जीवन से जूझते जन की कथा

मनुष्य के भीतर की छिजती जा रही संवेदनाओं की सूक्ष्मता से पड़ताल

अंजन कुमार

 

कैलाश बनवासी की कहानियाँ वस्तुतः निम्नवर्ग व निम्नमध्यवर्ग के जीवन की कहानियां है। उन गांवों व कस्बों में रहने वाली श्रमिक औरतों, किसानों और साधारण जन की कहानी है। जिसमें ग्रामीण किसानो से लेकर शहरी श्रमिक तक अपने जीवन संघर्ष के साथ उपस्थित होते है। नब्बे के दशक के बाद से वैश्विक रूप में लूट की स्पर्धा जिस तेजी से विकसित हुई, व्यवस्था में तोड़फोड़ तथा व्यक्तित्व व समाज खण्डित होता चला गया। विकास के नाम पर बेलगाम औद्योगिकीकरण व शहरीकरण की आँधी ने गांवों को जिस तरह से नष्ट किया है।

गरीब किसानों को अपने ही जमीन से विस्थापित होकर मजदूर बनने के लिए विवश होना पड़ रहा है। इस पूरे विकासक्रम ने गांव और कृषक जीवन को जिस बुरी तरह प्रभावित किया है। कैलाश बनवासी उन चंद विरले कथाकारों में से हैं। जिन्होंने अपनी कथाओं में गांवों के यथार्थ को केन्द्र में रखा है।

विषमता, शोषण, हिंसा और मिथ्या अंहकार ग्रामीण जीवन के मुख्य अंग रहे हैं। इनकी कथाएँ इन सारी विकृतियों के बीच जीवन-संघर्ष तथा न्याय के मूल्य की स्थापना करती है। आजादी के पहले के गांव और आज के गांव में अंतर है। समय के साथ गांव की विविध छवियाँ, प्रकृति व मानव जीवन की स्थितियाँ - परिस्थितियाँ भी गतिमान यथार्थ के साथ निरंतर परिवर्तित हुई है।

इसके साथ ही ग्रामीण जीवन की जटिलताएँ उसके प्रति संवेदना और उसके यथार्थ को देखने की दृष्टि भी बदली है जो उदारीकरण के बाद आये व्यापक बदलाव की निर्मिति है। जिसे कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में बड़ी खूबी से रचते हैं। जैसे 'बाजार में रामधन' कहानी जो गांव के बदलते माहौल के साथ नई पीढ़ी की स्वार्थपरता और गांव तक में घुस आये दलाल और बाजार की संस्कृति को बेहद यथार्थपरक ढंग से अभिव्यक्त करती है।

वहीं एक गांव फुलझर' में सेठ द्वारा झुग्गी में रहने वालों की जमीन पर कारखाना लगाने के प्रयास और उसके भयावह दूरगामी परिणामों को फैंटेसी के माध्यम से औद्योगिकरण के पीछे छिपे विनाश लीला को उजागर करती है। इसी तरह 'गुरुजी और लोकेश' व 'प्रकोप' आदि कई कहानियाँ भूमडलीयकरण के व्यापक लूट की पड़ताल करते हुए ग्रामीण जीवन के संघर्ष और व्यथा की कथा कहती नजर आती है।

आज बाजार उन करोड़ों असमर्थ लोगों के हितों की कीमत पर अपना विस्तार कर रहा है। जिसे सुनियोजित ढंग से हाशिये पर धकेला जा रहा है। उन मानवीय संवेदनाओं को तकनीक और कारपोरेट मीडिया के सहारे बेहद सूक्ष्म ढंग से खत्म किया जा रहा है। जिसके नष्ट होने में ही बाजार के मुनाफे की कामयाबी टिकी हुई है। मानवीय मूल्यों के विघटन पर ही आज नव पूंजीवाद का विकास संभव है।

कैलाश बनवासी की कहानियाँ इन्ही हाशिये पर धकेले जा रहे वंचित जनों की आवाज है। उन मानवीय मूल्यों और संवेदनाओ को बचाने की कोशिश है। जिसे निरंतर खत्म कर दिये जाने की कोशिश की जा रही है। 'बड़ी खबर', 'बस के खेल में चार्ली चैपप्लिन', 'जादू टूटता है', 'लोहा, आग और वे' आदि ऐसी ही कहानियाँ है।

जिसमें मनुष्य के भीतर की छिजती जा रही संवेदनाओं की सूक्ष्मता से पड़ताल की गई है। लगातार बढ़ती जा रही गरीबी की उस खाई को दिखाया गया है। जिसमें एक देश के भीतर बड़ी तेजी से दो वर्गों की दुनियां निर्मित की जा रही है। एक सुविधा-संपन्न उपभोगतावादी लोगों की दुनिया तो दूसरा विकास की रफ्तार से बाहर खदेड़ दिए जा रहे वंचित जनो की दुनिया।

नव पूंजीवादी व्यवस्था ने हमारे मूल्यबोध को पलटकर रख दिया है। पहले हमारे मूल्यबोध हमें बताते थे कि अनैतिक और गलत क्या है। आज जीवनमूल्यों में अनैतिक या गलत चीजें समस्या नहीं है। समस्या है पराजित होना या पीछे रह जाना। इसलिए वर्तमान मध्यवर्ग अब लालची प्रॉपर्टी डीलर, भ्रष्ट पत्रकार, शेयर मार्केट का दलाल, दबंग अफसर, चमकते समारोह में बैठा लेखक जैसा कुछ बनने के लिए सारे जोड़तोड़ करना सीख रहा है। यानी महत्वकांक्षा ने जीवन के सारे नियम-कानून और लाज-शर्म को बुरी तरह कुचल डाला है।

जो पूंजीवाद के द्वारा लिबरल संस्थानवाद की समाप्ति के परिणामस्वरूप हुआ है। इसने हर संस्थान, हर कानून, हर नियमावली के ऊपर ताकतवरों की शख्सियत को स्थापित करने का प्रयास किया है। जिसमें लोकतंत्र धीमी गति से चलने वाली ऊबाऊ, नीरस परिघटना हो जाती है। जबकि ताकतवर चरित्र के तेजी से गति वाले कारनामों पर विश्वास पैदा करना ही सूचना माध्यम का दायित्व बना दिया जाता है। मनुष्य ने सफलता के लिए धूर्तता और दिखावे की शराफत को बहुत मेहनत से हासिल कर लिया है और दुनिया की हर चीज से वह मुनाफा पैदा करने की कोशिश में लगा है।

आज भारतीय मध्यवर्ग एक साधारण मूल्यसंपन्न व्यक्ति की तरह भी सोचना व व्यवहार करना भूलता जा रहा है। प्रतिमानहीनता, पाखण्डपूर्ण जीवन-शैली तथा आचरण-आदर्श में बढ़ता विरोध समाज भरा हुआ मक्कार और अमानवीय बनाता जा रहा है। जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व से ज्यादा उसका सफल और शक्तिशाली होना ही महत्वपूर्ण हो गया है। कैलाश बनवासी की कई कहानियाँ इन प्रवृत्तियों को प्रभावशाली ढंग से विश्लेषित करती है। 'मोहल्ले का मैदान और खाड़ी युद्ध', 'वह एक कॉलम की खबर', 'प्रक्रिया', 'गुरु ग्रंथि', 'मूर्ति' 'झांकी' आदि कहानियाँ बाजार और बाजार से निर्मित छल-छद्म से भरे ऐसे ही व्यक्तित्व को बेहद बेहतर ढंग से उजागर करती है।

विगत कुछ वर्षों में समाज में ज्यादा व्यावहारिक लोगों को नया वर्ग तेजी से विकसित हुआ है। सफेदपोश अपराधियों का वर्ग जो राजनैतिक गलियारों में अपनी पैठ बनाये दलालों के रूप में काम करते नजर आते हैं। शिक्षा से लेकर अन्य विभागों तक जुड़े इन लोगों के समाने एक साधारण व ईमानदार व्यक्ति स्वयं को कितना निरीह और असहाय सा महसूस करता है।

इन तमाम स्थितियों से उत्पन्न पीड़ा, असंतोष, भय, बैचनी, तनाव, उलझन, निराशा, अवसाद और आत्महीनता के बोध को यह कहानियाँ बेहद स्वभाविक रूप में प्रस्तुत करती है। 'यह दाग-दाग उजाला', 'उनकी दुनिया', 'रंग तेरा मेरे आगे' आदि कहानियों व उपन्यास में शिक्षा जगत की इन्हीं तमाम विसंगतियों को परत-दर-परत खोलते हुए और उससे जुड़े लोगों के भ्रष्ट और धूर्तता से भरे आचरण की वास्तविकता से रूबरू कराती है।

किस तरह बहुत सारी झूठी सूचनाओं, झूठी छवियों और झूठे विचारों से पूरे माहौल को विषाक्त कर दिया गया है। जिसने लोगों के व्यवहार में नफरत के साथ क्रूरता को बढ़ाया है। मनुष्य की स्वतंत्रता पर नये किस्म से पहरे लगाये जा रहे है। इस भयावह यथार्थ को कैलाश बनवासी 'लव जिहाद', 'सुराख', 'एक अ-नायक की अधूरी कहानी' आदि कहानियों में बेहद यथार्थपरक ढंग से अभिव्यक्त करते हैं।

स्त्री के जीवन के दुख, पीड़ा और संघर्ष को भी कैलाश बनवासी ने अपनी कहानी में बड़े सुन्दर ढंग से रचा है जिसमें गोमती एक नदी का नाम है', 'कविता पेटिंग पेड़ कुछ नहीं' के साथ उनका महत्वपूर्ण उपन्यास 'लौटना नहीं है अब' शामिल है। जिसमें भारतीय समाज में स्त्री के दारुण त्रासद जीवन को बहुत ही मार्मिक व संवेदनशीलता के साथ रचा गया है।

हांलाकि कैलाश बनवासी ने प्रेम पर उस तरह से ज्यादा कहानियाँ नहीं लिखी 'चक दे इंडिया' या 'मोहब्बत जिंदाबाद' जैसी कहानियों को छोड़ दे तो। लेकिन प्रेम की कोमल अनुभूतियाँ, अर्न्तद्वंद्व, आसक्ति, वैचनी, गहरी तड़प, उलझन, कशमकश से भरे प्रेम के विभिन्न मनोभावों और मनःस्थितियों को गीतों, शेरों और कविताओं के साथ शिद्दत से अपने नये उपन्यास 'रंग तेरा मेरा आगे में' बड़ी खूबसूरती से रचते हैं।

कैलाश बनवासी की कहानियाँ और उपन्यास अपने मानवीय अनुभवों के माध्यम से सामाजिक त्रासदियों का चित्रण करते हुए निजता और सामाजिकता के गाढ़े संबंधों की परते खोलती चलती है। जिसमें परिवेश और व्यक्ति के टकराव के साथ उस परिवेश से बाहर आने की गहरी छटपटाहट मौजूद है। जो व्यक्ति के संघर्ष को महत्वपूर्ण बनाती है।

इन कथाओं में दलाल, अफसर, पत्रकार, कर्क और सामान्य नौकरीपेशा लोगों की रोजमर्रा की मुश्किले ही नहीं उनकी खोखली होती आत्मा की सूक्ष्म जाँच भी की गयी है। यह कहानियाँ विकृतियों, विद्रूपताओं को प्रकट करने के लिए चरित्रों के मनोवेग, द्वंद्व, तीव्र उलझन से भरी मनःस्थिति को गढ़ने के साथ उसे कथा के भीतर से बेहद प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करती है।

कैलाश बनवासी का अपना परिवेश, निजी भाषा और यथार्थबोध है। वह इन तीनों के प्रति सचेत रहकर इनमें संतुलन बनाते हुए ऐसे चरित्रों का निर्माण करते है। जो चरित्रों के विघटन के दौर में कथा व्यक्तित्व व चरित्रों को जीवित करती है और पाठकों के लिए अविस्मरणीय बन जाती है। हम इन कहानियों के भीतर कुछ लोगों को पहचानने लगते हैं और उनके संघर्षों में अपनी जीवन की छवियाँ पा लेते हैं। जिसमें पाठक सामाजिक ही नहीं बल्कि संवेदनात्मक व वैचारिक चेतना से भी विकसित होता चलता है।

कैलाश बनवासी की कहानियाँ केवल यथार्थ की जटिलताओं और विसंगतियों को उजागर ही नहीं करती बल्कि यथार्थ की भयावहता और संकटपूर्ण स्थितियों के बीच जीते, लड़ते लोगों के संघर्ष को स्थापित भी करती है। इस तरह यह कहानियाँ समकालीन समय की निरर्थकताओं के बीच सार्थकता की तलाश करती कहानियाँ है।

 

 

लेखक युवा साहित्यकार हैं और भिलाईनगर में निवास करते हैं।

 


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