9 जुलाई भारत बंद: यह वह लड़ाई है जो अपने श्रम से समाज का पहिया घुमाता है

बदले में उसे सिर्फ इतना देती है कि वह जिंदा रह सके

मनोज अभिज्ञान

 

जब मनुष्य श्रम करता है, तो वह सिर्फ रोटी नहीं कमाता-वह अपने अस्तित्व को अर्थ देता है। वह समाज के निर्माण में ईंट जोड़ता है, पुल बनाता है, बच्चे को पढ़ाता है, बीमार का इलाज करता है। श्रम ही वह धागा है जिससे पूरा समाज बुना गया है। लेकिन जब उसी श्रमिक को अधिकारों से वंचित किया जाता है, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है-क्या यह समाज सिर्फ कुछ विशेष लोगों के ऐश के लिए है? जब श्रम की गरिमा को रौंदा जाता है, जब श्रमिक को शोषण की वस्तु बना दिया जाता है, तब वह चुप नहीं रह सकता। उसका मौन भी धीरे-धीरे संघर्ष में बदलता है, और संघर्ष जब चेतना को छूता है, तो वह हड़ताल के रूप में सामने आता है।

हड़ताल व्यवस्था के विरुद्ध नैतिक प्रतिरोध है जो श्रमिक से सब कुछ लेती है लेकिन बदले में उसे सिर्फ इतना देती है कि वह जिंदा रह सके। यह केवल आर्थिक मांगों का मसला नहीं, बल्कि न्याय, गरिमा और मानवीय अस्तित्व का सवाल है। जब काम के घंटे बढ़ा दिए जाते हैं, जब स्थाई रोजगार छीन लिया जाता है, जब यूनियन का अधिकार खत्म कर दिया जाता है, तो यह श्रमिक को नागरिक से दास में बदल देने की प्रक्रिया होती है। और जब दास को यह बोध हो जाता है कि उसकी ज़ंजीरें कृत्रिम हैं, तब वह उन्हें तोड़ने के लिए उठ खड़ा होता है।

हड़ताल इसलिए वैध है क्योंकि यह अन्याय के विरुद्ध है। यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इस व्यवस्था में श्रमिक के लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा गया है। हड़ताल उन लाखों हाथों की पुकार है जिन्हें लगातार कमजोर किया गया है। यह घोषणा है कि वे अब और अपने अधिकारों से समझौता नहीं करेंगे। वेतन, पेंशन, काम का समय, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान-ये सिर्फ मांगें नहीं हैं, ये जीवन के मूल आधार हैं। और जो समाज इन्हें देने से इंकार करता है, उसे चुनौती देना हर श्रमिक का नैतिक कर्तव्य बन जाता है।

जब शासक वर्ग मेहनतकश जनता की पीठ पर सवार होकर अपने ऐशो-आराम और मुनाफे का साम्राज्य खड़ा करता है, तब हड़ताल महज़ विरोध नहीं, बल्कि अपने वजूद की रक्षा की पहली पुकार बन जाती है। 9 जुलाई की अखिल भारतीय हड़ताल केवल मज़दूरों का आंदोलन नहीं है, यह उस हर व्यक्ति की लड़ाई है जो अपने श्रम से समाज का पहिया घुमाता है और बदले में अपमान, असुरक्षा और गुलामी झेलता है।

नई श्रम संहिताएं श्रम नहीं, पूंजी की संहिताएं हैं। ये कानून नहीं, श्रमिकों की बेड़ियां हैं। इनमें न 8 घंटे के कार्यदिवस की गारंटी है, न स्थाई रोजगार की सुरक्षा। ये न केवल वेतन छीनते हैं, बल्कि संगठित होने का अधिकार भी निगल जाते हैं। इन्हें लागू कर इस व्यवस्था ने यह साफ कर दिया है कि वह मेहनतकशों को गुलाम बना देना चाहती है। निजीकरण और ठेकेदारी को स्थाई स्वरूप देकर जो आर्थिक ढांचा तैयार किया जा रहा है, वह ऐसी दुनिया बनाना चाहता है जहां काम करने वाला हर इंसान बिना अधिकारों के महज़ औज़ार हो—जिसे जब चाहे फेंका जा सके।

सरकार योजना कर्मियों, आशा, आंगनबाड़ी और मिड-डे मील वर्कर्स को स्वयंसेवी कहकर उनके श्रम का शोषण करती है। ये महिलाएं समाज की रीढ़ हैं, लेकिन इन्हें न्यूनतम वेतन, पेंशन, मातृत्व लाभ या सुरक्षा कुछ भी नहीं मिलता। यह नारी श्रम के प्रति गहरी घृणा और असम्मान की नीति है।

बुज़ुर्गों की पेंशन छीनकर सरकार उन्हें पूंजी की दया पर छोड़ देना चाहती है। पुरानी पेंशन योजना को समाप्त करना केवल आर्थिक हमला नहीं, यह उस सामाजिक अनुबंध का उल्लंघन है जो राज्य और नागरिक के बीच होता है। यह घोषणा है कि अब राज्य तुम्हारी सेवा के बदले कोई जिम्मेदारी नहीं लेगा।

शिक्षा पर भी हमला उतना ही तीखा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 असल में कॉरपोरेट एजेंडा है, जो शिक्षा को बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बना देना चाहता है। गरीबों और पिछड़ों के लिए स्कूल और कॉलेज बंद होंगे, और शिक्षा केवल उस वर्ग की बपौती बन जाएगी जो पहले से सत्ता और धन पर काबिज़ है। यह केवल शिक्षा से वंचित करना नहीं, एक पूरी पीढ़ी के सपनों की हत्या है।

जब श्रमिकों के हाथों से उनके अधिकार छीन लिए जाते हैं, जब छात्रों से उनकी शिक्षा, महिलाओं से उनकी सुरक्षा, बुज़ुर्गों से उनकी पेंशन और पूरे जनसमूह से उनका भविष्य छीन लिया जाता है-इतिहास गवाह है कि तब संघर्ष जन्म लेता है। यह हड़ताल उसी संघर्ष की पहली दस्तक है। यह उन असंख्य आवाज़ों की गूंज है जो अब और चुप नहीं रह सकतीं।

जिस समाज की नींव श्रमिकों ने रखी है, उस समाज को वे शोषकों के हवाले नहीं कर सकते। हमें यह साफ कर देना है कि हम खामोश परछाई नहीं हैं, जिन्हें बिना आवाज़ कुचल दिया जाएगा। हम चलेंगे, उठेंगे, बोलेंगे, और जब ज़रूरत पड़ी तो हिला देंगे वह व्यवस्था जो हमारे श्रम को चूसकर अपना महल बनाती है।

सुविधाभोगी वर्ग को भी यह समझना होगा कि वह जिस आराम और सुविधा का जीवन जी रहा है, वह श्रमिकों के अनदेखे और अनगिनत श्रम पर टिका है। जो खाना वह खा रहा है, जो कपड़ा पहन रहा है, जिस सड़क से गुजर रहा है, जो अस्पताल, स्कूल, बिजली, मोबाइल नेटवर्क और ई-कॉमर्स सेवाएं इस्तेमाल कर रहा है-इन सबके पीछे किसी न किसी सृजनशील मेहनतकश का खून-पसीना लगा है। यदि श्रमिक की स्थिति अस्थिर, असुरक्षित और अमानवीय होती जाएगी, तो यह पूरी जीवन-व्यवस्था को भी धीरे-धीरे खोखला कर देगी। जब श्रमिक के पास खर्चने लायक पैसा नहीं होगा, तो बाज़ार सिकुड़ेगा, नौकरियां जाएंगी, और सुविधाभोगी वर्ग भी खुद उस अस्थिरता का शिकार बनेगा जिसे वह आज केवल बाहर देख रहा है।

श्रमिक आंदोलन और हड़तालें केवल मजदूरों की बातें नहीं होतीं-ये लोकतंत्र की नब्ज होती हैं। जब श्रमिक अपने अधिकारों के लिए खड़े होते हैं, तब वे उस राजनीतिक और आर्थिक संरचना को चुनौती दे रहे होते हैं जो पूरे समाज को नियंत्रित करती है। अगर आज श्रमिक के काम के घंटे बढ़ते हैं, कल वही नियम शिक्षकों, डॉक्टरों, निजी कर्मचारियों और हर उस पेशे में लागू होंगे जहाँ श्रम का मूल्यांकन होता है। इसलिए हड़ताल का समर्थन करना केवल एक वर्ग के प्रति सहानुभूति नहीं, बल्कि अपने ही भविष्य को सुरक्षित रखने की चेतन प्रक्रिया है। जो वर्ग आज चुप है, वह कल अपने अधिकारों के छिनने पर खुद को अकेला खड़ा पाएगा। इसलिए इस हड़ताल में साथ देना आत्म-संरक्षण का विवेकपूर्ण निर्णय है।

स्त्रियों के लिए यह हड़ताल केवल श्रम अधिकारों की नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन संघर्ष की आवाज़ है। आंगनबाड़ी, आशा, मिड-डे मील, योजना कर्मियों जैसी लाखों महिलाएं देश की सबसे ज़रूरी सेवाएं निभाती हैं-बच्चों की देखभाल से लेकर ग्रामीण स्वास्थ्य तक-लेकिन उन्हें न वेतन मिलता है, न स्थायित्व, न सम्मान। उन्हें स्वयंसेवी कहकर उनके श्रम का शोषण किया जाता है, जबकि उनका कार्य हर दिन समाज को थामे रखता है। इसके अलावा, निजीकरण और अस्थायीकरण की नीतियां सबसे पहला हमला स्त्रियों पर ही करती हैं, क्योंकि उन्हें सबसे पहले निकाला जाता है, और सबसे कम मज़दूरी दी जाती है। लैंगिक भेदभाव, कार्यस्थल पर यौन हिंसा और सामाजिक असुरक्षा की इस दुनिया में यह हड़ताल स्त्रियों की सुरक्षा, समानता और आत्मनिर्भरता की लड़ाई है-इसमें उनकी भागीदारी सिर्फ ज़रूरी नहीं, अनिवार्य है।

विद्यार्थियों को इस हड़ताल का समर्थन इसलिए करना चाहिए क्योंकि जिस कॉरपोरेटपरस्त नीति से मज़दूरों का शोषण हो रहा है, वही नीति शिक्षा को भी बाज़ार की वस्तु बना रही है। नई शिक्षा नीति 2020 के तहत सरकारी स्कूल और कॉलेज धीरे-धीरे खत्म किए जा रहे हैं, फीस बढ़ाई जा रही है, और निजी संस्थानों को बेलगाम छूट दी जा रही है। इसका सीधा असर छात्रों की पहुंच पर पड़ रहा है-खासकर उन पर जो ग्रामीण इलाकों, दलित-पिछड़े समुदायों या श्रमिक परिवारों से आते हैं। जब शिक्षा भी केवल पैसे वालों की जागीर बन जाएगी, तब गरीब विद्यार्थी सिर्फ सपने देखेंगे, उन्हें साकार नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह हड़ताल छात्रों के भविष्य की रक्षा की लड़ाई है-अगर आज वे चुप रहे, तो कल शिक्षा उनके हाथ से हमेशा के लिए छिन जाएगी।

यह हड़ताल चेतना का आगाज़ है। जो आज साथ नहीं है, वह कल अकेला खड़ा होगा-और तब कोई बचाने नहीं आएगा। इसलिए जो भी श्रम करता है, वह इस संघर्ष में शामिल हो।

 


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