फूलन देवी: मानव जाति की सर्वश्रेष्ठ 17 विद्रोही महिलाओं में चौथे स्थान पर

टाइम मैगज़ीन की सूची 

सिद्धार्थ रामू

 

फूलन के करीब 31 वर्षों की जीवन की कहानी। इन 21 वर्षों में वे करीब 11 वर्ष जेल में रहीं। सही अर्थों में यह सिर्फ फूलन के करीब 20 वर्ष के जीवन का सच है। जन्म से लेकर 20 वर्ष तक एक लड़की ने कितना झेला, कितना सहा, क्या झेला, क्यों झेला? किस तरह और कैसे अपने साथ हो रहे अन्यायों का प्रतिवाद और प्रतिरोध किया, उसके खिलाफ विद्रोह किया। इस प्रक्रिया में मानव इतिहास की सर्वश्रेष्ठ 17 विद्रोही महिलाओं की टाइम मैगजीन (8 मार्च 2011 का अंक) सूची में शीर्ष  चार महिलाओं में स्थान प्राप्त किया। इस सूची में शामिल भारत की एकमात्र महिला।

फूलन की आत्मकथा का एक बार में दो पेज से अधिक पढ़ना नामुकिन हो जाता था। जन्म के समय से लेकर तिहाड़ जेल से छूटने तक की कहानी फुलन की जुबानी सुनना कई बार असंभव सा लगा। किसी लड़की को इतने अभाव, इतने अपमान, इतनी यातना, इतनी पिटाई और इतनी बार यौन-उत्पीड़न एवं बलात्कार से गुजरना पड़ सकता है कि उसे आप पढ़ भी न सकें, सुन न सकें। कुछ एक पेज पढ़कर किताब बंद कर देनी पड़ती थी ।

फिर किताब खोलने की हिम्मत नहीं पड़े। डर लगे है कि फिर उसी दर्द से गुजरना पड़ेगा, फिर उसकी यातना को सहना पड़ेगा। फूलन को फिर भूख से बिलबिलाते, छोटी-छोटी चींजों के लिए तरसते, अपमान सहते, पीटे जाते और बलात्कार के शिकार होते देखना पड़ेगा। उसके साथ ही उसके मां-बाप और बहनों के अभाव और अपमान को देखना-पढ़ना पडे़गा। उसके साथ उसके समुदाय की अन्य लड़कियों-महिलों की यातना को देखना पड़ेगा।

फूलन की जिंदगी की जिस सच को आप पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकते, वह उस पर बीता था, जिसको उसने सहा। उसका प्रतिवाद और प्रतिरोध भी किया। अंत में उसके खिलाफ विद्रोह कर बागी बन गई। फूलन की जिंदगी में खुशी और सुख कभी-कभार तपते रेत पर एकाध बूंद पानी की तरह आता था। जो  इस तपते रेत पर गिरते ही सूख जाता था। 

किसी का जीवन की कहानी इतनी दर्दनाक हो सकती है कि आप की कल्पना से भी परे हो। आप यह जानते हुए कि यह पूरा का पूरा सच है लेकिन वह सच आप स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पाएं। मैं इस तरह के दर्द और यातना और उससे पैदा हुए आक्रोश से इससे पहले ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा का पहला खंड ‘जूठन’ पढ़ते हुए गुजरा था। लेकिन यदि ईमानदारी से कहूं तो फूलन की आत्मकथा को पढ़ते हुए उससे  सौ गुना ज्यादा यातना और दर्द से गुजरा। 

फूलन की जिंदगी में ‘जूठन’ के आत्मकथाकार की तरह छुआछूत कि वह इंतहा तो नहीं है, जहां एक इंसान अपना इंसानी वजूद खो देता है, उसे घृणास्पद जीव बना दिया जाता है। मल्लाह बिरादरी में पैदा होने के चलते फूलन को छुआछूत का इस कदर सामना नहीं करना पड़ा था। यदि इस बात के अलावा फूलन का जीवन वाल्मीकि जी के जीवन कथा से बहुत ज्यादा अभाव, दर्द और अपमान से भरा हुआ है। बार-बार का बलात्कार और यौन उत्पीड़न उसे खुद की नजर में वहां पहुंचा देता हैं, जहां वह अपने लिए अगले जन्म में कुत्ता-बिल्ली के रूप में पैदा होने की बात सोचने लगती है, वह चाहती है कि इंसान का ऐसा जीवन फिर न मिले।  

फूलन की आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक किताब याद आई। वह विक्टर ह्युगो (Victor-Marie Hugo) का उपन्यास ‘लॉ मिजेरेबल्सज् (Les Miserables)'। यह उपन्यास 1862 में प्रकाशित हुआ था।जो हिंदी में 'विपदा के मारे' नाम से आया । जो फ्रांस विशेषकर पेरिस के मेहनतकश गरीबों की जिंदगी को सामने लाता है। जिसे पढ़कर भीतर ऐसी सिहरन होती है कि व्यक्ति भीतर से हिल जाता है। फूलन की आत्मकथा में जीवन का जो यथार्थ सामने आता है, उसकी तुलना में सिर्फ विक्टर ह्युगो के उपन्यास से पात्रों और उस के उस समाज के यथार्थ से कुछ हद तक कर सकता हूं।

खासकर उसमें सामने आने वाली कुछ मेहनतकश महिलाओं का दिल दहला देने वाला जीवन से। लेकिन विपदा के मारे की महिलाएं सिर्फ वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न सह रही हैं, लेकिन फूलन को वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न के साथ जातीय शोषण-उत्पीड़न का भी भयानकर तरीके से शिकार होना पड़ता है। फूलन के मामले में तीनों एक साथ मिलकर उनके जीवन को विपदा के मारेज् उपन्यास की महिलाओं से ज्यादा दुष्कर और असहनीय बना देते हैं। 

दूसरी बात यह कि वह एक उपन्यास है, जिसमें एक चरित्र में कई चरित्रों का मेल किया जाता है या मेल हो सकता है। लेकिन फूलन की आत्मकथा सौ फीसदी सिर्फ एक ही लड़की जिंदगी की तथ्यपरक सच्ची कहनी है। फूलन के सिर्फ 20 वर्ष के जीवन की कथा पढ़कर ऐसे लगता है, जैसे भारती समाज का खासकर हिंदी पट्टी का असली मर्दवादी, जातिवादी और वर्गीय क्रूर चरित्र प्रस्तुत कर दिया गया हो।

फूलन लड़की होने, तथाकथिक निम्न जाति (मल्लाह) की होने और इसके साथ दिन-रात खटने वाले मेहनतकश वर्ग की होने के चलते जो सहती है और झेलती है। उसकी कल्पना जूठन और विपदा के मारे  पढ़कर भी नहीं की जा सकती। फूलन लिंग, जाति और वर्ग तीनों की मार एक साथ सहती है। ऊपर से वह पूरी तरह निरक्षर है। उसने सिर्फ एक दिन के लिए स्कूल का मुंह देखा था। 

लिंग, जाति और वर्ग का मेल उसके लिए इतना यातनादायी इसलिए हो जाता है कि वह ऐसे गांव में और ऐसे परिवेश में रहती है, जिसमें वर्ण-जातिवादी सामंतवाद अपनी पूरी ताकत से मौजूद है। जहां भारत का संविधान और नियम-कानून नहीं लागू होता था। यह स्थिति उसके गांव ही नहीं, आस-पास के सभी गांवों की भी थी। सरपंच और गांव के ताकतवर लोग मिलकर किसी को जो चाहे दंड दे सकते हैं, कोई भी जुर्माना लगा सकते हैं, उसे गांव से बेदखल करने का फरमान जारी कर सकते हैं। मुट्टीभर सवर्ण जातियां और गांव के अन्य ताकतवर लोग बहुसंख्यक मेहनतकश दलित-पिछड़ों से बेगारी करा सकते हैं।

काम के बाद मजदूरी देने से इंकार कर सकते हैं। गांव के ताकतवर लोग मिलकर किसी की जमीन हड़प सकते हैं। बहुसंख्यक मेहतकशों और गरीब लोगों के बहन- बेटियों और अन्य महिलाओं को बड़े आसानी से अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। इंकार करने पर उनके साथ बलात्कार कर सकते हैं। उनका अपहरण कर उन्हें भीहड़ के डाकुओं को सौंप सकते हैं या डाकुओं से कहकर उसका अपहरण करा सकते। 

डाकुओं के गोल में भी वही ऐसी स्त्री को बलात्कार का शिकार होना पड़ता है, जातिवाद के क्रूर रूप का सामना करना पड़ता। पुलिस-प्रशान वर्चस्वशाली जातियों (अमूमन सवर्णों) और गांव के अन्य ताकवर लोगों की चेरी है। वैसे भी पुलिस-प्रशासन में भी ऐसे वर्ण-जातिवादी मानसिकता के लोग भर पड़े हैं, उस समय तो सिर्फ उन्ही का वर्चस्व था। पूरा ढांचा और व्यवस्था ऐसी है कि मेहनतकश बहुजनों के लिए न्याय पाने का कोई रास्ता, कोई उम्मीद और कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती है, लेकिन एक लड़की  के लिए तो यह और भी यातनादायी और दुष्कर था। ऐसी एक लड़की फूलन थी। 

फूलन का जन्म ही उसके मां-बाप के लिए अभिशाप की तरह था, विशेषकर मां के लिए। उनकी मां मूला नहीं चाहती थीं कि फिर एक बेटी पैदा हो। पहले से उनकी एक बेटी थी। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस बार बेटा पैदा होगा। लेकिन फूलन के रूप में बेटी पैदा हो गई, जो रूप-रंग और शक्ल सूरत में उनकी नजर में बदसूरत भी थी। बात सिर्फ बेटे की चाह तक सीमित नहीं थी, न ही रंग-रूप तक। उस परिवार में एक और बेटी के पैदा होने का मतलब उसके पेट भरने की चिंता, किशार होते ही गांव के यौन-उत्पीड़कों और बलात्कारियों से उसे बचाने की भयावह कल्पना। इस सबके बाद उसकी शादी और उसके लिए दहेज जुटाने का पहाड़ सा बोझ।

फिर भी पैदा हो गई, होश संभालते ही मां ने उसे पुरूषों ( उसकी मां नजर में दरिंदे) से हर हाल में बचने की चेतावनी दे दी, फूलन को इसका कारण नहीं पता था। लेकिन उसे पुरूषों के चंगुल से खुद को बचाना था। बचते-बचाते करीब साढ़े दस साल की उम्र में उसकी शादी के 33 साल के दुहाजू जी कर दी जाती है। वह उसे इस उम्र में अपने घर ले जाता है। फिर तो 10 साल की बच्ची के साथ तथाकथित पति से द्वारा यौन हमला और बलात्कार का सिलसिला शुरू होता है। प्रतिवाद और प्रतिरोध करने पर बुरी तरह से पिटाई होती है, गाय-भैंस वाले कमरे में उसे बंद कर दिया जाता है।

वह मौत के करीब पहुंच जाती है, किसी तरह उसके देवीदेनी ( फूलन के पिता) उसे वापस लाते हैं। पति का घर छोड़कर गांव आते ही वह कुलक्षणी घोषित कर दी जाती है। पति द्वारा छोड़ी गई, ससुराल में न रह पाने वाली। इसके साथ वह गांव को दबंगो (विशेषकर सवर्णों) के लिए सहज उपलब्ध मान ली जाती है। उससे छेड़छाड़ और बलात्कार की कोशिश उनका सहज अधिकार बन जाता हैं। पंचायत उसके नियति का फैसला करती है। फूलन और उसके मां-बाप के लिए उसकी जिंदगी बोझ बन जाती है। वह मरना चाहती है,  मां-बाप भी सोचते हैं कि काश वह मर जाती। 

फूलन अपने और अपने मां-बाप के साथ होने वाले अन्यायों के प्रतिवाद और प्रतिरोध करती है। उसके और उसके मां-बाप और परिवार का सबसे बड़ा उत्पीड़क स्वयं उसके पिता का सौतेले भाई और बाद में उसका बेटा मायादीन है। जो फूलन के पिता की सारी खेती हड़प चुका है। वह तरह-तरह से फूलन और उसके परिवार तबाह करने की कोशिश करता है, वह चाहता है कि यह परिवार गांव छोड़कर चला जाए।

क्योंकि फूलन के पिता देवीदीन ने अपनी जमीन उससे हासिल करने के लिए  उससे मुकदमा लड़ रहे थे। फूरे परिवार में एकमात्र फूलन उसके अन्यायों का विरोध करती, उसका जवाब देती थी, उसका समय-समय पर उसका मुकाबला करती थी। वह गांव से सरपंच और उसके बेटों की गंदी निगाहों और हरकरतों को सामने भी रह-रह कर डटकर खड़ी होती थी।

मायादीन और सरपंच के साजिशों के चलते ही उसका ब्याह ३३ साल के अधेड़ से हुई थी। फिर वे लोग मिलकर फूलन को उसके पति के पास भेजने की साजिश रचते हैं, ताकि उन्हें उससे छुट्टी मिल जाए। वे जो चाहे मनमाना व्यवहार उसके परिवार के साथ कर सकें। दुबारा उसे उसके पति के पास जबर्दस्ती भेज दिया जाता है। जिससे वह घृणा करती है, जिसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती। वह उसकी नजर में बलात्कारी था। वह एक बार फिर जाती है, इस बार उसका तथाकथित पति ही उसे लावारिस हालात मे छोड़ जाता है।

फूलन एक बार फिर अपने मां-बाप के घर आती है। दिन-रात मां-बाप के साथ खटती है। लेकिन वह गांव के दबंगों की नजर में चुभती रहती है। उसे झूठे केस में फंसाकर जेल भेज दिया जाता है, तब वह करीब 15 साल की रही होगी। वहां पुलिस लॉकअप में उसे नंगा किया जाता है, मारा-पिटा जाता है, तरह-तरह से यातना दी जाती है। उसके साथ पुलिस बलात्कार करती है। सबकुछ पिता के सामने। किसी तरह वह छूटती है। फिर गांव के ठाकुरों के बेटे के बलात्कार का शिकार होती है। प्रतिवाद और प्रतिरोध करती है।

सरपंच, मायादीन (फूलन का सौतेला भाई) और अन्य दबंग मिलकर डाकुओं से उसका अपहरण करने को कहते हैं। फूलन को उसके मां-बाप के सामने ही उसके घर से डाकू उठाकर ले जाते हैं। मां-बाप की बुरी तरह पिटाई करते हैं। वहां भी उसे बलात्कारियों से छुट्टी नहीं मिलती। गिरोह का सरगना बबूल गुर्जर उसके साथ बार-बार बलात्कार की कोशिश करता है। उसे गालियां देता है। इस समय विक्रम मल्लाह उसी गिरोह का सदस्य विक्रम मल्लाह उसका साथ देता है। तंग आकर बबलू गुर्जर की हत्या कर देता है।

फूलन के जीवन में पहली बार सुख और प्यार का एक फूल खिलता है। फूलन फूल सिंह बन जाती है। डाकुओं के गिरोह का एक सदस्य। विक्रम मल्लाह उससे शादी करता है। वह विक्रम मल्लाह की दूसरी पत्नी बनती है। उसे थोड़ा सम्मान और इज्जत मिलती है। वह पुलिस और राज्य के नजर में एक नामी-गिरामी डकैत बन जाती है। यह सब कुछ करीब 16'7 वर्ष की उम्र का किस्सा है।

विक्रम के साथ और प्यार का यह समय ज्यादा दिन नहीं चलता। उस गिरोह के मुख्य सरगना श्रीराम और लाला सिंह जेल से छूटकर आते हैं। गिरोह की कमान संभाल लेते हैं। वे फूलन को अपनी रखैल बनाना चाहते हैं। फूलन और विक्रम दोनों इंकार कर देते हैं। वे आगबबूला हो जाते हैं, कैसे एक मल्लाह की बेटी और मल्लाह उनकी बातों को मानने से इंकार कर सकते हैं। धोखे से दोनों विक्रम मल्लाह की हत्या कर देते हैं। फूलन को २१ दिनों तक बंधक बनाकर अपने गांव बेहमई में रखते हैं।

21 दिनों तक फूलन के साथ बलात्कार का सिलसिला चलता रहता है। उसके साथ गांव के ठाकुर एक-एक कर बलात्कार करते हैं, तब तक जब तक वह बेहोश नहीं हो जाती। होश आते ही फिर बलात्कार का सिलसिला शुरू हो जाता था। किसी तरह वहां से फूलन बच निकलती है। अपना गिरोह बनाती है। पहली बार स्वतंत्र रूप में बागियों के गिरोह का सरगना बनती है।

इसके बाद दुनिया भर में चर्चित बेहमई की घटना 14 फरवरी 1981 को घटित होती है। जिसमें 20 ठाकुर मारे जाते हैं। कुछ घायल होते हैं। उसके बाद फूलन देवी दुनिया भर में चर्चा और भारतीय राज्य के लिए चिंता का विषय बन जाती है। बेहमई की इस घटना के समय फूलन की उम्र सिर्फ 18 वर्ष थी। आप कल्पना कीजिए। एक 18 वर्ष में एक लड़की की जिंदगी में कितना कुछ घटित होता है। उसके बाद कहानी यहीं छोड़ता हूं।

फूलन मर्दवादी सत्ता ( पितृसत्ता) का कोई रूप नहीं है, जिसकी मार ने झेली हो। चाहे वह परिवार की पितृसत्ता हो, चाहे पति की पितृसत्ता हो, गांव की पितृसत्ता हो, जाति की पितृसत्ता हो, पुलिस की पितृसत्ता हो या डाकुओं की पितृसत्ता हो। इसी तरह वर्ण-जाति के वर्चस्व का कोई रूप नहीं है, जिसका सामना फूलन ने न किया हो। चाहे वे गांव के ठाकुर हों, अगल-बगल के गांवों के ठाकुर हों, चाहे सवर्ण पुलिस हो और चाहे बबलू गुर्जर, श्रीराम सिंह और लाला सिंह जैसे ठाकुर हो या उसके साथ गांव, थाने में और बेहमई में बलात्कार करने वाले सवर्ण (विशेषकर ठाकुर) हों। 

इसी के साथ वर्गीय शोषण-उत्पीड़न और अन्याय का कोई रूप नहीं जिसे फूलन को न झेलना पड़ा हो। चाहे उस गांव का धनी उसका सौतेला चचेरा भाई मायादीन हो, जिसने उनके पिता की जमीन हड़प ली और विभिन्न तरीकों से उसके परिवार और उसके जीवन को नरक बना दिया हो। चाहे गांव धनी व्यक्ति सरपंच हो, उसके पिता की मजदूरी न देने वाले हों, चाहे फूलन और उसकी बहन की मजदूरी न देने वाला भट्टा मालिक हो, ऐसे बहुत सारे।

फूलन परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना किया, सबको चुनौती दी। फूलन सच्चे अर्थों में अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे विद्रोहिणी महिला हैं। जैसा की टाइम मैगजीन ने उन्हें यह दर्जा दिया था।

मैंने अभी तक जो भारतीय जीवन-यथार्थ के बारे में जो किताबें पढ़ी हैं। उसमें फूलन की आत्मकथा ‘I PHOOLAN DEVI’ (THE atobiography of india’ Bandit Queen) भारतीय जीवन यथार्थ को किसी भी किताब की तुलना में ज्यादा समग्रता, संश्लिष्टता और उसकी पूरी जटिल के साथ अभिव्यक्ति करती है। फूलन की आत्मकथा भारतीय जीवन-यथार्थ ( विशेषक हिंदी पट्टी, उसमें भी बुंदेल खंड) की सभी परते खोल देती है।

अन्तर्विरोध के सभी रूप सामने ला देती है।  इन किताबों में मैं ‘गोदान, ‘मैला आंचल’ और ‘जूठन’ को भी शामिल रहा हूं। शायद इसका कारण इसके केंद्र में एक स्त्री का होना है। एक ऐसी स्त्री जो जाति ( मल्लाह) और वर्ग ( भूमिहीन मेहनतकश) दोनों रूपों में सबसे शोषित-उत्पीड़ित जाति और वर्ग ही है। इसके साथ ही वह स्त्री है। गोदान और मैला आंचल दोनों में केंद्रीय चरित्र पुरूष हैं। मध्यवर्गीय जातियों के हैं और किसान हैं। ये लोग मल्लाह जैसी सेवक जाति के नहीं हैं।

मल्लाह जाति और भूमिहीन मेहनकश की बेटी है फूलन। लेकिन वह ‘गोदान, और ‘मैला आंचल’ के उच्चवर्गीय सवर्णों के वर्चस्व से उसी तरह घिरी हुई है, जैसे होरी और कालीचरण आदि घिरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में दमनकारी शोषक-उत्पीड़क शक्तियां गोदान और मैला आंचल से कम ताकवर नहीं, न ही उनकी क्रूरता और दमन उनसे कम है। बल्कि कई मामलों में ज्यादा है। लेकिन इस दमन को सहने वाली और उसका मुकाबला करने वाली एक मेहनतकश निरक्षर स्त्री है। फूलन की आत्मकथा हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए भारतीय समाज को समझना और बदलना चाहता हो। 

यह आत्मकथा एक फ्रांसीसी प्रकाशक ने दो वर्षों में पेशेवर लेखकों से तैयार कराई थी। फूल अपनी जीवन कथा कहती थीं, उसे दर्ज किया जाता था। बाद में यह सामग्री 2000 पृष्ठों की बनी। फिर पांच सौ पृष्ठों में संपादित होकर सामने आई। हर पेज पर एक-एक शब्द फूलन को सुनाकर उनके हस्ताक्षर लिए गए। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके, उन्होंने जो कहा है, वही लिखा गया है।

कुछ भी उसमें मिलावट नहीं की गई है। इस तरह यह आत्मकथा सामने आई। इस आत्मकथा के लिखे जाने की कहानी विस्तार से फिर कभी। संयोग या दुर्योग है कि फूलन के जीवन के सच को विदेशी लेखकों और प्रकाशकों ने सामन लाया। यही करीब बहुजन नायकों-नायिकाओं के मामले भी हुआ है।

 


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