बस्तर को शांति का इंतज़ार

इन्हें हथियार डालने बाध्य किया जाना चाहिए

दिवाकर मुक्तिबोध

 

छत्तीसगढ के बीजापुर में स्थित नक्सलियों की सर्वाधिक सुरक्षित शरणस्थली कर्रेगुटा की लम्बी चौडी पहाड़ी को नक्सल मुक्त करने और 31 नक्सलियो को मार गिराने के चंद दिनों के भीतर ही सुरक्षा बलों के जवानों ने अबूझमाड में एक और आपरेशन को अंजाम दिया और जबरदस्त सफलता हासिल की. 21 मई को फोर्स ने नारायणपुर, बीजापुर व दंतेवाड़ा का सरहदी इलाके बोटेर में नक्सलियों के साथ मुठभेड की तथा 31 नक्सलियों का खात्मा किया.

इस आपरेशन को अब तक का सबसे सफल आपरेशन इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि इस मुठभेड में सीपीआई (माओवादी) की पोलिट ब्यूरो के प्रमुख सदस्य व महासचिव बसव राजू उर्फ नंबाला केशव राव मारा गया. नक्सल उन्मूलन की दिशा में सुरक्षा बलों की यह सफलता बहुत मायने रखती है. यद्यपि नक्सल प्रभावित बस्तर में अब तक की मुठभेड़ों में अनेक नक्सली कमांडर मारे गए किंतु बसव राजू का मारा जाना यानी नक्सलियों के सशस्त्र नेटवर्क का तहस-नहस

हो जाना है. डेढ करोड का इनामी बसव राजू करीब ढाई दशक से दंडकारण्य क्षेत्र के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय था. बस्तर में सभी प्रमुख हिंसक घटनाओं जिसमें ताडमेटला व झीरम घाटी नरसंहार भी शामिल है, उसकी भूमिका रही है. बोटेर मुठभेड में फोर्स की गोलियों से बसव राजू की मौत के बाद अब 18 वे नक्सली नेता बंदूक की नोक पर हैं जिनके बारे में फोटो सहित जानकारी मीडिया को उपलब्ध कराई गई और जो स्थानीय अखबारों में प्रकाशित है.

महज एक माह के भीतर कर्रेगुटा व बोटेर इन दो मुठभेड़ों में करीब 62 नक्सलियों की मौत की घटना छत्तीसगढ के पचास वर्षों के नक्सल इतिहास में अभूतपूर्व है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि फोर्स ने घने जंगलों में नक्सलियों की मांद में घुसकर उन्हें ललकारा हो तथा बड़ी संख्या में उन्हें मौत के घाट उतारा हो.

कर्रेगुटा घटना के दौरान सीपीआई (माओवादी) ने शांति वार्ता की अपील जारी की थी जो डेढ वर्ष में फोर्स के दबाव व मुठभेड़ों में नक्सलियों के मारे जाने व संगठन के कमजोर पडने के बाद पांचवी अपील थी लेकिन बोटेर घटना में गंभीर नुकसान झेलने के बाद फिलहाल उसकी ओर से नयी अपील जारी नहीं हुई है और अब शायद होगी भी नहीं. दरअसल संगठन आतंकित और भयभीत है. वह समझ गया है उसकी अपील का राज्य सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है. लेकिन इस बात की आशंका है कि उनकी बौखलाहट की इस स्थिति में हिंसक वारदातें बढ़ सकती हैं जिसके शिकार बस्तर के आम लोग भी हो सकते हैं जैसे कि पूर्व में भी होते रहे हैं.

लेकिन छत्तीसगढ सरकार नक्सल मोर्चे पर फोर्स को लगातार मिल रही सफलता से उत्साहित व संतुष्ट है. मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने बोटेर घटना के बाद उम्मीद जाहिर की कि बस्तर से नक्सलियों का सफाया तयशुदा तारीख मार्च 2026 से पहले ही हो जाएगा. संभव है, ऐसा ही हो पर मीडिया में घोषित डेढ दर्जन दुर्दांत नक्सलियों में से यदि एक भी जिंदा रहा तो मान लेना चाहिए कि बस्तर में आतंक जिंदा रहेगा जो कभी भी फन उठा सकता है. इसलिए ये सभी मारे जाने चाहिए अथवा इन्हें हथियार डालने बाध्य किया जाना चाहिए.

सशस्त्र बल अपना काम द्रुत गति से कर रहा है किंतु आत्मसमर्पण, पुनर्वास, विकास व शांति वार्ता नक्सल उन्मूलन की प्रक्रिया में साथ-साथ चलने चाहिए. दुर्भाग्य यह कि सरकार बंदूक पर अधिक भरोसा कर रही है. हालांकि एक हद तक यह उचित है फिर भी इन्हें मुख्य धारा में लाने की कवायद तेज करनी चाहिए जो नहीं के बराबर है. इसमें क्या शक कि फोर्स की आक्रामकता से नक्सलियों का संगठन इतना कमजोर पड़ गया है कि वह अब लड़ नहीं सकता. इसीलिए उसके नेता जान की सलामति चाहते हैं. बार-बार वार्ता की अपील का बड़ा कारण भी यही है.

नक्सल मुद्दे पर बरसों से जो कहा जाता रहा है उसे अब मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय व गृह मंत्री विजय शर्मा भी दुहरा रहे हैं. यानी बातचीत होगी पर पहले नक्सलियों को हिंसा छोड़कर आत्मसमर्पण करना होगा. विजय शर्मा यह शर्त लगाते हैं कि हैदराबाद के नक्सलियों से बातचीत नहीं होगी. जबकि यह तथ्य सर्वविदित है छत्तीसगढ के आदिवासी नक्सलियों का नेतृत्व प्रमुखत: आंध्रप्रदेश-तेलंगाना के वे नेता करते रहे हैं जो अच्छे खासे पढ़े-लिखे व वैचारिक दृष्टि से मजबूत हैं. बोटेर में मारा गया बसव राजू वारंगल विश्वविद्यालय का ग्रेजुएट था.

यदि राज्य सरकार कथित 'बाहरी' नक्सल नेताओं से बातचीत करना नहीं चाहती तो किनसे बातचीत करेगी? उपाय क्या हो सकता है ? जवाब है, वहीं जो पहले भी हुआ है - मध्यस्थता. बिना मध्यस्थता के बात आगे नहीं बढेगी. मध्यस्थता कौन करेगा यह अलग प्रश्न है लेकिन सरकार चाहेगी और यह जरूरी भी है कि सभी प्रमुख नक्सली नेता पुलिस के सामने आए व आत्मसमर्पण करे. तभी बातचीत का मामला आगे बढ़ सकता है.

किंतु यह ऐसी शर्त है जिसे भाकपा (माओवादी) शायद ही कुबूल करें पर चूंकि कमेटी ही वार्ता की इच्छुक है तो उसे सरकार की इस शर्त को मानना होगा. मानसिक रूप से उसे इसके लिए तैयार करने की जिम्मेदारी उन प्रखर सामाजिक कार्यकर्ताओं की है जो शहरों में रहते हैं तथा जिन्हें उनके विचारों एवं नक्सल समर्थक होने के कारण अर्बन नक्सली का फतवा मिला हुआ है. ये माओवादी विचारक व्यवस्था में बदलाव तो चाहते हैं पर हिंसक तरीके से नहीं.

ऐसे विचारकों ने पहले भी कुछ नक्सल घटनाओं में जिनमें नक्सलियों द्वारा अपहृत लोगों की रिहाई भी शामिल है, मध्यस्थता की थी. यदि दोनों पक्ष यानी सरकार व भाकपा (माओवादी) उनकी मध्यस्थता स्वीकार करते हैं तो बातचीत के लिए जमीन तैयार हो सकती है. बशर्ते दोनों पक्ष आंख-मिचौली के खेल से बाज आए जो स्पष्टत: नज़र आ रहा है.

 


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