चे ग्वेरा और फिदेल कास्त्रो ने कैसे क्यूबा को दुनिया का एक खूबसूरत देश बना दिया

क्यूबा में क्रांति और उसके एक खूबसूरत समाज बनने की कहानी

सिद्धार्थ रामू

 

इंसान असंभव से लगने वाले कारनामे करने के लिए जाना जाता है। ऐसा ही एक कारनामा जनवरी 1959 में फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्यूबा की जनता ने कर डाला। इस कारनामे से पहले, दुनिया के नक्शे पर एक छोटे से बिन्दु के रूप में इस देश को भले ही भूगोलविद पहचानते रहे हों, लेकिन मानव जाति की नियति और विश्व घटना क्रम तय करने में इस छोटे से द्वीप की कोई भूमिका नहीं थी। मानव जाति की कौन कहे, वह देश और उस देश के लोग अपनी खुद की नियति के मालिक नहीं थे। सैकड़ों वर्षों तक स्पेन ने निर्मम तरीके से क्यूबा को निचोड़ा। वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट की गई, वहाँ के निवासियों को गुलाम बनाकर उसका निर्मम शोषण किया गया।

स्पेन ने कैरेबियाई द्वीप समूह को लोगों को पानी में डूबकर स्वर्णमिश्रित रेत को छानने या स्पेन से लाये हुए भारी जुताई के उपकरणों से जमीन को जोतने- कोड़ने और सोने की खानों में दफ्न होने के लिए इस कदर विवश किया की प्रकृति की गोद में स्वतंत्र पंक्षी की तरह जीने वाले, इन द्वीपों के लोगों ने जीने की तुलना में मर जाने का रास्ता अपनाया। लैटिन अमेरिका के सोलहवीं सदी के मध्य़ के इतिहासकार फेर्नंडेज डी ओविएदो ने लिखा कि “उनमें से बहुतों ने, मार डालने वाले काम से बचने के लिए, काम करने की बजाय जहर खा लिया और दूसरों ने खुद अपने हाथों फाँसी लगा ली”।

इसी बात को भिन्न तरीके से पेश करते हुए फ्रांसीसी रेने डयूमोंट ने लिखा लिखा कि “ मूल निवासियों को पूरी तरह नष्ट नहीं किया गया था। उनके जींस क्यूबा के गुणसूत्रों में कायम हैं। उन लोगों ने उस तनाव के प्रति जो निरंतर काम की मांग थी, ऐसा विरोध अनुभव किया कि उनमें से कुछ जबरन काम करने के बजाय खुद को मार देते थे”। क्यूबा सहित पूरे लैटिन अमेरिका के प्राकृति संसाधनों की लूट और इंसानों को निचोडने से अर्जित संपदा यूरोप की संपन्नता का आधार बनी।

लातिन अमेरिका के वंचित लोगों ने उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में भालों और छूरों से, स्पेनी सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया और एक हद तक आजादी हासिल किया, लेकिन जिस चीज के लिए उन्होंने अपना खून बहाया था, उससे जुड़ी सारी आशाओं पर तुषारापात हो गया। विपत्तियों का नया दौर आ गया। स्पेन के बाद 1762 में अंग्रेजों ने हवाना पर कुछ समय के लिए कब्जा कर लिया। साम्राज्वादी देशों ने क्यूबा को चीनी पैदा करने वाले देश में तब्दील कर दिया गया,बड़े पैमाने पर गन्ने के पैदावार में अफ्रीकी और स्थानीय गुलामों को लगाया गया।

चीनी मिलों ने आदमी और जमीन दोनों पर कब्जा जमा लिया। अन्य सभी उद्योग-धन्धों से लोगों को हटाकर चीनी उत्पादन में झोंक दिया गया। क्यूबा के मोहगनी आबनूस और देवदार जैसी बहुमूल्य लकड़ियों के लिए प्राकृति जंगलों को तबाह कर दिया गया। गन्ने की व्यापक लूट-संस्कृति सिर्फ जंगलों के विनाश की वजह नहीं थी, बल्कि साथ ही एक लंबे समय के दौरान, यह द्वीप की शानदार उर्वरता की मौत थी। जोस मार्ती के नेतृत्व में क्बूबा के लोग, स्पेन की गुलामी से आजादी के लिए लड़ते रहे।

1850 आते-आते क्यूबा पर धीरे-धीरे अमेरिका ने कब्जा करना शुरू कर दिया। 1898 से क्यूबा पूरी तरह से अमेरिकी वर्चस्व और नियंत्रण में आ गया, उसका नवउनिवेश बन गया। स्पेन की निर्णायक पराजय के बाद अमेरिकी जनरल लेओनार्ड वुड क्यूबा का शासक बन बैठा। 1902 में क्यूबाई मूल के अमेरिकी नागरिक को अमेरिका ने क्यूबा का राष्ट्रपति बना दिया। क्यूबा के लोग लड़ते रहे, कहने के लिए चुनाव भी होने लगे। जनता द्वारा चुनी गई कोई भी सरकार यदि थोड़ा भी अमेरिका के खिलाफ जाती तो उसका तख्ता पलट कर अमेरिका अपना कोई पिट्टठू बैठा देता।

ऐसी ही एक सैनिक तख्ता पलट में बातिस्ता( 1933 से 1940 तक) सैनिक तानाशाह के रूप में अमेरिकी प्रतिनिधि के तौर पर शासक बना। 1940 में मनमाफिक संविधान तैयार करके राष्ट्रपति बन बैठा। अमेरिका का क्यूबा पर किस कदर प्रभुत्व था, इसे अमेरिका के क्यूबा में भूतपूर्व राजदूत ने इस प्रकार बयान किया “ जब तक कास्त्रो सत्ता में नहीं आया था, तब तक क्यूबा में अमेरिका का ऐसा प्रबल प्रभाव था कि अमरीकी राजदूत देश का दूसरा मान्य व्यक्ति था,कई बार क्यूबा के राष्ट्रपति से भी ज्यादा महत्वपूर्ण”।

अमेरिकी प्रभुत्व में क्यूबा में ड्रग, जुआघर और वेश्यावृति आम चीज बन गई थी। मुट्ठी भर क्यूबाई आभिजात्य और अमेरिकियों के लिए हवाना विलासिता और एय्याशी का अड्डा बन गया था। कंगाली और बेरोजगारी चरम पर थी। 1958 में खनिकों से ज्यादा पंजीकृत वेश्याएँ थीं। 1954 में मोंकाडा बैरक पर आक्रमण के लिए अदालत में मुकदमें का सामना करते हुए फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा की स्थिति का सटीक वर्णन किया था –“ क्यूबा आज भी कच्चे माल का उत्पादक है। हम मिठाई का आयात करने के लिए चीनी का निर्यात करते हैं, हम जूता का आयात करने के लिए चमड़ा निर्यात करते थे, हम हल का आयात करने के लिए लोहे का निर्यात करते हैं”।

1959 में 33 वर्षीय कास्त्रो और उनके युवा साथियों के नेतृत्व में क्यूबा की जनता ने शताब्दियों के गुलामी के जुए को उतार फेंका और एक छोटे से देश( 110,861 वर्ग किलोमीटर ) के एक करोड़ से भी कम लोगों ने( वर्तमान आबादी 1 करोड़ 10 लाख ) ‘हमारी मातृभूमि या मौत’ के संकल्प के साथ अमेरिका से लोहा लिया और उसे धूल चटा दिया। विदेशी कंपनियों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया और आभिजात्य वर्ग से खेतिहर जमीने छीन कर मेहनतकश किसानों में बांट दी गईं। विदेशी प्रभुत्व के सभी रूपों के खात्मे की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। क्यूबा की जनता की क्रान्ति को कुचलने की अमेरिका ने जितनी भी कोशिशे की, उसे मुंह की खानी पड़ी।

इन कोशिशों में शामिल है, 13 अक्टूबर 1961 का अमेरिका द्वारा प्रायोजित सशस्त्र हमला, जिसे बे ऑफ पिग ( Bay of Pig ) संकट के रूप में जानते हैं। क्यूबा को आर्थिक तौर तबाह करने के लिए आर्थिक नाकेबंदी और क्यूब जनता को नेतृत्व विहीन बनाने के लिए कास्त्रो को मारने की 638 कोशिशें। संसाधनहीनता और ताकतवर दुश्मन का मुकाबला करते हुए, फिदेल कास्त्रों के नेतृत्व में क्यूबावासी एक ऐसा राष्ट्र और समाज बनाने के अनजान रास्ते पर निकल पडे, जो फिर कभी किसी का गुलाम न बने, जिसकी संप्रभुता को रौंदा न जा सके, जहां कोई भूखा, बीमार, असहाय, अशिक्षित और बेरोजगार न हो।

किसी स्त्री को पेट पालने के लिए देह न बेंचना पड़े। कोई इंसान किसी दूसरे इंसान का गुलाम या दास न हो, कोई किसी का शोषण या उत्पीडन करने की स्थिति में न हो, न तो कोई इस हालात में हो कि उसका शोषण-उत्पीड़न किया जा सके। नस्ल, रंग या लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव न हो।

किसी की मानवीय गरिमा को कुचलने की किसी को भी इजाजत न दी जाए। नए राष्ट्र और समाज के सृजन में हर एक नागरिक की समान भागीदारी हो। एक ऐसी संस्कृति का निर्माण किया जाए, जिमसे सभी के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके और नए मानव का सृजन किया जा सके। प्रकृति पर विजय या उसके विध्वंश का रास्ता त्याग कर उसके साथ सामंजस्य का रिश्ता कायम किया जाए।

उससे उतना ही लिया जाए, जितना मनुष्य जाति के लिए अपरिहार्य और अनिवार्य हो। इसे सब को ही बाद में समाजवाद का नाम दिया गया। फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा वासियों ने न सिर्फ अपने देश और अपने लिए ही यह सपना देखा, वे सारी दुनिया को खूबसूरत और न्यायसंगत देखना चाहते थे। वे दुनिया से हर प्रकार के अन्याय का खात्मा चाहते थे और इसके लिए उनके पास जो कुछ भी था, उसे न्योछावर करने को तैयार थे।

क्यूबा जैसे छोटे, साधनहीन और सैकड़ों वर्षों की गुलामी की लूट से तबाह देश के लिए इस सपने को पूरा कर पाना अनहोनी को होनी करने जैसा था। फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा वासियों ने काफी हद तक यह कर दिखाया, दुनिया चकित और हैरान रह गई और दुनिया की सबसे बढी साम्राज्यवादी महाशक्ति आवाक् रह गई। 1958 में क्यूबा में 23.1 प्रतिशत लोग साक्षर थे, तीन वर्षों के भीतर 96 प्रतिशत लोगों को साक्षर बना दिया गया।

देखते –देखते रंग-भेद, नशाखोरी और वेश्यावृति का नामोनिशान मिट गया। भूखमरी और बेरोजगारी का खात्मा कर दिया गया, कुपोषण मिट गया। औसत जीवन प्रत्याशा पुरूषों की 70 वर्ष और महिलाओं की 80 वर्ष हो गई। बाल मृत्युदर प्रति 1000 पर घटकर 5.7 हो गई, जबकि अमेरिका जैसे देश में यह 7 है। प्रति 1000 लोगों पर 6.7 फिजिशियन ( डाक्टर) , जबकि अमेरिका में केवल 2.4 हैं। एक करोड़ 10 लाख की कुल जनसंख्या के लिए 70 हजार डाक्टर हैं।

विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार क्यूबा पहला देश है जिसने माँ से बच्चे को एचआईवी ( HIV) के ट्रांशमिशन का खात्मा कर दिया है। जीवन के सभी क्षेत्रों में महिलाओं को काफी हद तक रोजमर्रा के जीवन में व्यवहारिक स्तर पर बराबरी हासिल हो चुकी है। स्नातक महिलाओं की संख्या पुरूषों से अधिक है। 51 प्रतिशत वैज्ञानिक और 72 प्रतिशत डाक्टर महिलाएं है। यह जानकर शायद बहुतों को आश्चर्य हो कि क्यूबा के कुल राष्ट्रीय बजट का 50 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता है। क्रान्ति के बाद क्यूबा में जंगलों के विनाश की प्रक्रिया को रोक दिया गाय, दुनिया में क्यूबा एक ऐसा देश बन गया वन क्षेत्रफल के अनुपात में वृद्धि होई।जैविक खाद से खेती के मामले में दुनिया का अग्रणीय देश बन गया। खेलों में क्यूबा कि सफलता जगजाहिर है।

फिदेल के क्यूबा ने कभी अपने को अपने देश तक सीमित नहीं रखा। कास्त्रो ने अपने देशवासियों को सिखाया कि अपने देश और जन से बेइंतहां प्रेम करते हुए, पूरी धरती को अपना मानो। प्रभुत्व,वर्चस्व, अन्याय, शोषण-उत्पीड़न के शिकार देशों और लोगों को अपना भाई- बंधु समझो। दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे किसी भी प्रकार के अन्याय का सक्रिय विरोध करो। हर न्यायपूर्ण संघर्ष का वैचारिक, भौतिक और नैतिक समर्थन करो। अपनी सारी भौतिक और मानवीय उपलब्धियों को दुनिया से साझा करो, दुनियां में कहीं भी कोई इंसान असहायता,निरूपायता और संकट की स्थिति में हो तो, उसकी मदद के लिए दौड़ पड़ों।

यह सब कुछ बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी लाभ के उम्मीद के करो। क्यूबा के लिये यह सब केवल आदर्श वाक्य नहीं थे, उसने इसे कर दिखाया। पूरा लैटिन अमेरिका उनके लिए अपने देश जैसा ही था, उनके हर सुख-दुख के वे भागी थे। अफ्रीका का शायद ही कोई देश ऐसा रहा हो, जिसकी मुक्ति- संघर्ष में क्यूबा ने सैनिक, वैचारिक, राजनितिक और नैतिक समर्थन न दिया हो।

अफ्रीका में अंगोला, अल्जीरिया, मोजाम्बिक, नामिबिया आदि देशों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में क्यूबा की गुरिल्ला सेना प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सेदार थी। दक्षिण अफ्रीका की आजादी में क्यूबा की अहम भूमिका को स्वीकार करते हुए नेल्सन मंडेला ने अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह में कास्त्रो को गले लगाते हुए कहा कि ‘ आप ने इसे संभव बनाया’ ( you made this possible)। 1988 मेंमे 44 हजार क्यूबन सैनिकों ने अंगोला की जनता का साथ दिया था। अफ्रीकी लड़ाकों को क्यूबा प्रशिक्षण भी देता था।

1962 में फ्रांस से अल्जीरिया की आजादी के संघर्ष में क्यूबा की अहम भूमिका थी। सुदूर एशिया के देशों सीरिया, ईराक और दक्षिणी यमन को क्यूबा ने उनके न्यायपूर्ण संघर्षों में सैनिक सहायता दी थी। इजरायल के कब्जे के खिलाफ क्यूबा हर तरह से फिलिस्तीन का साथ देता रहा। लैटिन अमेरिका के तो खैर फिदेल कास्त्रो प्रेरणा स्रोत ही थे। लैटिन अमेरिका की हर प्रकार की सहायता के लिए क्यूबा के दरवाजे हमेशा खुले हुए रहे हैं।

लैटिन अमेरिका में पिंक रिबोल्यूशन (गुलाबी क्रान्ति) का प्रेरणास्रोत कास्त्रो का क्यूबा रहा है, जिसका पैदाईश ह्वूज शावेज जैसे जनपक्षधर नेता थे। क्यूबा ने इन क्रान्तियों को वैचारिक, नैतिक और भौतिक समर्थन भी दिया। क्यूबा ने अपनी भौतिक और मानवीय उपलब्धियों को दुनिया के देशों के साथ बांटा। वर्तमान समय में 1लाख 90 हजार क्यूबा के डाक्टर निस्वार्थ भाव से अल्पविकसित क्षेत्रों में लोगों की सेवा कर रहे हैं।

दी न्यू यार्क टाइम्स ( The New York Times) ने 2009 में लिखा कि क्यूबा ने पिछले 50 वर्षों में दुनिया के 102 देशों में 1 लाख 85 हजार मेडिकल कर्मियों को मेडिकल मिशन पर भेजा। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भूकंप से जब भारी तबाही हुई तो सबसे पहले क्यूबा के डाक्टर वहां पहुचे। दुनिया होने वाली किसी भी प्राकृतिक आपदाग्रस्त और युद्धग्रस्त क्षेत्रों में क्यूबा के डाक्टर लोगों की सहायता के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं। लैटिन अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में, जिसमें यूरोप के कुछ देश भी शामिल हैं क्यूबा ने निरक्षरता के खात्में के लिए अध्यापकों और लोगों को शिक्षित- प्रशिक्षित किया और कर रहा है।

कैरेबियन सागर के इस छोटे से द्वीप के कुछ एक करोड़ संसाधनविहीन और गरीब लोग इतनी महारथ कहाँ से हासिल कर पाए, इतनी शक्ति कहाँ से जुटा पाए जिससे न केवल अमेरिका जैसी महाशक्ति का गुरूर तोड़कर, अपने देश की संप्रभुता और आजादी को बचाए रखा, अपने देश की जनता के लिए मानवीय गरिमामय जीवन हासिल कर लिया और दुनिया के देशों की संप्रभुता-आजादी के हर संघर्ष में ठोस भागीदारी की? इस महारथ और शक्ति का स्रोत उन सपनों में है जो सपना मानव जाति, लैटिन अमेरिका और क्यूबा के लिए फिदेल कास्त्रो और उनके साथियों ने देखा था, फिदेल को जोस मार्ती और सिमोन बोलिवर यह सपना और विचार विरासत में मिला था, बाद में फिदेल ने मार्क्स के सपनों और विचारों के साथ इसको मिलाया।

यह सब कुछ करने के लिए अदभुद कल्पना शक्ति, विशाल ह्दय और गहरी और व्यापक संवेदनशीलता के साथ ही यथार्थ को जानने, समझने और बदलने की प्रक्रिया के लिए वैज्ञानिक ऐतिहासिक भौतिकवादी विचारधारा की जरूरत थी, जो फिदेल के पास थी, जिससे उन्होने सृजनात्मक तरीके से लागू करके दुनिया के सामने एक मिसाल कायम किया। लेकिन इसके साथ ही एक बात हमें सदा याद रखना चाहिए कि असाधारण से असाधारण महानायक अकेले कुछ नहीं कर सकता, ज्यादा से ज्यादा एक लौ की तरह थोड़े देर रोशनी देकर बुझ जाएगा।

वह सफल तब होता है जब अपने सपनो और विचारों को बहुसंख्यक समाज का विचार और सपना बना देता है और फिदेल ने यही किया। वह अच्छी तरह जानते थे कि यदि एक बार इन विचारों को जनता के बहुलांश हिस्से ने एकजुट होकर अपना बना लिया तो, तो दुनिया की कोई भी ताकत क्यूबा को हरा नहीं सकती है और क्यूबा को एक खूबसूरत देश बनाने से रोक नहीं सकती है और यही हुआ।

कास्त्रो के विचार और सपने जितने सृजनात्मक थे, उन्हें अमल में लाने का तरीका भी उतना ही सृजनात्मक था। उन्होंने कभी भी अपने विचारों को किसी पर थोपा नहीं, वे अनवरत संवाद से सहमति कायम करने में यकीन रखते थे। वे धैर्य से असहमति को सहमति में बदलने की कोशिश करते थे। वे एकालाप नहीं संवाद कायम करते थे। यह दोहरी प्रक्रिया थी।

अपने विचारों और चाहतों को लोगों के सामने रखते, उस पर लोगों का राय सुनते जरूरत पड़ने पर खुद के विचारों को बदलते, अपनी और औरों की गलतियों से सीखते। समाजिक प्रयोगों के अनुभवों से सबक लेते, खुद को सुधारते और परिष्कृत करते रहे। उनके विचारों का केंद्रीय तत्व इस बात पर दृढ़ विश्वास था कि व्यक्तिगत स्वार्थों और लोभ-लालच एंव मुनाफे को केंद्र में रखने वाला समाज, मनुष्यता को विकृत और नष्ट करता है।

यह ऐसी संस्कृति रचता है जहां व्यक्ति इस कदर स्वकेंदित हो जाता है कि उसके पास पर के लिए जगह ही नहीं रह पाती। वह दूसरो से निस्वार्थ भाव से सच्चा प्रेम करने की क्षमता खो देता है या यह क्षमता कम से कम होती चली जाती है। ऐसे समाज में मनुष्य की मनुष्यता का स्वाभाविक विकास नहीं होता।

कास्त्रो इस संस्कृति के बरक्स वैकल्पिक संस्कृति रचने की कोशिश में निरंतर लगे रहे और वे काफी हद तक सफल रहे। उन्होंने क्यूबा को स्वार्थ और लोभ-लालच एंव मुनाफे को केंद्र मे रखने वाली पूंजीवादी संस्कृति के बरक्स एक माडल की तरह खड़ा किया। क्यूबा खुद की नियति और एक हद तक दुनिया की नियति तय करने वाला देश बन गया और इस प्रक्रिया में फिदेल कास्त्रो बींसवीं शताब्दी के एक महानायको में शामिल हो गए, जो जीते जी दुनिया को प्रेरणा देते रहे और उनके विचार और कर्म आनेवाली पीढ़ियों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बने रहेंगे।

 


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