भड़ास 4 मीडिया के 17 साल
यशवंत सिंह को सलाम, जो खबर नहीं क्रांति रचते हैं!
मनोज अभिज्ञान17 साल पहले जब देश की मीडिया संस्थाएं धीरे-धीरे कॉर्पोरेट की गोद में बैठ रही थीं, तब एक आवाज़ उठी। ये न नपे-तुले शब्दों में थी, न ही सूट-बूट पहने किसी एंकर की तरह सलीकेदार। ये आवाज़ थी सड़क की, न्यूज़रूम की, संघर्ष की, और सबसे बढ़कर-सच की। इस आवाज़ का नाम था-भड़ास 4 मीडिया। और इसके पीछे जो शख़्स था, वो कोई आम पत्रकार नहीं, यह थे यशवंत सिंह थे-न सिर्फ बाग़ी और योद्धा बल्कि सुलझे हुए चिंतनशील व्यक्तित्व।

यशवंत सिंह ने पत्रकारिता को न मालिक की गुलामी माना, न सत्ता की चापलूसी। उन्होंने पत्रकारिता को उस रूप में जिया, जैसा उसका स्वाभाविक स्वरूप होना चाहिए-जनता की आँख, जनता की जुबान, और जनता का हथियार। उन्होंने भड़ास को बनाया ऐसा मंच, जहाँ मीडिया के भीतर की सड़ांध को बेझिझक उजागर किया जा सके।
भड़ास महज़ वेबसाइट नहीं, सवाल है। और यह सवाल उन चैनलों से है जो टीआरपी के लिए नैतिकता बेचते हैं। यह सवाल उन संपादकों से है जो सत्ता के तलवे चाटते हैं। और यह सवाल उस मीडिया से है, जो खबर नहीं दिखाता, बल्कि एजेंडा चलाता है।
आज जब भड़ास4मीडिया अपने 17 साल पूरे कर चुका है, यह सिर्फ सालगिरह नहीं, बल्कि उस जुनून का उत्सव है जो डरता नहीं, झुकता नहीं, बिकता नहीं।
यशवंत सिंह ने भड़ास के जरिए जो किया, वह केवल पत्रकारिता नहीं थी। वह सामाजिक हस्तक्षेप था। उन्होंने न केवल मीडिया की खबरें छापीं, बल्कि पत्रकारों की लड़ाइयाँ लड़ीं। जब कोई पत्रकार नौकरी से निकाला गया, यशवंत सिंह खड़े हुए। जब किसी रिपोर्टर ने आत्महत्या की, भड़ास ने आवाज़ उठाई। जब मीडिया ने चुप्पी साध ली, तब भड़ास ने चीखना शुरू किया।
इन 17 वर्षों में भड़ास ने जितने दुश्मन बनाए, उससे कहीं ज़्यादा चाहनेवाले खड़े किए। क्योंकि जो सच बोलता है, वो अकेला होता है। लेकिन जब वो सच लगातार बोलता है, तो पूरा कारवां बन जाता है। आज भड़ास ऐसा कारवां है जो हर उस व्यक्ति को आवाज़ देता है, जो सिस्टम से लड़ रहा है।
यशवंत सिंह को सलाम इसलिए नहीं कि उन्होंने एक वेबसाइट चलाई, बल्कि इसलिए कि उन्होंने संघर्ष को एक मंच, और क्रांति को एक URL दे दिया।
आज ज़रूरत है और भड़ासों की... और यशवंत सिंहों की। क्योंकि जब सच बोलने की कीमत जान से ज़्यादा हो जाए, तब वही बोलता है, जिसके सीने में आग हो।
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