दम-ब-दम हर क़दम हमें कबीर चाहिए
महान संत कबीर पर विशेष
कैलाश बनवासीकबीर की कविता के असंख्य आयाम हैं, जिन पर तो विद्वान् लोग ग्रन्थ लिखे हैं. और लिखते रहेंगे. मैं अपने सीमित अध्ययन से सिर्फ कुछ उन बिन्दुओं की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जो आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं. यह समय गहन उपभोक्तावाद का है. चीजों, सुविधाओं के प्रति मनुष्य की हवस बाजार की माया के चलते चरम पर है. सादा जीवन उच्च विचार-जिसके सबसे बड़े पैरोकार और प्रतीक महात्मा गांधी थे को हाशिये में फेंक दिया गया है.

यह उस देश-समाज के लिए बहुत बड़ी विडंबना है, बहुत क्षोभ, दुर्भाग्य, और गहरी निराशा की बात है कि जहां कबीर जैसा क्रांतिकारी समाज सुधारक और जन-जागरण का अग्रदूत हुआ; जिसने अपने समय के तमाम आडम्बरों, कुरीतियों, पाखंडों, विद्वेष इत्यादि के खिलाफ़ आज से छह सौ से भी अधिक बरस पहले अलख जगाया था, आज वही देश मानो फिर से उसी युग की अज्ञानता के अँधेरी सुरंग में वापस चला आया है. तकनीक, विज्ञान, प्रौद्योगिकी के आज के चरम विकास वाले इक्कीसवीं सदी में होने के बावजूद जब हम लोगों को उन्हीं मध्ययुगीन कर्मकांडों, आडम्बरों, अंधविश्वासों, दकियानूसी रीतिरिवाजों में फंसे देखते हैं तो कबीर की यही पंक्ति याद आ जाती है-पानी बिच मीन पियासी रे, मोहे सुनसुन आवे हांसी!
यह सच्चाई है कि देश आज बड़े पैमाने पर मानसिक गतिरोध का शिकार है. वह धर्म जिसे नैतिकता, मानवता, प्रेम और समरसता का सबसे बड़ा स्त्रोत बनना चाहिए था, आज दूषित राजनीति के चलते वह एक चुनाव जिताऊ हथियार में बदल चुका है. वह आज हिंसकों, उग्र, और कट्टरपंथियों की गिरफ्त में है. वह अपनी बुनियादी ताक़त और लक्ष्य से बहुत पीछे रह गया है जो प्रेरक और आशा का केंद्र हुआ करता था.
कबीर को आज याद करें तो आश्चर्य होता है, कैसे वह जीवन भर गहरे कर्मकांडों में फंसे देश में उनके बेहद विरोधों के बावजूद उनसे लोहा लेते रहे. और भक्ति के सरल मार्ग की राह दिखाकर जनमानस को उस समय के तमाम सामाजिक-धार्मिक बुराइयों का मज़ाक उड़ाते रहे.
इस युग प्रवर्तक कवि को मात्र कविता के दायरे में रखकर नहीं देखा जा सकता. बल्कि कविता तो उनके लिए जन-जागृति का माध्यम रहा है. अपने दोहों, पदों, रमैनियों में वह इसी अभियान में डटे हैं. उन पर जितना कहा गया, लिखा गया इसके बावजूद उनकी प्रासंगिकता ख़त्म होने का नाम नहीं लेती. कबीर को बड़ा कवि कविता के विद्वान् भले ही न माने, लेकिन अपनी रचनाओं से वे आज पर्यंत लोगों के दिलों में बसे हैं. और युगों-युगों तक जनचेतना को आलोकित करते रहेंगे.
कबीर पर अब तक न जाने कितने ग्रन्थ लिख लिए गए हैं, अनगिनत विचार और विश्लेषण हो चुके हैं, इसके बावजूद कुछ न कुछ 'कबीर' जैसे हर बार खोजना बचा रह जाता है. उनके जीवन और सृजन के इतने अधिक आयाम हैं कि किसी एक लेख में समेट पाना असंभव है. उनके निर्गुण दर्शन पर व्याख्या कर पाना मेरी क्षमता से बाहर है. वे मूर्तिपूजक नहीं थे. वह अपनी लौ जिस एकात्म निर्गुण ब्रम्ह से लगा चुके थे, और खुद को उसका एक प्रेमिका या दुलहन मानते थे, जो सूफियों की अवधारणा से मेल खाता है. इसके ढेरों पद उनके यहाँ मिल जायेंगे.
सखियो, हमहूँ भई बलमासी
आयो जोबन बिरह सतायो, अब मैं ज्ञान गली इठलाती
ज्ञान-गली में खबर मिल गये, हमें मिली पिया की पाती
वा पाती में अगम संदेसा, अब मरने को न डराती
कहत कबीर सुन भाई प्यारे वर पाए अविनासी
या
सांई बिन दरद करेजे होय
दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, कासे कहूँ दु:ख होय
आधी रतियाँ पिछले पहरवा, सांई बिना तरस रही सोय
कहत कबीर सुनो भाई प्यारे, सांई मिले सुख होय.
कबीर के यहाँ भक्ति का मूलाधार प्रेम है. यहाँ भक्ति और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं इनमें भेद नहीं है. कबीर की इस भक्ति के विषय में कबीर ग्रंथावली (लोक भारती प्रकाशन) के संपादक राम किशोर शर्मा कहते हैं: 'कबीर की भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है प्रपत्ति. प्रपत्ति का अर्थ है सब कुछ छोडक़र ईश्वर के शरणागत हो जाना'. यहाँ ईश्वर के प्रति चरम अनुराग की अभिव्यक्ति है. उनका यह समर्पण बरबस उनके बाद की भक्त कवियत्री मीरा बाई की याद दिला जाता है.
हालांकि वह सगुण मार्गी थीं - कृष्ण की उपासक. कबीर की इस भक्ति/प्रेम में खुद को उस अगम-अगोचर के प्रति पूरी तरह किसी प्रेमिका जैसे समर्पित देना है. उन्हें भक्ति के किसी पंडित या मौलवी निर्देशित आडम्बर, कर्मकांड में विश्वास नहीं है. उनके आडम्बरों पाखंडों पर तो वे बार-बार हमला करते हैं. उन्होंने जिस भक्ति को चुना है, वह एक अटूट लौ है, जिसमें आजीवन रत रहना है. एक तरह से यह भक्ति आपका व्यक्तित्वांतरण कर आपको उस लोक से जोड़ देता है. जिसमें किसी तरह का सरलीकरण या सुविधा नहीं है.
कबीरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहि
सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर मांहि
इसे ही वह बहुत साफगोई से कहते हैं:-
भक्ति का मारग झीना रे
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे
साधन के रस-धार में, रहे निस दिन मीना रे
राग में सुत ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे
सांई सेवन में देत सर कुछ बिलम न कीना रे
कहैं कबीर मत भक्ति का, परगट कर दीना रे
और कबीर के यहाँ प्रेम और भक्ति की ऐसी ही व्याख्या अनेकों प्रकार से मिलती है. इसलिए उनकी भक्ति का मार्ग औरों से जटिल है, कष्टकारी है. यह मन्त्र पढने तक सीमित नहीं है. इसका विस्तार वे समूचे ब्रम्हांड तक वे करते है. उनके यहाँ प्रेम ही 'हरि' है, जिसको लेकर कहा जा सकता है- 'हरि अनंत हरि कथा अनंता!
कबीर अपनी भक्ति, प्रेम, रहस्यवाद, उलटबांसियों के बहुत सशक्त कवि होने के बावजूद अपने समय से, यथार्थ से सीधे-सीधे टकराने के कारण हमारे लिए वे आज भी वैसे ही प्रासंगिक बने हुए हैं, जितने कि अपने समय में. हमारे समय की गहरी विडंबना देखिये, मनुष्य आज पहले से कई-कई गुना अधिक स्वार्थ, सुविधा, लालच, उपभोक्तावाद, अहं, वर्ण और वर्ग के श्रेष्ठतावाद के जंजालों में उलझा हुआ है, जिसमें न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक के फर्क को भूलकर केवल अपने हित तक सिमित होकर रह गया है.
यही नहीं, वह उस युग की तुलना में ज्यादा शातिर, मूर्ख, अंध-विश्वासी, प्रदर्शन-प्रिय, आडम्बरी ही नहीं, कट्टर और क्रूर हो चला है. इन सबके खिलाफ कबीर ने आजीवन संघर्ष और विद्रोह किया. कबीर ने जनसाधारण को आडम्बरी धर्म से निकाल कर उन्हें सहज धर्म की और प्रवृत्त करने का संकल्प लिया था. उन्होंने बड़ी निर्ममता, अक्खड़ता, दृढ़ता के साथ प्रचलित पाखंडों, आडम्बरों और अंध-विश्वासों को ध्वस्त किया. उसकी जगह एक सहज, तार्किक, उदात्त, सहृदय धर्म को स्थापित करने की कोशिश की. कबीर का यह धर्म समूचे मानवता के लिए था.
इस पर कबीर साहित्य के विद्वान् रामकिशोर शर्मा लिखते हैं- ‘कबीर का यह धर्म किसी धर्म विशेष का अनुकरण न होकर अनेक धर्मों के सहज तथा शाश्वत तत्वों का समन्वय है. इसमें वैष्णव का प्रेमादर्श, त्याग, विनय, प्रपत्ति, सूफियों की ईश्क भावना, भारतीय अद्वैत-चिन्तन और योग चिन्तन का समावेश है. यह सहज धर्म हिन्दू, मुसलमान, ब्राम्हण, शूद्र सभी को मान्य हो सकता है’ (कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ 60)
कबीर ने पोंगा पंथियों, अन्धविश्वसों पर जो तीक्ष्ण व्यंग्य किए हैं, वे बहुत प्रसिद्ध दोहे और पद हैं. स्मृतियों में बसे हुए हैं. इतने ज्यादा जैसे हमारे अवचेतन का हिस्सा बन चुके हैं, और जो जब-तब हमारे जेहन में आते ही रहते हैं. ये उनकी बहुश्रुत, लोकप्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं, जिनके पुनरावृत्ति का जोखिम उठाकर भी कुछ को उद्धृत करना जरूरी जान पड़ रहा है. यथा-
पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार
ताकि से तो चाकी भली, पीस खाए संसार
***
कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लियो बनाय
ता पर मुल्ला बांग दे, बहरो हुआ खुदाय
***
जे तूं बाम्भन बम्भ्नी जाया तौ आन बाट काहे न आया
जे तूं तुरुक तुरकनी जाया, तो भीतरी खतनी क्यूं न कराया.
***
साथो, पाँड़े निपुण कसाई
बकरी मारि भेड़ को धाये, दिल में दर्द न आई
करि अस्नान तिलक दे बैठे, विधि सों देवि पुजाई
गाय बधै सो तुरक कहावे, यह क्या इनसे छोटे
कहै कबीर सुनो भाई साधो, कलि में बाम्भन खोटे
***
साधो देखो जग बौराना
साँची कही तो मारण धावे झूठे जग पतियाना
हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना आपस में दोउ लड़े मरतु हैं मरम कोई नहीं जाना
***
भक्त कवियों में उनकी भक्ति-भावना ही प्राय: उनका प्रमुख स्वर हुआ है. वे अपने ईश्वर अराधना को ही सर्वोपरि मानते रहे हैं, जिनसे मुक्ति या संन्मार्ग की प्राप्ति हो. इसके उलट, कबीर ऐसे संत कवि हुए जिनके यहाँ सामने देश-समाज में फैली धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बुराइयों और जड़ताओं को समूल दूर करने का दायित्व सबसे बढकर हो जाता है. उनकी सामाजिक पक्षधरता, तार्किकता, प्रखरता और साहस अपने समकालीन ही नहीं, आज के रचनाकारों से भी बहुत आगे है. वे समाज में जागृति लाने का संकल्प किये रचनाकार हैं, निरे आस्थावान भक्त कवि नहीं.
इसीलिए उनके यहाँ इस कदर बेचैनी और क्षोभ दिखाई पड़ता है:-
सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै
दुखिया दस कबीर है, जागे अरु रोवै
जाति प्रथा का उस दौर में उनसे बड़ा दूसरा कोई विरोधी और विद्रोही नहीं मिलता. वह खुद जुलाहे थे, कपड़े बुनकर जीविका चलाने वाले. जाति भेद को लेकर उनके यहाँ बहुत तीखी आलोचना मिलती है. कबीर आज के नेताओं की तरह ‘सर्वधर्म समभाव’ की अवसरवादी सोच नहीं, बल्कि इस भेद को मिटाने पर ही बल देते थे.
हम बासी उस देश के, जहां जाति-पांति कुल नाहि
सबद मिलावा है रहा, देह मिलावा नाहि
जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार की, पड़ी रहन दो म्यान
कबीर के यहाँ निर्बल, निर्धन, असहाय लोगों के प्रति जैसी गहरी और अकथ पीड़ा है, वह उनके समकालीन भक्त कवियों के यहाँ दुर्लभ है. कबीर की कविताई को देखिये तो इसमें वे तत्कालीन समाज के पीड़ितों, शोषितों, वंचितों के पीड़ा और अन्याय के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं. बल्कि नीचे उल्लेखित दोहों में अन्याय के खिलाफ़ वंचितों की तरफ से ज़बरदस्त प्रतिरोध दर्ज करते हैं.
और वही ऐसी पंक्तियाँ कह सकता है जिसके मन में इनके प्रति असीम करुणा हो-
दुर्बल को न सताइये, जाकि मोटी हाय
बिना जीव की सांस सों, लोह भस्म हो जाए
***
तिनका कबहूँ ना नींदिये, जो पाँव तले होय
कबहूँ उड़ आँखों पड़े, पीर घनेरी होय
कबीर की कविता के असंख्य आयाम हैं, जिन पर तो विद्वान् लोग ग्रन्थ लिखे हैं. और लिखते रहेंगे. मैं अपने सीमित अध्ययन से सिर्फ कुछ उन बिन्दुओं की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ,जो आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं. यह समय गहन उपभोक्तावाद का है. चीजों, सुविधाओं के प्रति मनुष्य की हवस बाजार की माया के चलते चरम पर है. सादा जीवन उच्च विचार-जिसके सबसे बड़े पैरोकार और प्रतीक महात्मा गांधी थे को हाशिये में फेंक दिया गया है. चौतरफा चीजें बटोर लेने की अंधी और असमाप्त हवस है. कबीर सांसारिक होते हुए भी संत थे. किसी भी किस्म की अतिरिक्त की चाह से परे.
इसीलिए वे कह पाते हैं:-
सांई इतना दीजिए, जामें कुटुम समय
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय.
इसके बदले वह प्रेम, भक्ति या मनुष्यता के सदमार्ग पर दिल खोल के चलने का निमंत्रण देते हैं:-
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट
कबीर ने जीवन के हर पहलू पर कविता कही है. वे अपने युग के क्रांतिकारी युगप्रवर्तक कवि थे. उन्हें पढऩा जैसे फिर से अपना आत्मावलोकन करना है. और आज की ‘माया’ जिसे हम सीधे-सीधे पूंजीवाद के सह उत्पाद बाजारवाद और उपभोक्तावाद कह सकते हैं, से मुक्त होने में, जीवन के प्रति यथार्थवादी, वैज्ञानिक, तार्किक, प्रेममयी, उदात्त, विराट मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाने में बहुत मदद मिलती है.
कबीर हमारे लिए आज भी उतने ही जरूरी हैं जितने कभी अपने समय में रहे होंगे. किन्तु, अपने यहाँ इधर ऐसी शक्तियां और प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं, जो ऐसे महान क्रांतिकारी युगपुरुषों का अपने सामुदायिक या राजनीतिक हित साधने में इस्तेमाल करने लगे हैं, बनिस्बत कि उनके सोच-विचार की रौशनी फैलाने के.
यह उन महापुरुषों का दुर्भाग्य है कि उनके प्रसंशक या पंथ के अनुयायी उनके विचारों को अधिकाधिक समाजोपयोगी बनाने के बदले, अंधभक्त बनकर नितांत व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देने लगते हैं, बल्कि उन्हें महज अपने जाति या समुदाय की निजी संपत्ति मानने लग जाते हैं. अपने स्वार्थ सिद्धि लगे ऐसे लोगों को महापुरुषों के रौशन विचारों के धूमिल पडऩे की चिंता कतई नहीं होती. इस राजनैतिक रोग से जितना ज्यादा बचा जा सके, उतना ही वह समाज के साथ-साथ उन महापुरुषों के हित में होगा.
लेखक जाने माने कथाकार हैं और दुर्ग, छत्तीसगढ़ में निवास करते हैं।
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