आपातकाल और साहित्य
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लौटी, तब साहित्य ने अपनी भूमिका को और गहराई से देखा
परिचय दासआपातकाल की मानसिकता में साहित्य एक ऐसी अंतर्धारा की तरह है, जिसमें समय की भयावहता, अभिव्यक्ति की घुटन, और सत्ता के दबाव के बीच रचनात्मकता की कराहती आवाज़ें गूंजती हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 1975-77 का कालखंड वह अंधकार है, जहाँ संवैधानिक व्यवस्थाओं को कुचलते हुए लोकतंत्र को स्थगित किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक संगठित रणनीति के तहत नियंत्रित किया गया।

ऐसे समय में साहित्य केवल सौंदर्यबोध का माध्यम नहीं रहा, बल्कि यह प्रतिरोध, धैर्य, और विवेक का घोषणापत्र बन गया। साहित्यकारों ने इस दौर में न केवल अपनी लेखनी से विद्रूपताओं का चित्रण किया, बल्कि समाज की अवचेतन चेतना को सहेजने का भी कार्य किया।
आपातकाल का साहित्य उस त्रासदी की अभिव्यक्ति है, जिसमें केवल समाचार-पत्रों पर सेंसर नहीं लगाया गया, बल्कि कवियों की कल्पना, कथाकारों की संवेदना और निबंधकारों की आलोचना दृष्टि को भी कठघरे में खड़ा कर दिया गया। लेखकों की रचनात्मकता एक ऐसे द्वंद्व से जूझती रही जहाँ वह सच बोलना भी चाहते थे पर बोल नहीं सकते थे, और चुप रहना भी उन्हें स्वीकार नहीं था। इस संघर्ष ने साहित्य को भीतर से और अधिक जटिल, गहराईपूर्ण और गवाही के रूप में रूपांतरित किया।
इस काल में लिखे गए साहित्य में भय, असुरक्षा, निरीहता और प्रतिरोध के कोमल बीज एक साथ दिखाई देते हैं। बाद की पीढ़ी इस समय अधिक सजग, अधिक सवाल करने वाली और सत्ता से असहमति रखने वाली बन चुकी थी। हालांकि आपातकाल से पहले ही कुछ लेखक व्यवस्था की विफलताओं पर उंगलियाँ उठा रहे थे पर आपातकाल ने इस स्वर को और धारदार बना दिया। हिंदी में विजयदेव नारायण साही, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, शमशेर बहादुर सिंह, कुंवर नारायण , अज्ञेय आदि अनेक रचनाकारों की पंक्तियों में तत्कालीन राजनीतिक अव्यवस्था की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
आपातकाल ने यह भी सिखाया कि लेखकों के लिए निष्क्रिय तटस्थ रहना असंभव है। लेखकों की चुप्पी भी उस समय एक प्रकार का राजनीतिक वक्तव्य बन जाती थी। इसलिए कुछ साहित्यकारों ने या तो आत्म-निर्वासन का रास्ता चुना, या फिर प्रतीकों और रूपकों में वह सब कुछ कहने की कोशिश की जो खुलकर नहीं कहा जा सकता था। कविताएँ उपमाओं से लदी हुईं, कहानियाँ दोहरे अर्थों से भरी हुईं और नाटक आलोचनात्मक इशारों से सजे हुए — यह सब उस मनोभूमि का हिस्सा थे, जिसे हम ‘आपातकाल की मानसिकता’ कह सकते हैं।
इस मानसिकता में डर और प्रतिरोध के बीच का तनाव मुख्य धारा बना। जो लेखक सरकार के पक्ष में खड़े थे, उनका साहित्य भी आरोपित नैतिकता और सरकारी दृष्टिकोण का प्रतिबिम्ब बन गया। वहीं जो लेखक सरकार के विरोध में थे, उन्होंने अपनी जान जोखिम में डाल कर भी आलोचना की। यही कारण है कि उस समय कुछ पत्रिकाएँ बंद हो गईं, कुछ संपादकों को पद से हटना पड़ा, और कुछ लेखकों को जेल की यातना झेलनी पड़ी।
यह कहना उचित होगा कि आपातकाल में साहित्य ने अपने अस्तित्व की रक्षा केवल साहस से नहीं, बल्कि कलात्मकता से भी की। एक नया ‘कूटभाषा’ साहित्य के भीतर पैदा हुआ — प्रतिरोध की भाषा, जो दिखती कुछ और थी, कहती कुछ और थी, और समझी कुछ और जाती थी। यह यथार्थ और कल्पना का वह संधि-स्थल था, जहाँ लेखक स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए समाज को आईना भी दिखा रहा था।
आपातकाल की मानसिकता ने यह भी स्पष्ट किया कि साहित्य में सत्ता और अभिव्यक्ति की लड़ाई केवल किसी तात्कालिक राजनीतिक घटना से जुड़ी नहीं होती, वह एक गहरे सांस्कृतिक संघर्ष का हिस्सा होती है। यह संघर्ष उस समय भी चल रहा था, जब ‘अनुशासन पर्व’ के नाम पर स्वतंत्रता की आत्मा को घायल किया जा रहा था।
कविता, कहानी, संस्मरण, आत्मकथा और निबंध — सभी विधाएँ इस मानसिकता से प्रभावित हुईं। ‘चुप्पी’ एक रचनात्मक रणनीति बन गई, और ‘गूंगी अभिव्यक्ति’ का रूपांतरण कला में हुआ। बहुत से लेखकों ने डायरी लेखन की ओर रुख किया, जिससे तत्कालीन सत्ता के काले पृष्ठों को व्यक्तिगत गवाही में बदला जा सके।
यह भी गौरतलब है कि आपातकाल के बाद जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लौटी, तब साहित्य ने अपनी भूमिका को और गहराई से देखा। आपातकाल के अनुभव ने साहित्य को केवल विचार और भावनाओं का कोष न मानकर, उसे सामाजिक चेतना और ऐतिहासिक स्मृति का वाहक सिद्ध किया। यह एक नया आत्मबोध था, जिसमें लेखक ने स्वयं को इतिहास का साक्षी और समाज का नैतिक प्रहरी माना।
इस प्रकार आपातकाल केवल एक राजनीतिक दुर्घटना नहीं रहा, बल्कि वह साहित्यिक चेतना का वह घाव बन गया जो लंबे समय तक टीसता रहा। वह एक ऐसा दौर था जहाँ हर शब्द, हर पंक्ति, हर विराम चिह्न भी सत्ता से मुठभेड़ करता दिखाई देता था। यह मुठभेड़ केवल शिल्प की नहीं, बल्कि आत्मा की थी — और साहित्य ने इसे जिया, सहा और याद रखा।
इसी स्मृति में वह आशा भी छिपी है कि जब-जब कोई सत्ता अभिव्यक्ति को कुचलने का प्रयास करेगी, साहित्य फिर खड़ा होगा — प्रश्नों के साथ, प्रतीकों के साथ, और साहस के साथ। आपातकाल की मानसिकता ने हमें सिखाया कि साहित्य वह ध्वनि है जिसे चुप्पियों में भी सुना जा सकता है, वह भाषा है जिसे सेंसर नहीं किया जा सकता और वह दृष्टि है जो अंधकार में भी देख सकती है।
आपातकाल (1975–77) का दौर भारतीय लोकतंत्र का ऐसा गाढ़ा अंधकार था, जिसमें अधिकांश संस्थाएँ झुक गईं, पर साहित्य और संस्कृति के कुछ दीपक ऐसे भी थे जिन्होंने उस अंधकार में प्रतिरोध की लौ जलाए रखी। भारतीय भाषाओं के अनेक साहित्यकारों ने आपातकाल का खुला या सांकेतिक विरोध किया—कुछ ने लेखन से, कुछ ने संस्थागत पदों से इस्तीफा देकर, और कुछ ने सार्वजनिक वक्तव्यों के माध्यम से। इस प्रतिरोध में मराठी की दुर्गा भागवत, असमिया के वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य, कन्नड़ के यू.आर. अनंतमूर्ति, हिंदी के अज्ञेय और कई अन्य प्रमुख नाम हैं। इनकी भूमिका न केवल राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण रही, बल्कि नैतिक और बौद्धिक प्रतिरोध के उदाहरण के रूप में भी देखी जाती है।
दुर्गा भागवत का नाम आपातकाल के प्रतिरोध में सबसे निर्भीक साहित्यिक आवाज़ों में लिया जाता है। वे न केवल एक जानी-मानी साहित्यकार थीं, बल्कि विदुषी और विचारक भी थीं। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध किया। सरकार द्वारा जब उन्हें महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति परिषद का प्रमुख नियुक्त किया गया तो उन्होंने यह पद अस्वीकार कर दिया। यही नहीं, उन्होंने सरकार के कदमों को अलोकतांत्रिक और जनविरोधी कहने का साहस किया, जिससे उन्हें जेल भी जाना पड़ा। पर वे नहीं झुकीं। उनका जेल-प्रवास भारतीय लेखकों की आत्मा के संघर्ष का प्रतीक बन गया।
वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को असमिया साहित्य का एक प्रमुख कथाकार और उपन्यासकार माना जाता है। वे एक सजग साहित्यकार थे और सामाजिक न्याय तथा जनतंत्र के पक्षधर भी। आपातकाल के दौरान जब लगभग समूचा मीडिया और सांस्कृतिक जगत चुप था, उन्होंने अपने लेखन और सार्वजनिक वक्तव्यों में शासन के दमन का विरोध किया। असमिया भाषा में उनके उपन्यासों में जनजीवन के तनाव और सत्ता के विरुद्ध भीतर से उठती कराह को पढ़ा जा सकता है। बाद में उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिला, पर वे सत्ता के किसी भी प्रकार के पुरस्कार और सम्मान के आगे झुके नहीं।
यू.आर. अनंतमूर्ति कन्नड़ साहित्य में आधुनिक चेतना के प्रतिनिधि माने जाते हैं। वे उन कुछ लेखकों में थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है। उन्होंने इंदिरा गांधी की नीतियों की आलोचना की और स्पष्ट कहा कि यदि लेखक और बुद्धिजीवी इस समय चुप रहे, तो भविष्य उन्हें माफ नहीं करेगा। वे एक ओर भारतीय परंपरा की आलोचना करते थे, वहीं दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर होने वाले राजनीतिक दमन के भी विरोधी थे। उनकी कृतियाँ जैसे ‘संस्कार’ और ‘आवरण’ सामाजिक सत्ता के विरोध में मानवीय विवेक की खोज हैं।
अज्ञेय ने आपातकाल के दौरान स्पष्ट रूप से लोकतंत्र का पक्ष लिया। उन्होंने सत्ता द्वारा लागू सेंसरशिप, दमन और भय की राजनीति का विरोध किया। वह उन विरले साहित्यकारों में थे, जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से लेखकीय भूमिका के साथ-साथ जनमत तैयार करने का भी कार्य किया। दिनमान और अन्य मंचों से उन्होंने अपने विचारों को मुखरता से रखा। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि अगर साहित्यकार भी डर के आगे चुप हो जाएगा तो समाज का नैतिक ढाँचा ढह जाएगा। उनका प्रतिरोध केवल विचारधारा का नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता का भी था।
नागार्जुन, शमशेर, केपी सक्सेना आदि हिंदी लेखक भी
हिंदी के अन्य कई लेखक-जैसे नागार्जुन, जिनकी कविताएँ उस समय जनता के मन की आवाज़ बन गईं-ने भी सत्ता की क्रूरता के विरुद्ध लिखा। नागार्जुन की कविता “इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको?” ने एक तरह से जन-आक्रोश का प्रतिनिधित्व किया। शमशेर बहादुर सिंह जैसे कवियों की कविताओं में आपातकाल के विरोध की छायाएँ प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से झलकती हैं।
बंगला, मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में भी प्रतिरोध
बंगला में महाश्वेता देवी और शंख घोष जैसे लेखकों ने, मलयालम में ओ.वी. विजयन और एम.टी. वासुदेवन नायर ने, तमिल में अशोकमित्रन और जयकांतन जैसे लेखकों ने अपने-अपने ढंग से सत्ता के दमन का विरोध किया। यह विरोध केवल लेखन में नहीं, बल्कि लेखक संगठनों, सेमिनारों और विश्वविद्यालय परिसरों में भी दिखाई दिया।
आपातकाल के विरोध में भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का यह समवेत स्वर केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा की रक्षा के लिए साहित्यिक आत्मा का पुनःप्रकाशन था। इन लेखकों ने न केवल अपने समय के अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना चुना, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी यह दिखाया कि जब सत्ता की बंदूकें स्वतंत्रता पर तनी हों, तब साहित्यकार की कलम चुप नहीं रह सकती।
आपातकाल (1975–77) के दौरान भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं के कई लेखक और बुद्धिजीवी सत्ता द्वारा लगाए गए दमन, सेंसरशिप और नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन के खिलाफ खड़े हुए।
अज्ञेय – लोकतंत्र और स्वतंत्रता की वैचारिक रक्षा करते रहे।
रघुवीर सहाय – कविताओं में सत्ता की भाषा का विश्लेषण व प्रतिरोध।
धर्मवीर भारती – धर्मयुग के माध्यम से संयमित परंतु स्पष्ट असहमति।
शमशेर बहादुर सिंह, दुष्यंत कुमार – इशारों और प्रतीकों में विरोध दर्ज।
दुर्गा भागवत – प्रत्यक्ष विरोध, जेल यात्रा, नैतिक साहस का प्रतीक।
नागनाथ नायकवाड़ी – दलित और जन आंदोलनों के समर्थन में लेखन।
बाबा कदम – प्रतिरोधी सामाजिक उपन्यासों के लेखक।
श्याम मनोहर – व्यंग्य के ज़रिए शासन की आलोचना।
उषा उपाध्याय, रमेश पटेल – पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए प्रतिरोध का वातावरण बनाए रखा।
सुंदरम (झवेरचंद मेघाणी के प्रभाव वाले कवि) – सांस्कृतिक पहचान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर।
महाश्वेता देवी – जनपक्षधर रचनाओं और आदिवासी मुद्दों से जुड़े लेखन में सत्ता की आलोचना।
सुनील गंगोपाध्याय। शंख घोष।
हेम बोरगोहाईं– पत्रकारिता और साहित्य में विरोध के स्वर।
यू.आर. अनंतमूर्ति – सार्वजनिक विरोध, उपन्यासों में नैतिक प्रश्नों का उठाव।
गिरीश कर्नाड – नाटकों में सत्ता की विफलताओं की आलोचना।
पी. लक्ष्मीनारायण भट्ट – सामाजिक चेतना को स्वर देने वाले कवि।
ओ.वी. विजयन – "कसब", "धर्मपूत्र" जैसी रचनाएँ सत्ता के नैतिक संकट को दिखाती हैं।
एम.टी. वासुदेवन नायर – मनुष्यता और संवेदनशीलता का पक्ष।
के. सच्चिदानंदन – स्पष्ट विरोधी कविताएँ।
जयकांतन – गरीबों और आम जनता के पक्ष में लेखन।
अशोकमित्रन – कथा साहित्य में उपेक्षित जीवन की त्रासदियाँ।
सुंदर रामासामी – आत्मकथ्य और आत्मचिंतन के ज़रिए सत्ता का परोक्ष आलोचक।
चलपति राव – पत्रकारिता और साहित्य में विरोध का स्वर।
सिद्ध रेड्डी, कोथा रामब्रह्मम – सामाजिक प्रश्नों के माध्यम से आपातकाल की आलोचना।
मजरूह सुल्तानपुरी- राजनीतिक चेतना से भरी कविताएँ।
भारतीय भाषाओं के ये लेखक किसी संगठित दल के नहीं बल्कि अपनी अंतरात्मा की आवाज़ से प्रेरित होकर सत्ता के विरुद्ध खड़े हुए। उनकी लेखनी में भय की जगह विवेक, चुप्पी की जगह संकेत, और झुकाव की जगह आत्मबल दिखाई देता है। यही कारण है कि आपातकाल का विरोध भारतीय साहित्य के इतिहास में एक नैतिक प्रतीक के रूप में दर्ज है — जहाँ लेखकों ने कलम से तानाशाही को चुनौती दी।
आपातकाल का साहित्यिक प्रतिरोध भारतीय इतिहास में न केवल एक राजनीतिक घटना की प्रतिक्रिया था बल्कि यह उस नैतिक और सांस्कृतिक चेतना का उद् घोष भी था जो भारत के साहित्यिक समाज की आत्मा में रची-बसी है। भारतीय भाषाओं के जिन लेखकों ने सत्ता की क्रूरता और दमन के विरुद्ध अपनी लेखनी उठाई, वे किसी संगठन, दल या प्रचार के उपकरण नहीं थे—वे उस अंतरात्मा की आवाज़ थे जो अंधकार में भी रोशनी की उम्मीद करती है।
दुर्गा भागवत की जेलयात्रा, अज्ञेय की वैचारिक दृढ़ता, नागार्जुन की व्यंग्यात्मक कविता, वीरेंद्र भट्टाचार्य का नैतिक लेखन— आदि सभी उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि साहित्य सत्ता के समान्तर होता है। वह जनता की आवाज़ है। वह समय का साक्षी और समाज की अंतरात्मा होता है। इन रचनाकारों ने यह भी सिद्ध किया कि जब इतिहास चुप हो जाता है तब साहित्य बोलता है—और वह बोलता है सत्य के पक्ष में।
साहित्य की भूमिका केवल सौंदर्य सृजन तक सीमित नहीं है, वह अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने की नैतिक जिम्मेदारी भी निभाता है। आपातकाल का साहित्य और उससे जुड़े लेखक हमें यह सिखाते हैं कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि संवेदनात्मक अस्तित्व की नींव है—और साहित्य उसका सबसे सजग प्रहरी।
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