डोकरा बबा अर्थात भोंगापाल का चैत्यभूमि
आदिवासी मनोकामना पूरा करने गांडादेव को खुरच कर पी जाते थे
सुशान्त कुमारपिछले दो माह से छत्तीसगढ़ का बस्तर अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में विख्यात हो गया हैं। एक तो बस्तर के अबूझमाड में माओवादियों के शीर्ष नेता और महासचिव नंबाला केशवाराव बसवाराजू को सुरक्षाबलों ने मौत के घाट उतार दिया है, इसकी चर्चा पूरी दुनिया में हैं, उसी मुहाने में ५वीं तथा ६वीं शताब्दी में मिले बुद्ध की मूर्ति और इतिहास में दर्ज यह चैत्यभूमि चर्चा में आ गया है।

यहां एक बड़ा समारोह 1 जून को आयोजित था। चर्चा में शांति और युद्ध पर छत्तीसगढ़ सरकार बात कर रही हैं। और बुद्ध के विरासत में आगे चलते हुए बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के संविधान को मानने और नहीं मानने को लेकर भी चर्चा है।
साल 2024 में कमिश्नर महादेव कावरे ने भोंगापाल की यात्रा कर इस बुद्ध पूर्णिमा के दिन इस बौद्ध चैत्यभूमि पर संज्ञान में लेते हुए कहा था कि ६वीं शताब्दी की बुद्ध प्रतिमा और ईंटे प्राप्त हुई है और इस स्थल के विकास की आवश्यकता है।
पुरात्तववेत्ताओं के अनुसार भोंगापाल छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले का एक छोटा सा गांव है। इस कस्बे की प्राचीन वस्तुओं को पहली बार 1984-85 में डॉ. एचएस गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश) के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के वीडी झा और केके त्रिपाठी द्वारा बस्तर जिले के अन्वेषण के दौरान देखा गया था।
मध्य प्रदेश पुरातत्व विभाग ने 1990-91 में इन टीलों की खुदाई की, जिसमें संरचनाओं के तीन अलग-अलग समूह सामने आए। एक ईंट का स्तूप और दो मंदिरों के समूह। गढ़ धनोरा के साथ मंदिर संरचनाओं की समानता और बुद्ध की मूर्तियों की प्रतीकात्मकता के आधार पर, ये संरचनाएं ५वीं से ६वीं शताब्दी ई. की हैं।
बस्तर जिले के केशकाल और कोंडागांव के मध्य स्थित फरसगांव से 40 किलोमीटर पश्चिम बड़े डोंगर से आगे ग्राम भोंगापाल स्थित है। भोंगापाल से तीन किलोमीटर दूर तमुर्रा नदी के तट पर एक टीले में विशाल चैत्य गृह, सप्तमातृका मंदिर और शिव मंदिर के भग्न अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त बौद्ध चैत्य तथा प्राचीन मंदिर 5-6वीं शताब्दी के हैं। चैत्य गृह का निर्माण एक ऊंचे चतूबरे पर किया गया है। इस चबूतरे के मंदिर के भग्नावशेषों का पिछला हिस्सा अर्द्ध-वृत्ताकार है जिस पर मंदिर का गर्भगृह, दक्षिणा पथ, मंडप तथ देवपीठिका के भग्नावशेष हैं।
संभवत: यह बौद्ध भिक्षुओं का निवासस्थल रहा होगा। खुदाई से पहले यहां एक विशाल बौद्ध प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यह प्रतिमा प्राचीन होने के साथ-साथ बंडित अवस्था में है। ईटों से निर्मित यह छत्तीसगढ़ का प्रथम व एकमात्र बुद्ध चैत्य गृह है। भोंगापाल में राप्त ६वीं शताब्दी का बुद्ध चैत्य मंदिर, घने जंगलों के बीच स्थित एक शांति क्षेत्र है।
जानकारों के अनुसार यह पूर्वाभिमुख स्मारक कोंडागांव से लगभग ७० कि.मी. दूर (व्हाया नारायणपुर) भांगापाल नामक गांव के पास २ कि.मी. की दूरी पर घने वन में लसूरा नदी के तट पर स्थित है। बस्तर में एक मात्र यही स्थल ऐसा है जहां पर ईंट निर्मित चैत्यगृह था जिसके विनष्ट हो जाने से निर्मित टीले पर बुद्ध की विशाल प्रतिमा थी जिसे 'डोकरा बाबा' के नाम से स्थानीय लोग पूजा करते थे। यहां पर सन् 1990-91 में हुआ उत्खनन कार्य से यह चैत्य गृह प्रकाश में आया है।
6वीं शताब्दी ईस्वी में हुई मंदिर का निर्माण
जानकारी यह भी हैं कि सप्तमातृका मंदिर के भग्नावशेष चैत्य मंदिर से दो सौ गज की दूरी पर हैं। एकत्रितों से निर्मित एक मंदिर है पश्चिमाभिमुखी। इस मंदिर में मंडप, गर्भगृह और देव पुर्णिका के दर्शन होते हैं। टीलों के सामने एक शिलाखंड पर सात देवियां और एक देव मूर्ति स्थापित हैं। ये सात देवी प्रतिमाएं- ब्राह्मणी, वैष्णवी, नागेश्वरी, चामुंडा, इंद्राणी, कौमारी, वाराही और नरसिंह व देव मूर्ति स्कंद की दिखाई देती हैं। चामुंडा की मूर्ति विशाल होने के साथ-साथ जटामुकुट कायम है।
सभी देवी प्रतिमाओं के स्थान मुद्रा में अंकित हैं तथा प्रतिमाओं के हाथों में स्थापित प्रतिमाओं के अंकन हैं। द्विभुजी प्रतिमाएँ शत्रुओं में कुण्डल धारण किये हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह से खड्गधारित प्रतिमा का भुजाखंड भी प्राप्त हुआ है। इस मंदिर का समय 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है।
बौद्ध चैत्यगृह और बौद्ध मठों में बौद्ध भिक्षुओं के निवास और निवास के प्रमाणों की पुष्टि की जाती है। विदेशी का दण्डकारण्य भारत के उत्तरी एवं दक्षिणी सिक्कों को जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है।
बौद्ध विहार और प्राचीन पुरातत्वों के भग्नावशेषों की प्राप्ति हमें बताती है कि इस सघन वन प्रांत के क्षेत्र में भी ५वीं, ६वीं शताब्दी में ईस्वी में स्थापत्य कला विकसित हुई थी। चैत्य एवं चित्रांकन के भग्नावशेष न केवल हमारी अमूल्य मूल्यवान बहुमूल्य स्टॉक, छात्रों के लिए गहन शोध का विषय है।
अंत में, इतिहास और पुरातत्व में रुचि रखने वाले शोधार्थियों के लिए भोंगापाल के ये मोती उद्यान आदर्श पर्यटन स्थल के रूप में दर्शनीय हैं, यहां नासिकिक सौंदर्य के साथ-साथ कल-कल प्रवाहित होने वाली पहाड़ी नदी तमुरा और उसके निकट के पर्वत श्रृखंला और विशाल वन किसी भी आने वाले का मन मोह लेते हैं।
बस्तर प्राचीनकाल से ही संस्कृति और चेतना का केन्द्र रहा है
बस्तर प्राचीन काल से हीसभ्यता और संस्कृति के अवशेष बिखरे पड़े हैं जो पुरातत्व और इतिहास में रुचि रखने वाले शोधार्थियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। बस्तर की नैसर्गिक सुंदरता हमें पचमढ़ी, नैनीताल, मसूरी और कुल्लु मनाली को याद दिलाती है। वन्य प्रणियों का स्वच्छ विचरण भी वन सौंदर्य का वर्द्धन करता है। पुरातत्व की दृष्टि से न जाने कितने प्राचीन मंदिर हैं जो शोध को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। ऐसे ही स्थलों में से एक महत्वपूर्ण स्थल है - भोंगापाल।
जहां खुदाई में बौद्धकालीन चैत्य मंदिर, सप्त माह का मंदिर और शिव मंदिर के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थल गहन वनाच्छादित और दुर्गम है। इस स्थल का भ्रमण करने से ज्ञात होता है कि बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार सुदूर अंचल तक रहा होगा। दुर्गम स्थल होने के कारण स्वाभाविक ही पुरातत्ववेताओं का ध्यान इसकी ओर न गया हो। हल्वी में भोंगा का अर्थ छिद्र, भग्न या खंडित होता है। भोंगा अर्थात जो प्रतिमा खंडित हो, भग्न हो उसे भोंगरा कहते हैं। पाल का अर्थ ग्राम या समूह होता है। अनेक भारतीय भाषाओं में अभी भी पाली या पल्ली ग्राम या समूह का बोधक माना जाता है।
प्रेमिका को पाने खुरच डाली प्राचीन बुद्ध प्रतिमा!
नवभारत के अनुसार नारायणपुर जिले के ग्राम भोंगापाल से लगे जंगल में मिली करीब 15 सौ साल पुरानी भगवान बुद्ध प्रतिमा अंधविश्वास की भेंट चढ़ रही है। इस प्रतिमा को स्थानीय ग्रामीण डोडा मुखिया और डोकरा बबा के नाम से पूजते हैं, किंतु इस दुर्लभ प्रतिमा के बारे में इलाके में एक अंध विश्वास है कि डोडा मुखिया के शरीर का चूर्ण किसी युवती को खिला दिया जाए, तो वह चूर्ण खिलाने वाले युवक के वश में हो जाती है।
प्रतिमा को लेकर ये किवदंती
खुरच डाली जा रही, दुर्लभ प्रतिमा के बारे में लोककथा है कि डोडा मुखिया की सात पत्नियां थीं और वे सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। उनके शरीर में इतनी शक्ति थी कि अपनी सभी पत्नियों को अपने वश में रखते थे। अगर डोडा मुखिया के शरीर का चूर्ण किसी युवती को खिला दिया जाए तो वह सम्मोहित हो जाती है। इस लोक धारणा के चलते ही भोंगापाल तथा आसपास के गांवों के लोगों ने भगवान बुद्ध की प्रतिमा के हाथ-पैर तथा नाक आदि को धारदार औजारों से खुरच खुरच कर नष्ट कर डाले हैं।
आदिवासियों का मानना हैं कि भोंगापाल में प्राप्त भगवान बुद्ध की प्रतिमा की प्रथमत: जानकारी यहां के स्थानीय आदिवासियों को थी और वे उन्हें अपने देवता गांडादेव मानते थे। साल 1908 में बस्तर के तत्कालीन दीवान पंडा वैजनाथ ने भोंगापाल का दौरा किया था तथा प्राप्त प्रतिमाओं व मंदिर की साफ सफाई करवा कर इसी स्थान पर संरक्षित करने का प्रयास किया था। अब हमारी आधुनिक पीढी आ गयी है जिसे पता है कि यहाँ नलकालीन शैव विरासतें बिखरी हुई हैं, गुप्तकालीन बौद्ध विरासतें बिखरी हुई हैं।
काले पेंट से पोते जाते थे बुद्ध
जानकार कहते हैं कि काले पत्थर का निर्मित था या सफेद ग्रेनाईट का। इसकी विशेषताओं पर ही काला नहीं पोता गया अपितु अध्ययन की संभावनाओं पर भी कालिख पोत दी गयी है। स्थानीय लोगों ने ऐसा किया है तो पुरातत्व विभाग ने पता नहीं लेकिन बस्तर की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विरासतों का संरक्षण का मामला भी पिछड़ा हुआ है?
अब जाकर बौद्ध चैत्य जिसके चारों और ईंटों की संरचनायें संरक्षित करने की कोशिश हुई हैं अपितु उनपर घास उग आयी थी और प्रकृक्ति अपनी गति से क्षरण कर रही थी। ईटों की संरचना के अंदर एक मिट्टी व एसबेस्टस की छत वाली झोपड़ी बना दी गयी थी और अंदर बुद्ध प्रतिमा सुरक्षित मान ली गयी थी।
भीतर प्रवेश करते ही जलते दीपक और वहाँ रखी हुई ढफली आदि को देख कर लगा कि धार्मिक रूप से तो यहां का महत्व अभी भी कायम है लेकिन जो पीड़ादायक है वह था भगवान बुद्ध की प्रतिमा को काले पेंट से पोत दिया जाता था।
बस्तर में पले बढ़े सुपरिचित लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने बस्तर के उन पक्षों, तथ्यों और विशेषताओं को सामने रखा है जो अब तक बहुत ही कम पढऩे-सुनने को मिले हैं। उनके 250 लघु-आलेख की श्रृंखला-बस्तर की अनकही-अनजानी कहानियों में यह प्रकाशित हैं। उन्होंने लिखा था कि प्रतिमाओं पर कालिख चढ़ा रहा है, यह कैसा संरक्षण है जो इस गुप्तकालीन विरासत के कैंसर का इलाज नहीं चाहता।
जिस प्रतिमा का उल्लेख सदियों पहले चीनी यात्री अपने यात्रावृतांत में करता है, जिस प्रतिमा के आकार प्रकार जितनी कोई ईदूसरी दूसरी बुद्ध प्रतिमा बस्तर भर में कहीं प्राप्त नहीं हुई उसकी इस निर्ममता से उपेक्षा करना सही नहीं। इतिहास पर काला पेंट पोतने की प्रवृत्ति से हमें बचना ही होगा अन्यथा कल कोई भी हमारे गौरवशाली इतिहास पर कालिख फेर देगा।
ऐतिहासिक रूप से छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण पुरातात्विक महत्व के बुद्ध सर्किट में सिरपुर, राजिम, तुरतुरिया, ताला, डमरू और भोंगापाल साबित करते हैं कि वाकई में दक्षिण कोसल बौद्ध धम्म के क्षेत्र में समृद्ध स्थल के रूप में गिने जाते रहे हैं। विशेषकर भोंगापाल के ईंट गुप्तकालीन संरचना को प्रदर्शित करते हैं।
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