिस्त्री को चार महीने पहले ऑइल बदलने की बात बताई.
तो उसने पूछा, “कितना किलोमीटर चला चुके हो उसके बाद?”
अब यह आंकड़ा भला साहू जी को कहाँ से याद रहता.मिस्त्री ने कहा, “हर दो हजार किलोमीटर के बाद ऑइल बादल लेना चाहिए. इंजन की लाइफ अच्छी रहती है. देख लीजिए. अभी प्लग नया है तो कुछ नहीं, लेकिन खराब ऑइल इसको भी आगे शॉट कर देगा.”
उसकी आख़िरी बात पर वे सोचने पर मजबूर हो गए. हालांकि मेकेनिक ने इसके आगे एक शब्द नहीं कहा. पूरी तरह उनके विवेक पर छोड़ दिया था, निर्लिप्त भाव से.लेकिन अब साहू जी को तय कर पाना मुश्किल हो रहा था, यह मुझे ठग रहा है या सही कह रहा है? दूसरी तरफ उन्हें शाम को लौटना भी है,कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो...?
जवाब में उन्होंने पूछा, “ऑइल है तुम्हारे पास?”
“हाँ हैं न.”
साहू जी एकदम ठगा नहीं जाना चाहते थे. इतना तो उन्हें भी पता था की मार्केट में कई कम्पनियों के ऑइल चल रहे हैं, लोकल से लेकर ब्रांडेड तक.इसलिए पूछा, “क्या-क्या रेट के हैं?”
वह बताने लगा, ”अलग-अलग रेट के हैं, 240, 250, 260,...290..320.., जो आपको अच्छा लगे. सब अच्छे ऑइल हैं. फोरस्ट्रोक इंजन में लगने वाले ‘20-40’ के.
“मुझको दिखाओ.”
‘आइये’, वह उठकर भीतर गया तो पीछे-पीछे साहू जी गए. उस कबाड़खाने नुमा दुकान के दाहिनी दीवाल में एक आला था जहां कुछ ऑइल के डिब्बे दो रैक में रखे हुए थे. इधर कोना होने के कारण हल्का अँधेरा था.लेकिन मिस्त्री को सबके रेट याद थे. वह अलग-अलग चमकीले रंगों के डिब्बों में पैक विभिन्न ब्रांडेड कम्पनियों के ऑइल दिखाते हुए उनके रेट भी बताता जा रहा था.
आखिर उन्होंने ब्रांडेड कम्पनी के एक डिब्बे को पसंद किया. रू.260 की कीमत वाले को.साहू जी अपने ठगे जाने को लेकर अतिरिक्त सावधान थे,इसलिए उन्होंने उजाले में आकर उसका मूल्य देखा--MRP 290.00. तो उन्हें कुछ संतोष हुआ.मिस्त्री ने रेट डिस्काउंट कर लगाया था.
यानी मिस्त्री को 360.00 देने हैं. उन्होंने जोड़ लिया.
मिस्त्री पूरी तत्परता से अपने काम में यूँ जुट गया जैसे इसके बाद उसे और गाड़ियों की भी रिपेरिंग करनी है. उसने फटाफट एक गन्दला प्लास्टिक का तसला लाया, और गाड़ी के ऑइल बॉक्स के नीचे रख दिया.फिर ऑइल बॉक्स का निचला ढक्कन खोल दिया.पुराना ऑइल तसले में धार के साथ गिरने लगा. साहू जी ने इसी समय अपनी खराब ऑइल की खराबी का स्तर मालूम चला. वह ऑइल जो कभी भराते समय गाढ़े मैरून रंग का था, वह अभी कोलतार की तरह बिलकुल काला हो चुका था. और बिलकुल अनुपयोगी. लिहाजा उन्हें मिस्त्री के सुझाव और अपने निर्णय पर खुशी हुई.
उनके सामने मिस्त्री पैरों के पंजों के बल पर ऊँकडू बैठा ऑइल बदलने में जुटा था. लेकिन इसी बीच कुर्सी पर बैठे-बैठे उनकी नजर एक और चीज पर ठहर गयी-- स्लीपर पहने पैरों की उठी एड़ियां. उसके स्याह तलुए,जिनमें फटी बिवाइयों का घना जंगल था...
साहू जी को याद नहीं आया, इतनी फटी बिवाइयों वाले पैर उन्होंने इसके पहले कहाँ देखे थे...?
सहसा उन्हें एकदम याद आ गया, दादा जी ! हाँ, दादा जी के पैर के तलुए ऐसे ही थे !वो गाँव के एक छोटे किसान थे. दुबले-पतले लेकिन फुर्तीले दादाजी...खेती के कामकाज में भूत की तरह लगे रहते थे दिन-रात,बारहों महीने...और उनको आख़िरी बार तब देखा था जब वे अर्थी पर थे...और उनकी एड़ियों में फटी बिवाइयों का जाल...
साहूजी को दादा जी का यों ध्यान आने पर कुछ अजीब सा लगा. और फिर एक बार उनकी नजर मिस्त्री के फटी बिवाइयों वाले मटियाले पैरों पर ठहर गयी.
और लगा,कि यह मटमैलापन मिस्त्री की महज देह में ही नहीं, उसके पूरे वजूद में फैला हुआ है, यहाँ तक कि उसके पूरे दुकान में...स्याह, धूसर...जाने क्यों इस वक़्त उन्हें अपने चकाचक चमकते सफ़ेद पहनावे पर, जिस पर हमेशा उन्हें एक गर्व रहा है, आज शर्म सी आ रही थी...पर सहसा नजर पड़ी, उनके बांयें घुटने और दाहिने पांयचे पर कुछ काले दाग-धब्बे लगे हैं...पता नहीं ये यहाँ आकर लगे या पाँच किलोमीटर पैदल बाइक घसीटने के कारण. देखते ही उन्हें एक पल को नाराजगी और झल्लाहट हुई, आदतन, लेकिन फिर दूसरे ही पल यह हवा हो गई.बल्कि उनके भीतर एक हलकी मुस्कराहट तिर आई. फिर एकाएक उन्हें किसी डिटर्जेंट के टी.वी. विज्ञापन की पापुलर लाइन याद आ गई — दाग अच्छे हैं!
इससे उबरकर वे सामने दखने लगे.ब्रिज का निर्माण कार्य चालू था. बेहद मोटे-मोटे छड़ों के बीम-कॉलम तैयार हो चुके थे.कुछ मजदूर कुछ हेलमेट पहने अधिकारी यहाँ काम में लगे थे. जे.सी.बी. मशीन, भीमकाय पिल्लर, गार्डर...धूल-धक्कड़...
उन्होंने यों ही पूछा उससे, “ कब तक बन जाएगा ये ब्रिज ?”
“ अगस्त तो डेड लाइन है, पर अक्टूबर-नवम्बर तक चला जाएगा.”
उन्होंने ध्यान दिया, अपनी दुकान के ठीक सामने बनते ओवर-ब्रिज को लेकर मिस्त्री के मन में कोई क्षोभ या गुस्सा नहीं दिख रहा है. आखिर उसकी रोजी-रोटी का क्या होगा,ब्रिज बन जाने के बाद? आगे का भविष्य...? साहू जी ने सोचा, इसी अनिश्चिंतता के बहाने सुरक्षित भविष्य का हवाला देकर वे उससे अपना बीमा करवा लेने की भी चर्चा कर सकते हैं...ऐसे ही तो शुरुआत की जाती है, पिछले बीस बरसों का अनुभव है उन्हें...
पूछा, “ब्रिज बन जाने के बाद तो.गाड़ियां तो सांय-सांय ऊपर से ही निकल जाएगी. यहाँ कौन आएगा? तुम्हारी ग्राहकी तो कम हो जाएगी....?”
मिस्त्री ने पहली बार क्षण भर साहू जी को गौर से देखा. फिर बोला, “अब जिसकी गाड़ी बिगड़ेगी उसे आखिर नीचे तो आना पड़ेगा न...!” और हल्के से हँस पड़ा. पहली बार.
साहू जी एकदम चकित थे. कहाँ तो एक छोटी-सी मुसीबत आ जाए तो आदमी कितना परेशान हो जाता है !,और ये बंदा मुस्कुरा रहा है ?...और वो भी कितने आत्मविश्वास से ?!
उसके सामने खुद को हारा हुआ महसूस कर रहे थे वे...
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