जंगल के सौदागरों को घेरने की तैयारी
बाँसलोई में बहत्तर ऋतु
सुशील कुमारमीता दास की कविताएँ हमारे समय के ग्रामीण जीवन, प्रकृति, मौसम और समाज के गहन द्वंद्व को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त करती हैं। इन कविताओं में बदलते मौसम के चित्रण के साथ मनुष्य और प्रकृति के जटिल संबंधों को पंक्ति-पंक्ति में ध्वनित किया गया है।

जंगल के सौदागरों को घेरने की तैयारी
डब्ल्यू. एस. मर्विन
जंगल चुप्पी तोड़ रहा इस फागुन
पलाश पर लाल फूल दहक रहे, देखो
आने वाले किसी
जर्द, तमतमाए मंजऱ का संकेत तो नहीं !
उठते चक्रवात में सारंडा के जंगल के
पत्तों की तेज़ सरसराहट और
पंछियों का विकल शोर कोई विद्रोह-गीत तो नहीं
नदी घाट पर पहरा गाँव वालों का पगडंडियों की ओस सूख गई आवाजाही से रेत के भीतर जल खौल रहा
पहाड़ी बस्तियों में रात-बेरात डुगडुगी बज रही
केंदु पत्ते महुवे के ढेर पर
तीर-तरकश का अभ्यास चल रहा
बिरसा का गीत गा रहे जंगलवासी
पहाड़ से इस बसंत के निकलने के पहले ही
स्वागत है, आओ...
अपनी पूरी खूबसूरती और रंग के हुनर
और प्रकृति की लय के साथ आओ
जिसे हम जंगल का लौटना कहेंगे
इस बंजर बेज़ार होती दुनिया में...
कहाँ उतरते आँगन में दाना टुंगने ?
न जाने कौन देस
किस वन-नदी
किस घर-आँगन-गाँव-बहियार
की तलाश में
पलायन कर गए
पंछी टोलियों में !
कवि की इन पंक्तियों को पढ़ आंखें यकायक भीग जाती हैं ।
बशीर बद्र कहते हैं ----
पहाड़ की जिन तलहटियों में
थोड़े-बहुत पानी बचे हैं
वहाँ अभी मनुष्य और जानवर
दोनों समकक्ष खड़े हैं
यह भेद भुलाकर कि
उनमें कौन बड़ा है !
निर्जला कोई भी नहीं रह सकता ।
बड़े से बड़े आदमी को भी
भाषण के दरम्यान
एक घूँट पानी की जरूरत पड़ती है
कुंवर नारायण कहते हैं अपनी कविता में --
इशारा करते हैं, मनुष्य के लालच और लापवाही ने नदी को नाला और हवा को धुआँ और जंगल को मरुस्थल में बदल दिया गया ...
बचाना है...
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुआँ हो जाने से
खाने को जहर हो जाने से
बचाना है- जंगल को मरुस्थल हो जाने से बचाना है- मनुष्य को जंगल हो जाने से।
तीर की तरह चुभती हैं ये, मन व्यथित हो उठता है ।
शम्भू बादल भी अपनी कविता में कह उठते हैं ...
‘जिसे तुम पहाड़ की
भभकती हंसी
झरना कहते हो
वह पहाड़ के सीने की
उफनती वेदना है...
वे मनुष्य को सचेत करते हैं ।
युवाल नोहा हरारी के अनुसार यह समय की सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन की है । विकास की अंधी दौड़ में हम पृथ्वी के अनेक जीव - जंतुओं और प्रकृति की भी अवहेलना की है । जबकि पूरा का पूरा ब्रम्हांड ही एक इको सिस्टम के अनुरूप चलता या संचालित होता है पर हमारा भूख और लालच का पेट है कि भरता ही नहीं।
नरेश सक्सेना जी की चिंता भी कोई छोटी चिंता नहीं...
‘अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुडक़र साथ जाएगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझ से पहले
‘कितनी लकड़ी लगेगी’
श्मशान का टाल वाला पूछेगा
गऱीब से गऱीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में...
यह कविता इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस शाश्वत सत्य और पर्यावरण संरक्षण के प्रति कवि धारणा को तोड़ता है कि मृत्यु के समय मनुष्य के साथ कोई नहीं जाता । कि मृत्यु के समय एक ‘वृक्ष’ मनुष्य के साथ जाता है। यहाँ वृक्ष का अस्तित्व को लेकर कवि चिंतित हैं ।
बाँसलोई एक नदी है झाडख़ंड की , महत्वपूर्ण नदी है जिसे सुशील कुमार जी ने पर्यावरण और प्रकृति के बहाने महत्वपूर्ण कवियों के पर्यावरण , प्रकृति और ऋतुओं के बहाने सभी को झिंझोडऩे का प्रयास किया है । उन्हें भी प्रकृति और पर्यावरण की चिंता है और उन्होंने इस संकलन में उन सभी रचनाकारों की कविताओं को संकलित कर हम सबके सम्मुख लाकर एक संदेश देने की भी भरसक प्रयत्न किया है कि इन कविताओं के बहाने हम सब संवेदित हों और विकास के नाम पर हो रहे लालच और अंधी दौड़ का विरोध करें।
उन्होंने कई कवियों की कविताओं पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं उनमें एक मेरा नाम भी सम्मलित है , वह इस प्रकार है...
मीता दास की कविताएँ हमारे समय के ग्रामीण जीवन, प्रकृति, मौसम और समाज के गहन द्वंद्व को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त करती हैं। इन कविताओं में बदलते मौसम के चित्रण के साथ मनुष्य और प्रकृति के जटिल संबंधों को पंक्ति-पंक्ति में ध्वनित किया गया है।
‘उदास है आकाश’ कविता में कवयित्री का यह कथन ‘मन रोता है, तुझे ढंढता है’ मनुष्य के भीतर प्रकृति से टूटते तादात्म्य का सजीव चित्रण है। कवयित्री की यह उदासी केवल व्यक्तिगत नहीं, सार्वभौमिक भी है. जहाँ बादल और बारिश भी ठगुआ बनकर प्रकृति के अनंत चक्र को भंग करते प्रतीत होता है।
‘आषाढ़ की शाम’ कविता में आषाढ़ के विनाशकारी रूप का वर्णन करते हुए कवयित्री जब कहती है. ‘आज सुबह मुझे नजर आया जमीन पर उस पारखी का के असंतुलन की करुण गाथा है। आषाढ़ की झमाझम बारिश में सुख और दु:ख बिखरा भीगा नीड़’ तो यह न केवल एक पाखी की त्रासदी है, बल्कि पूरे पर्यावरण का यह द्वैत संवेदित के बजाय उसे भीतर तक भेदकर व्यथित कर देता है।
‘मैं तुम्हारा चातक... कृषक’ कविता प्रकृति के प्रति किसान के अटूट प्रेम और उसके संघर्ष को उजागर करती है। ‘ओ मेघ, मैं तुम्हारा चातक... कृषक’ में कवयित्री किसान को चातक पक्षी के रूप में देखती है, जो अपनी प्यास बुझाने के लिए मेघों का इंतजार करता है। जलाशय के सूखने और बच्चों की खुशी के लिए सावन की आस लगाए किसान की यह पुकार, खेतों में सौंधी गंध की महक और उस गंध से कवयित्री की तृण-तृण में प्रकृति की खोज, हमारे समाज के कृषक वर्ग की व्यथा का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती है।
‘बरसात का अपना गणतंत्र’ कविता में कवयित्री बरसात की बूँदों के साथ इश्क़ की हरियाली और हिंसा का विद्रूप चित्र साथ-साथ खींचती है। ‘आज गणतंत्र दिवस है, बरसात का अपना ही गणतंत्र है’ पंक्तियाँ लोकतंत्र और प्रकृति के परस्पन विरोधाभास को उद्घाटित करती हैं। नाजुक सी लडक़ी की त्रासदी, अस्पताल में शिशुओं की मौत और सत्ता का क्रूर उपहास कवयित्री की गहरी संवेदना क जनमाध्यम से चित्रित करते हैं।
अंतत: ‘किसान तुम खड़े हो खेतों में बिजूका बन’ कविता में कवयित्री एव कृषक के अस्तित्व को बिजूका से जोड़ती है। ‘तुम्हारे जुड़े हुए दोनों हाथों कितनी ममता, कितना वात्सल्य होता है’ - यह कथन कृषक के तप और उसक उदात्तता को उजागर करता है। बाँसुरी की तान पर झूमते किसान और राधे व संवाद मानव और प्रकृति के बीच प्रेम और सामंजस्य का उदाहरण प्रस्तुत कर है। मीता दास की कविताएँ हमारे समय का जीवंत दस्तावेज़ हैं, जो पाठक विचार और संवेदना की नई दिशाएँ देती हैं।
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