राधाकृष्णन : आचरण में पतित और विचारों में मनुवादी, ब्राह्मणवादी, पितृसत्तावादी

संपूर्ण प्रतिष्ठा जिस ‘भारतीय दर्शन’ नामक किताब पर टिकी हुई है, वह पूरी तरह से साहित्यिक चोरी है

सिद्धार्थ रामू

 

जिस देश का आदर्श ऐसा शिक्षक है- जो व्यक्तिगत आचरण में पतित और विचारों में मनुवादी-ब्राह्मणवादी है, पितृसत्तावादी है, वह देश कैसे होगा ?

1- यह व्यक्ति थीसिस चोर है।

राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 में तेलुगू भाषी नियोगी ब्राह्मण परिवार में हुआ। सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्धि 1923 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ से मिली, जिसे अपने शोध-छात्र की साहित्यिक चोरी माना जाता है।

उस वक्त राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। शोध-छात्र जदुनाथ सिन्हा ने उनके ऊपर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया। मामला यह था कि जदुनाथ सिन्हा ने पीएचडी डिग्री के लिए ‘भारतीय दर्शन’ नामक अपने शोध को 1921 में तीन परीक्षकों क्रमशः डाॅ. राधाकृष्णन, डॉ. ब्रजेंद्रनाथ सील व कृष्ण चन्द्र भट्टाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपनी पीएचडी डिग्री की प्रतीक्षा करने लगे। जदुनाथ सिन्हा ने बारी-बारी से तीनों परीक्षकों से संपर्क कर डिग्री रिवार्ड किए जाने पर विलंब होने की वजह जाननी चाही।

डॉ. ब्रजेंद्रनाथ सील व डाॅ. बी. एन. सील ने कहा कि धैर्य रखो राधाकृष्णन उसके परीक्षण में व्यस्त हैं। तुम्हारा शोध वृहद् है। दो भागों में तकरीबन 2000 पृष्ठों का होने की वजह से समय लग रहा है। इसी बीच डॉ. राधाकृष्णन ने आनन-फानन में लंदन से इस पीएचडी को पुस्तक के रूप में अपने नाम से प्रकाशित करा लिया और पुस्तक छपते ही जदुनाथ सिन्हा को पीएचडी की डिग्री भी उपलब्ध करा दी। पुस्तक जैसे ही बाजार में आई, जदुनाथ सिन्हा को सांप सूंघ गया और वह अपने को ठगा महसूस करने लगे। राधाकृष्णन की किताब उनकी पीएचडी की हूबहू कॉपी थी।

जदुनाथ सिन्हा भी हार मानने वालों में नहीं थे। न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाकर राधाकृष्णन कृष्ण पर 20000 रूपए का दावा ठोक दिया। इसके बदले में राधाकृष्णन ने भी जदुनाथ पर एक लाख का मानहानि का दावा कर दिया। डाॅ. ब्रजेन्द्रनाथ सील राधाकृष्णन की ताकत और प्रभाव से परिचित थे। वे उनके खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाए।

परंतु जैसे ही जदुनाथ सिन्हा ने डाॅ. बी. एन. सील के यहां 1921 में प्रस्तुत की गई अपने शोध की प्राप्ति रसीद न्यायालय में प्रस्तुत किया, सच्चाई सामने आ जायेगी यह सोच कर राधाकृष्णन घबड़ा गए। विश्वविद्यालय के कुलपति संघ-भाजपा के आदर्श नायक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दोनों लोगों के बीच मध्यस्थता किया और न्यायालय से बाहर समझौता कराया। राधाकृष्णन ने जदुनाथ सिन्हा को 10000 रूपए देकर समझौता किया ।

2- मनुस्मृति की महानता के बारे में राधाकृष्णन के विचार-

वह क्या कहते हैं, ‘मनुस्मृति मूल रूप में एक धर्मशास्त्र है, नैतिक नियमों का एक विधान है। वह वैदिक यज्ञों को मान्यता देता है और वर्ण (जन्मपरक जाति) को ईश्वर का आदेश मानते है। अत: एकाग्रमन होकर अध्ययन करना ही ब्राह्मण का तप है, क्षत्रिय के लिए तप है निर्बलों की रक्षा करना, व्यापार, वाणिज्य तथा कृषि वैश्य के लिए तप है और शूद्र के लिए अन्यों की सेवा करना ही तप है।”

(स्रोत- भारतीय दर्शन, खंड 1, 2004, राजपाल एंड संज, दिल्ली, पृष्ठ 422, राहुल सांकृत्यायन )

राहुल सांकृत्यायन ने डॉ. एस. राधाकृष्णन को पुराने ढर्रे का ‘धर्म-प्रचारक’ कहा है।’

( स्रोत- (राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, 1944, भूमिका, पृष्ठ -5)

3- ब्राह्मण श्रेष्ठता और ब्राह्मणवाद को स्थापित करने वाला एक ब्राह्मण लेखक राधाकृष्णन - राहुल सांकृत्यायन की नजर में

डॉ. राधाकृष्णन के बारे में यह भ्रम फैलाया जाता है कि वह महान दार्शनिक थे, जबकि सच यह है कि यह केवल दुष्प्रचार है। वह एक ऐसे ब्राह्मण लेखक थे, जिन्होंने हिंदुत्व को भारतीय दर्शन में, और ख़ास तौर से बौद्धदर्शन में वेद-वेदांत को घुसेड़ने का काम किया है। राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में एक स्थान पर उन्हें ‘हिन्दू लेखक’ की संज्ञा दी है।उन्होंने लिखा है, कि बुद्ध को ध्यान और प्रार्थना मार्गी तथा परम सत्ता को मानने वाला लिखने की गैर जिम्मवारी धृष्टता सर राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखक ही कर सकते हैं।

( दर्शन-दिग्दर्शन, 1998, पृष्ठ 408, राहुल सांकृत्यायन )

4- प्रभुवर्ग ( द्विज-सवर्णों-मर्दों) के हितों के रक्षक राधाकृष्णन- आंबेडकर - राहुल सांकृत्यायन की नजर में

डॉ. आंबेडकर ने भी अपने निबन्ध ‘कृष्ण एंड गीता’ में डॉ. राधाकृष्णन के इस मत का जोरदार खंडन किया है जो यह था कि गीता बौद्धकाल से पहले की रचना हैI डॉ. आंबेडकर ने डॉ. राधाकृष्णन जैसे हिन्दू लेखकों को सप्रमाण बताया है कि गीता बौद्धधर्म के ‘काउंटर रेवोलुशन’ में लिखी गई रचना है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 3, 1987, चैप्टर 13. (वही, पेज 369)

राधाकृष्णन के इस कथन पर कि ‘भारत में मानव भगवान की उपज है, और भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सफलता का रहस्य उसका अनुदारात्मक उदारवाद है’, राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हिन्दुओं में से एक-तिहाई को अछूत बनाने में किस तरह सफलता पाई? किस तरह जातिभेद को ब्रह्मा के मुख से निकली व्यवस्था पर आधारित कर जातीय एकता को कभी बनने नहीं दिया?…..

यह सब अनुदारात्मक उदारवाद से है और इसलिए कि भारत में मानव भगवान की उपज है।…यह हम जानते हैं कि सर राधाकृष्णन जैसे भक्तों और दार्शनिकों ने शताब्दियों से भारत की ऐसी रेड़ पिटी है, कि वह जिन्दा से मुर्दा ज्यादा है।’

(वही, पृष्ठ- 80-81)

इसी पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन एक जगह लिखते हैं, ‘सर राधाकृष्णन जैसे लोग भारत में शोषण के पोषण के लिए वही काम कर रहे हैं, जो कि इंग्लैंड में वहां के शासक प्रभु वर्ग के स्वार्थों की रक्षा में सर आर्थर एडिग्टन जैसे वैज्ञानिकों का रहा है।’

( वही, पृष्ठ 85 )

5- बुद्ध को ब्राह्मण और हिंदू घोषित करने वाला लेखक राधाकृष्णन-

( क) वह [बुद्ध] हिंदू ही पैदा हुए, पले-बढ़े और हिंदू ही मरे।[1]

[1] (प्राक्कथन, एस. राधाकृष्णन, 2500 इयर्स ऑफ बुद्धा, संपादक – पी.वी. वापत, पब्लिकेशन डिवीजन, पृष्ठ ix)

( ख) राधाकृष्णन का ब्राह्मण मन यहीं नहीं रूका। उन्होंने बुद्ध को ब्राह्मण भी घोषित कर दिया। उन्होंने यह काम बुद्ध के मुंह से खुद ब्राह्मण कहलाकर किया। वे लिखते हैं कि, “बुद्ध स्वयं को ब्रह्म-भूत कहते हैं, अर्थात वह जो ब्राह्मण बन गए हैं।”

(2) (प्राक्कथन, एस. राधाकृष्णन, 2500 इयर्स ऑफ बुद्धा, संपादक – पी.वी. वापत, पब्लिकेशन डिवीजन, पृष्ठ x)

राधाकृष्णन बुद्ध को वैदिक-हिंदू धर्म के अवतार से जोड़ देते हैं और कहते हैं कि हमारे पुराण बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मानते हैं। वे विस्तार से जयदेव के अष्टपदी (गीत गोविंद) की चर्चा करते हैं, जिसमें बुद्ध को बिष्णु का नौवां अवतार घोषित किया गया है। वे बार-बार यह रेखांकित करते हैं कि बुद्ध ने हिंदू विरासत को अपनाकर उसकी कमियों को दूर किया।

6- बौद्ध धम्म को वैदिक धर्म घोषित करने वाला लेखक-

(क)-वह [बुद्ध] भारतीय-आर्य सभ्यता के प्राचीन आदर्शों को नए सिरे से दोहरा रहे थे। ( स्रोत-(प्राक्कथन, एस. राधाकृष्णन, 2500 इयर्स ऑफ बुद्धा, संपादक – पी.वी. वापत, पब्लिकेशन डिवीजन, पृष्ठ ix)

4-बौद्ध धर्म ने कोई नया और स्वतंत्र धर्म नहीं शुरू किया था। यह हिंदुओं के एक ज्यादा प्राचीन धर्म की एक शाखा थी, शायद एक संप्रदाय या विधर्म। उन्होंने उस समय प्रचलित कुछ प्रथाओं का विरोध किया। ( स्रोत- (प्राक्कथन, एस. राधाकृष्णन, 2500 इयर्स ऑफ बुद्धा, संपादक – पी.वी. वापत, पब्लिकेशन डिवीजन, पृष्ठ Xii)

5-बुद्ध ने विरासत [हिंदू विरासत] का उपयोग उसकी कुछ अभिव्यक्तियों को सुधारने के लिए किया। वे पूर्णता लाने आए थे, विनाश करने नहीं। हमारे लिए, इस देश में, बुद्ध हमारी धार्मिक परंपरा [हिंदू परंपरा] के एक उत्कृष्ट प्रतिनिधि हैं। (स्रोत-प्राक्कथन, एस. राधाकृष्णन, 2500 इयर्स ऑफ बुद्धा, संपादक – पी.वी. वापत, पब्लिकेशन डिवीजन, पृष्ठ Xiv)

राधाकृष्णन अपने प्राक्कथन में इस बात को सिरे से खारिज करते हैं कि बुद्ध ने कोई मौलिक दर्शन, दृष्टि और मार्ग सामने रखा। वे बुद्ध के धम्म को वैदिक-हिंदू धर्म की महान धारा से निकली एक छोटी-सी धारा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो उसी में से निकलती है और फिर उसी में मिल जाती है।

उनकी प्रस्थापना को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे बुद्ध से पहले पूरे भारत में, विशेषकर गंगा-यमुना के मैदान में वैदिक दर्शन, संस्कृति और सभ्यता फल-फूल रही थी, या यह कि पूरी तरह से स्थापित थी। जबकि इसका कोई पुरातात्विक प्रमाण आज तक नहीं मिला है। न ही वैदिक सभ्यता-संस्कृति के बारे में कोई लिखित साक्ष्य मिला है और न ही किसी तरह का कोई शिलालेख मिला है।

राहुल सांकृत्यायन राधाकृष्णन के बारे में लिखते हैं-

सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को भारत का महान दार्शनिक कहा जाता है। पर सच यह है कि वह दार्शनिक नहीं, धर्म के व्याख्याता थे। लेकिन बड़े सुनियोजित तरीके से उन्हें आदि शंकराचार्य की दर्शन-परम्परा में अंतिम दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का काम किया गया। जिस तरह आदि शंकराचार्य ने मनुस्मृति में प्रतिपादित काले कानूनों का समर्थन किया था, उसी तरह सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन भी मनु के जबर्दस्त समर्थक थे। (स्रोत-दर्शन-दिग्दर्शन)

शासक वर्ग अपनी सत्ता एवं ताकत का इस्तेमाल करके ऐसे व्यक्तियों को पूरे समाज का नायक-नायिका बनाकर प्रस्तुत कर देता है, जो किसी भी तर्क पर नायक बनने के काबिल नहीं होते, कई बार तो उनके विचार व्यापक समाज को नीचा दिखाने वाले और कुछ मुट्टीभर लोगों के वर्चस्व स्थापित करने वाले होते हैं। वही मुट्टीभर लोग अपनी ताकत का इस्तेमाल करके उसे नायक बना देते हैं।

इतना ही नहीं ऐसे लोगों को भी नायक बना दिया जाता है, जिनका व्यक्तिगत आचरण प्रमाणित तौर पर आदर्शहीन एवं मूल्यहीन होता है।

भारतीय समाज पर एक ऐसा ही नायक द्विज-सवर्ण शासक वर्ग ने शिक्षक दिवस के नाम पर थोप दिया, जिनका नाम सर्वपल्ली राधाकृष्णन है।

इस व्यक्ति की संपूर्ण प्रतिष्ठा जिस ‘भारतीय दर्शन’ नामक किताब पर टिकी हुई है, वह पूरी तरह से साहित्यिक चोरी है, यह प्रमाणित तथ्य है। यह किताब मूलत: उनके शोधार्थी जदुनाथ सिन्हा का शोध-प्रबंध था।

यह व्यक्ति खुलेआम वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थक था और मनु की मुक्त कंठ से प्रशंसा करता था।

डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब जाति के विनाश में राधाकृष्णन के दार्शनिक तर्कों की औचित्यहीनता पर लिखा है।

सबसे आश्चर्य का विषय यह है कि यह पहला व्यक्ति है, जिसे भारत रत्न 1954 में दिया गया, डॉ. आंबेडकर से करीब 36 वर्ष पहले।

जिस देश में बुद्ध, कबीर और फुले दंपत्ति जैसे आदर्श शिक्षक ( गुरु) मौजूद हैं। उस देश ने व्यक्तिगत आचरण में पतित और विचारों में घोर प्रतिक्रियावादी व्यक्ति को इस देश का आदर्श शिक्षक ( गुरु) घोषित किया।

 


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